गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

लड़कियों की सामाजिक हैसियत पर १९२५ में लिखे अपने उपन्यास निर्मला में प्रेमचंद ने एक सवाल उठाया था। वो सवाल आज भी जस का तस कायम है। हालात बदले हैं लेकिन लड़कियों की दशा नहीं बदली है। कुछ तबकों में बदली सी दिखती है, उन तबकों में प्रेम चंद के समय में भी बदली हुई सी थी। बड़ा वर्ग आज भी वहीं खड़ा है जहाँ १९२५ में खड़ा था। आज भी लड़कियाँ दोहरे बरताव का शिकार हैं। संदर्भ है निर्मला की शादी तय हो गई है। अभी वह नाबालिग है। और नहीं समझ पा रही है कि उसकी शादी क्यों की जा रही है। पढ़े निर्मला और उसकी छोटी बहन कृष्णा की बात चीत का यह अंश।


कृष्णा-- मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेले मुझ से यहाँ न रहा जायेगा।

निर्मला मुस्कराकर बोली-- तुझे अम्मा न जाने देंगी।

कृष्णा-- तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाऊंगी।

निर्मला-- कह तो रही हूँ, कोई सुनता है!

कृष्णा-- तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?

निर्मला-- नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों ज़बर्दस्ती निकाल देता?

कृष्णा-- इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?

निर्मला-- और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

कृष्णा-- चन्दर भी निकाल दिया जायेगा?

निर्मला-- चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?

कृष्णा-- तो लड़कियाँ बहुत ख़राब होती होंगी?

निर्मला-- ख़राब न होतीं तो घर से भगाई क्यों जाती?

कृष्णा-- चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।

21 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

निर्मला के इस संवाद को प्रस्तुत करने के लिए आभार ही व्यक्त कर सकता हूँ। यह छोटा सा संवाद बहुत सारी बातें एक साथ संप्रेषित कर गया है।

प्रशांत मलिक ने कहा…

सच्ची बात
निर्मला मैंने भी पढ़ा है

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर!

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत कुछ कह देती है यह पंक्तियाँ...

anuradha srivastav ने कहा…

मन को अभी भी चुभती हैं बातें । दादी और नानी के मुहं से अक्सर यही सुना है अपने घर जाऔगी तो ये होगा या वो होगा । समझ नहीं आता था तब की ये घर जहां जन्म लिया ,बडी हुई वो मेरा अपना क्यों नहीं है। निर्मला के संवाद ने एक बार फिर उस कसक को महसूस करा दिया।

Abhishek Ojha ने कहा…

'कुछ तबकों में बदली सी दिखती है, उन तबकों में प्रेम चंद के समय में भी बदली हुई सी थी।' ये तो सच है.
आभार इसे प्रस्तुत करने के लिए. निर्मला बहुत अच्छी किताब है... वैसे तो प्रेमचंद का लिखा कुछ भी बहुत अच्छा होता ही है.

vijay kumar sappatti ने कहा…

aabha ji ,

nirmala ki in pankhtiyon ne samaj ke system par aghaat kiya hai ..

aapne isko publish kiya iske liye main dhanyawad deta hoon.

is amulay rachan ke liye badhai ..

maine kuch nai nazme likhi hai ,dekhiyenga jarur.


vijay
Pls visit my blog for new poems:
http://poemsofvijay.blogspot.com/

Unknown ने कहा…

bahut sundar....

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत समय के बाद आज आपने फिर निर्मला की याद दिला दी. जब जब पढो, एक नई बात उभर के सामने आती है और लगभग कहीं न कहीं, सब आज की ही बात नजर आती है.

आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए.

साथ ही आपकी शुभकामनाओं के लिए बहुत धन्यवाद.

नववर्ष मय परिवार सुखमय हो.

makrand ने कहा…

bahut sunder

अविनाश ने कहा…

खूबसूरत विचार, सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति, हार्दिक बधाई।

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

अत्यन्त सुंदर आपकी प्रस्तुति धन्यबाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आभा जी,
प्रेमचँद जी तो कालजयी रचनाकार हैँ समाज का दर्पण ही दीखलाते हैँ
ऐसे सर्जक !
बेटीयोँ की मनोदशा
समाज , सदा से,
चुप्पी से ही स्वीकारता रहा है -
- लावण्या

Anita kumar ने कहा…

हां बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला और इतनी बड़ी कायनात के नीचे लोगों के घर बसाते बसाते लड़कियां अपने घर ढ़ूढ रही हैं।
प्रेमचंद जी की इस कालजयी रचना का ये मार्मिक अंश प्रस्तुत करने के लिए आभार,

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लगी आप की बात, प्रेमचन्द जी का मै दिवाना हुं, लड्कियो का घर नही होता ?
धन्यवाद

BrijmohanShrivastava ने कहा…

आख़िर हम १९२५ से क्या कर रहे है /उस ज़माने की परिस्थितिया बता देने से कोई हल नही होता /सुधार के लिए कोई मार्गदर्शन दीजिये ,वर्तमान में भी कोई पुराणी कुरीति निरंतर अपनाई जा रही है तो उसको मिटाने हेतु सकारण अपना मर व्यक्त कीजिए /ऐसे उपन्यासों की नक़ल करके तो कोई भी पोस्ट कर सकता है

आभा ने कहा…

भाई यह पोस्ट नकल नहीं है.....केवल एक नजीर है...सामाजिक हालात के न बदलने का। आप भी कोशिश करें कि समाज कुछ बदले । मुझे भी कुछ उपाय सूझेंगे तो जरूर लिखूँगी । रही बात यह कि प्रेम चंद के सामने तो हिन्दी का कोई भी लेखक कोई ही है। क्या मैं क्या आप ।

Dev ने कहा…

खूबसूरत विचार, आप की बात बहुत सुंदर लगी , हार्दिक बधाई।
धन्यबाद

Alpana Verma ने कहा…

Abhaa ji,1925 se aaj tak ladkiyon ke prati dohre vartaav ki sthiti wahi hai.yah ek kadwa sach hai.

is mein kuchh had tak khud striyon ka bhi haath hai..ki ve shayad isee tarah se jeene ki aadi ho gayi hain.
Premchand ji ka likha padhna hamesha achcha lga hai.

Shivani ji ke novels mein striyan hi mukhy patr hoti thin aur unki samsyayen bhi.

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

बहुत सुंदर है आपकी कविता.
आप इतना सुंदर लिखती हैं ये हमें नहीं मालूम था.बस लिखती रहिये किसी बड़े कवी ने कहा है की अगर कविता बची रहेगी तो बहुत कुछ बचा रहेगा.
अखिलेश जी की टिप्पणी बहुत सुंदर लगी ..पढ़ पढ़ कर ऐसे ही टिपण्णी देते रहिये
मगर उनके ब्लॉग पर उत्तर देना संभव नै हुआ ऐसा क्यों?

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

बहुत सुंदर है आपकी कविता.
आप इतना सुंदर लिखती हैं ये हमें नहीं मालूम था.बस लिखती रहिये किसी बड़े कवी ने कहा है की अगर कविता बची रहेगी तो बहुत कुछ बचा रहेगा.
अखिलेश जी की टिप्पणी बहुत सुंदर लगी ..पढ़ पढ़ कर ऐसे ही टिपण्णी देते रहिये
मगर उनके ब्लॉग पर उत्तर देना संभव नै हुआ ऐसा क्यों?