शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

पुराने डर फेंक दो तुम भी

साये में धूप पलट रही थी । पता नहीं क्यों मेरा ध्यान इस गजल पर अटक गया। यह गजल आगे बढ़ने और लड़ने बदलने के लिए जागरूक करती है। यह गजल कहती है कि तमाम डर भय कुंठाओं से मुक्ति पाकर आगे बढ़ने को कहती है...इसी लिए मुझे यह प्रासंगिक लग रही है...2008 पुराना पड़ गया है....उसके आखिरी दिन चल रहे हैं...मेरा कहना है कि इस साल में मिले सारे डर भय कुंठा को मिटा कर साल 2009 का स्वागत करें.....इसके लिए दुष्यन्त कुमार त्यागी की एक गजल पेश है.....आप सब जानते ही होंगे कि दुष्यंत जी भी इलाहाबादी थे....हालाकि उनका जन्म बिजनौर उत्तर प्रदेश में हुआ था .और उनकी कर्म भूमि भोपाल थी .....लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद से की थी....इस लिहाज से वे इलाहाबादी होते हैं...वहाँ प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर और मार्कडेय उनके सहपाठी थे.....और डॉ. राम कुमार वर्मा जैसे बड़े साहित्यिक उनके गुरु थे....पढ़ें आज दुष्यंत जी की यह गजल

फेंक दो तुम भी

पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी ।
लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी ।
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी ।
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी ।
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ शब्द कुछ स्वर फेंक दो तुम भी ।
किसी संवेदना के काम आएँगें
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

क्या हमारी जिन्दगी का स्क्रीन प्ले नेता और आतंक वादियों के हाथ में है ?

हर बार एक नई परत खुल रही है । हर परत के नीचे दबता आम हिन्दुस्तानी दमघोटू माहौल में जी रहा है। राजनेताओं ने अपनी रोटिय़ाँ सेंकी,इतनी सेंकी की आम जनता इनकी रोटियों के नीचे दबती गई । मूढ जनता भी समझ रही है साफ साफ । जिसे भुगत रही आम जनता, हमारे जवान ,हमारे अधिकारी।
इस वोट की राजनीति ने वैमनस्यता की इतनी दीवारे खड़ी कर दी हैं जिन्हें मिटाना
नामुमकिन सा दिख रहा है , इन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाया इन आतंकी संगठनों ने । इस छलावे की राजनीति में आतंकी अजमल के हाथ पर बधी रोली भी नित नई उलझन नित नई गुत्थी जो हमेशा की तरह उलझी की उलझी रहेगी । हर दिन हम सभी अपने अपने घरों में न्यूज पेपर और खबरी चैनल देखते हैं इस उत्साह के साथ की कुछ तो सही सही सबूत सामने आएगा पर वही ढाक के तीन पात ।
भावुकता इन्सानियत का गला घोटती है और धसाती जाती है दलदल में । भारतीय जनता सचमुच दलदल में फस गई है ,इससे कैसे ऊबरा जाए सोचना होगा । या फिर वही बयान और जूलूस के बाद फिर किसी भी दिन सौ दो सौ का अकाल काल के गाल में चले जाना जारी रहेगा ।
छब्बीस ग्यारह के सदमे से हर भारतीय सदमें का गुबार लिए जी रहा है पर क्या लगभग सवा अरब जनता का साथ देगें ये मुट्ठी भर नेता ? देखिए देखिए नेता जी को आप बरबस कहेगे भुख्खड़ नेता कैसा हो नारायण राणे जैसा हो । कैसे बच्चे हैं ये नेता जिन्हें कुर्सी चाकलेट की तरह अच्छी लगती है नहीं मिली तो लोट पोट शुरू ।
इस राजनीति और आतंकवाद पर कहने को बहुत बहुत कुछ हर जनमानस के मन में है ।फिलहाल बचपन की पढ़ी एक एक कविता जनता, नेता और मातम पसारने वाले चेहरों के लिए।
जनता के लिए
वीर तुम बढ़े चलों
धीर तुम बढे चलो,
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो।
तुम निडर हटो नहीं
तुम निडर डटो वहीं,
प्रात हो की रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो ,
वीर.......
नेताओं को समर्पित
उठो लाल अब आखें खोलो
पानी लाई हूँ मुहँ धोलो,।
बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भौरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर।
नभ में न्यारी लाली छाई ,
धरती ने प्यारी छवि पाई ।

भोर हुआ सूरज उग आया ,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुन्दर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
आतंक के सौदागरों से
तु्म्हें भी किसी माँ ने जनम दिया है
वह तुम जैसों को
जन्म देने से पहले मर क्यों न गई
कम से कम अपनी जननी की खातिर बन्द करो खूनी खेल।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
यही तो है जिन्दगी का रास्ता
तुम्हें अमन का शान्ति का वास्ता
यही तो लिखा गीता और कुरान में
यही तो वाणी नानक और कबीर की
इसी लिए तो गाँधी जी नें जान दी
की समझे दुनिया बात उस फकीर की
खुद जिओ...