कितनी पुरानी साध है यह
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल .....
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....
दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...
मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..
तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
७ जुलाई 2008