मंगलवार, 20 जनवरी 2009

कामनाओं का कंकाल

अनोखे आख्यान की अनुभूति परक प्रवंचना


सागर की लहरें छम-छम करती अपने आरोह अवरोह में
गुंफित हो हो पुकार रही थीं। सब कुछ । कुछ नहीं। बस । भटकाव और भटकाव और...पंछियों का नीड़ गमन। कहीं बजता राग यमन। पवन का पल्लवित आलोड़न।

कौन था कौन कुछ पता न चला। हिला एक मेघ आर्द्र। जैसे झुनझुना बजा हो आकाश के आँगन में। खिली हों लाखों कोमल मुदित अग्नि अलकें। मैं पलके बिछाए बिसूरती हूँ। दिप दिप करके मेघ हंसा। पछुआ ने डसा किसी बिरहन को। कोई गेहुअन डोला महुअर के मंत्र पर।

वहाँ तुम हो क्या। पच्छिम के छोर क्षितिज पर साँसों के धुएँ में घुले समाए शोक के समान। क्या कहा था फूल की मरती महक ने सूखती घास से। जलते चिलमन से। मदिर था साँझ का सूना सलोना संथागार।

मैं वहाँ क्यों थी। तुम थे। मेरी कामनाओं के कंकाल में खिले असीम अछोर आकाश की तरह।
मुझे झमक कर जगा गई रागिनी तुम्हारे आहत मन की । मैं हृत तंत्री ठाड़ी रही। साँझ रात हुई।

खो गए । सपने सो गए। मैं बिसर गई। सब....सब.....सब बातें । घातें। आते जाते। बतियाते मुझे भूल जाओ । खुश रहो। आमीन । मैं मात्र तुम्हारी सूनी संध्या...।

रविवार, 11 जनवरी 2009

ये तहरी खिचड़ी की फैशनेबल बहन है


लावण्या दी आप ने मेरी पिछली पोस्ट पर तहरी क्या है और कैसे बनाते हैं यह सवाल किया था। मै जब बता रही थी तभी हमारा लैपटॉप नखरे करने लगा ....करती क्या आजीज आकर सट डाउन करना पड़ा । बड़ी दी की आज्ञा पालन करना था सो आज कर रही हूँ ..

1-तहरी – वह व्यंजन जिसमें चावल के साथ सब्जियों को मिला कर पकाया जाए,
2-दूसरी तहरी – पेठे की बरी और चावल की खिचड़ी को भी तहरी कहते हैं....।

लगता है इस तहरी का सहरी से कोई नाता है। सहरी आप जानती ही होंगी। सहरी सहर शब्द से बना है। सहर यानी प्रात: काल । रमजान के दिनों में सहरी खाई जाती है। भोर के कुछ पहले । कहीं कहीं इसे सहरगही भी कहते हैं । कुछ हिस्सों में यह करवा चौथ पर भी खाया जाता है। अब यदि सहरी के हिसाब से देखे तो तहरी तिसरे पहर का खाना हो सकता है । पर यह सहरी के साथ तहरी का नाता महज मेरा अनुमान है। बाकी भाषा विद् जाने।
हम जो तहरी बनाते हैं उसमें चावल के साथ ही उड़द की दाल और सब्जियों को मिला कर तेल-घी और गरम मसाले साथ भुनते हैं। थोड़ी देर के बाद जब सब कुछ थोड़ा हल्का कुर कुरा हो जाए तो पानी और नमक डाल कर पकने देते हैं। कुकर की एक सिटी के बाद तहरी तैयार।
आप कह सकती हैं कि खिचड़ी जहाँ एक साफ सुथरी सिम्पल बहन है वहीं तहरी इतने सारे नखरे करती है । स्वाद बढाने के लिए और मसालों के साथ शुद्ध घी ,दो चार सब्जियाँ, जीरा तेजपत्ता, प्याज-लहसन जो चाहे मिलाते जाएँ स्वाद बढ़ाते जाएँ।
बस ऐसे ही बनाते है हम तहरी.। आप भी बनाएँ और खाएँ खिलाएँ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

लड़कियों की सामाजिक हैसियत पर १९२५ में लिखे अपने उपन्यास निर्मला में प्रेमचंद ने एक सवाल उठाया था। वो सवाल आज भी जस का तस कायम है। हालात बदले हैं लेकिन लड़कियों की दशा नहीं बदली है। कुछ तबकों में बदली सी दिखती है, उन तबकों में प्रेम चंद के समय में भी बदली हुई सी थी। बड़ा वर्ग आज भी वहीं खड़ा है जहाँ १९२५ में खड़ा था। आज भी लड़कियाँ दोहरे बरताव का शिकार हैं। संदर्भ है निर्मला की शादी तय हो गई है। अभी वह नाबालिग है। और नहीं समझ पा रही है कि उसकी शादी क्यों की जा रही है। पढ़े निर्मला और उसकी छोटी बहन कृष्णा की बात चीत का यह अंश।


कृष्णा-- मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेले मुझ से यहाँ न रहा जायेगा।

निर्मला मुस्कराकर बोली-- तुझे अम्मा न जाने देंगी।

कृष्णा-- तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाऊंगी।

निर्मला-- कह तो रही हूँ, कोई सुनता है!

कृष्णा-- तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?

निर्मला-- नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों ज़बर्दस्ती निकाल देता?

कृष्णा-- इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?

निर्मला-- और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

कृष्णा-- चन्दर भी निकाल दिया जायेगा?

निर्मला-- चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?

कृष्णा-- तो लड़कियाँ बहुत ख़राब होती होंगी?

निर्मला-- ख़राब न होतीं तो घर से भगाई क्यों जाती?

कृष्णा-- चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ठंड की याद में हूँ

जाड़ा चाहिए

उत्तर भारत ठंड की चपेट में है। लोग मर रहे हैं। इस कड़ाके की ठंड को देखते हुए मैं रात 10 के बाद किसी संबंधी, किसी दोस्त मित्र को फोन नहीं कर रही हूँ। क्या पता वो रजाई में घुस चुका हो। पर यहाँ मुंबई में स्वेटर सिर्फ निकले हैं और हम सोच रहे हैं कि काश और ठंड पड़ती और हम स्वेटर पहनते। याद कर रहे हैं धूप में भी रजाई ओढ़ कर सोना।

रात गए मुंगफली तोड़ कर खाना। बाजरे की रोटी और गुड़ खा रही हूँ पर वह स्वाद नहीं मिल रहा है। याद आ रही है ओ ठंड जब हम स्कूल कॉलेज या विश्वविद्यालय जाया करते थे और ठंड से मेरी नाक आँख लाल हो जाया करती थी । ऐसा लगता था कि मैं रो रही हूँ। सहेलियाँ पूछती थी कि क्या हुआ क्यो रो रही हो। मैं बताती की ठंड लग रही है। रो नहीं रही हूँ।

जब क्लास नहीं होती हम सब धूप खोजते कि कहाँ बैठा जाए। और मुह से खूब भाप निकालते। गरम-गरम भाप। हम लेक्चर रूम में जाने से बचते। दुआ करते कि आज पढ़ाई न हो और हम घर जा कर रजाई में दुबक जाएँ। और घर में काम न करने के लिए बहाने खोजते थे। कैसे भी किचेन में अपनी जगह किसी और को फसाने का जुगाड़ बिठाते थे। और अगर खुद जाना हुआ तो खिचड़ी या तहरी बना कर छुट्टी पा लेते थे।

आज दोपहर में अपनी सासू माँ से बात की तो पता चला कि गाँव में 1 बजे दोपहर में भी धूप नहीं है। वे सब आग ताप रहे हैं। गोल बंद गोष्ठियाँ चल रही हैं। मन आया कि वहाँ पहुँच जाऊँ।
जाड़ा कथा जारी है.....