कैसे थे पिता.....
श्रृष्टि की रचना से रचित रिश्तों की डोर में बँधे और पिता बने दशरथ , राम , शान्तनु फिर बुद्ध ये कैसे कैसे पिता थे आप सब ने जाना है । न जाने कहाँ से आज इनकी यादों ने मुझे से घेर लिया, रहने दो छोडो़ भी जाने दो यार कितना करेगें याद ।.
पिछले महीने भर से हर चैनल पर दिख रहे एक पिता हैं डा. राजेश तलवार, उन पर अपनी ही बेटी आरुषी की हत्या का संदेह है...आप सब ने भी उन पर हमारी ही तरह एक बार शक की निगाह से जरूर देखा होगा...हो सकता है उन पर आरोप सच न भी हो...लेकिन पिता के पद और दायित्व पर तलवार खरे नहीं उतरे हैं...और कोई नहीं तो उनकी पत्नी नूपुर ने तो उन्हें अब तक जान ही लिया होगा कि वो कैसे पिता है ।
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हा यह जरूर है कानून सबूत चाहता है, मागता है, हम भी चाहते है. शंका और समाधान की पुष्टि। बालीवुड की कई कई आँखें लटक रही है सिर्फ एक तार पर और वो तार हैं -अरुषी के पिता डा. तलवार। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखिए होता है क्या और कहानी बनती है क्या । भगवान इस पिता की पुत्री आरूषी की आत्मा
को शान्ति दें ।
दुनिया जहान के हर पिता को हैपी फादर्स डे पर आरूषी के पिता को क्या कहूँ....।
पिता के बारे में बात करने को बहुत बहुत होता हैं। फिलहाल इतना ही कि मेरे पिता
जीवन में जितना सुख-सुविधा-आजादी का जीवन दिया और जिया उतना ही तकलीफ भी झेली अंत के दिनों में। उनकी जेब अपना पराया नहीं देखती थी। देखती थी तो सिर्फ जरूरत मंद को।
मेरे पिता स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी साथ ही अपने उसूलों के पक्के थे । बड़े से बड़ा घाटा हो जाए या फायदा...वो अपनी बात पर डटे रहते थे...इसीलिए जिंदगी में उन्होंने बहुत उतार चढ़ाव देखे.....। दादी की तीन संतालों में वे पहले थे। बड़ी मन्नतो के बाद उनका जन्म हुआ वो भी शादी के 14 साल बाद....दादी-दादा के लिए वो पत्थर की दूब थे....भयानक दुलार में पले-बढ़े। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई की लेकिन दुनियादार नहीं बन पाए मेरे बाबूजी।
मेरे बाबूजी...
मेरे बाबूजी
पत्थर पर दूब की तरह थे
मेरी दादी के लिए,
हमारे लिए थे
वे थे ठोस पत्थर की तरह....
चट्टान की तरह थे
जिन पर हम
खेलते बड़े हुए....
काश की वे दुनियादार होते
काश कि वे वैसे न होते जैसे थे वे
तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी।
7 टिप्पणियां:
अच्छी पोस्ट है। पढ़कर अपने पिता याद आ गये।
पिताजी उतने कठोर लगते हों; पर उनके कोर में मोम होता है जरूर।
मैं जानता हूं - मैं भी पिता हूं।
"पिता"
एक ऐसी विस्तृत छाँव होती है
सँतान के लिये
जिसके आगे,
आसमाँ भी छोटा पड जाता है !
आपके पिताजी को
मेरे श्रध्धाभरे नमन आभा जी -
- लावण्या
बहुत अच्छा लेखन.
सुंदर शैली.
आपका आत्मकथ्य भी मर्मस्पर्शी है.
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शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन
ज्ञान भाई
आप सही कह रहे हैं...मेरे पिता जी का भी मन मोम की तरह था... तभी लोग उन्हें ठग जाया करते थे और वे उन ठगों को भी क्षमा करते रहते थे...इतना ही नहीं वे खुद को ठगनेवालों की जरूरत पर फिर से काम भी आते रहते थे...
"तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी। "
Bahut khoob !बहुत कुछ कहती है ये आपकी पंक्ति .
पिता का सख्त माँ का सशक्त होना मजबूत आधार देता है .
ज्ञान जी से पूरी तरह सहमत हूँ, वही कहना चाह रहा था. बहुत मौके पर एक उम्दा पोस्ट के लिए मेरी बधाई और आपकी हैप्पी फादर्स डे की शुभकामनाओं को सहेज कर रख लिया है. :)आभार.
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