सोमवार, 8 मार्च 2010

सीता नहीं मैं

क्या महिला आरक्षण से देश में स्त्रियों की दुनिया बदल जाएगी। एकदम न बदले तो भी कुछ न कुछ तो जरूर होगा। आज एक महान दिन है। देश दुनिया में बहुत कुछ घट रहा है। आज के दिन मैं अपनी एक कविता छाप रही हूँ।


सीता नहीं मैं


तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।

तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

हाँ.....सीता नहीं मैं
मैं धरती में नहीं समाऊँगी
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

मैं जन्मीं नहीं भूमि से
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।

बंद थी मैं भी नौ महीने
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
न सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर।

मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं
अग्नि परीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं
तुम्हारे अग्नि परीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा।


मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या
उसकी कोई मर्यादा न थी
क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी
तुम तो पुरुषोत्तम थे
नाक काट कर किसी स्त्री की
तुम रावण से कहाँ कम थे।
तुमने किया एक का अपमान
तो रावण ने किया मेरा
उसने हरण किया बल से मेरा
मैं नहीं गई थी लंका
हँसते खिलखिलाते
बल्कि मैं गई थी रोते बिलबिलाते
अपने राघव को पुकारते चिल्लाते
राह में अपने सब गहने गिराते
फिर मुझसे सवाल क्यों
तुम ने न की मेरी रक्षा
तो मेरी परीक्षा क्यों

बाटे मैंने तुम्हारे सब दुख सुख
पर तुमने नहीं बाँटा मेरा एक दुख
मेरा दुख तुम तो जान सकते थे पेड़ पौधों से
पशु पंछिओं से
तुम तो अन्तर्यामी थे
मन की बात समझते थे
फिर क्यों नहीं सुनी
मेरी पुकार।

मुझे धकेला दुत्कारा पूरी मर्यादा से
मुझे घर से बाहर किया पूरी मर्यादा से
यदि जाती वन में रोते-रोते
तो तुम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम होते

मेरे कितने प्रश्नों का तुम क्या दोगे उत्तर
पर हुआ सो हुआ
चुप रही
यही सोच कर
अब सीता नहीं मैं
सिर्फ तुम्हारी दिखाई दुनिया नहीं है मेरे आगे
अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी।

22 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा और भावपूर्ण रचना...मैं सीता नहीं..मैं धरती में नहीं समाऊँगी.

बधाई.


अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

-उड़न तश्तरी

अजय कुमार झा ने कहा…

आभा जी बहुत ही सशक्त रचना , आज के दिन इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता , सच में कुछ अनुत्तरित प्रश्न तो हैं ही छुपे हुए भारतीय इतिहास और संस्कृति के गर्भ में ..आभार और बधाई आपको
अजय कुमार झा

Anita kumar ने कहा…

सही कहा आप ने, आज की नारी सीता नहीं, अन्याय को अपनी नियती समझ कर चुपचाप नहीं सहने वाली। वो प्रश्न करेगी।
राम को तो वैसे भी अब मर्यादा पुरुषोत्तम आज की नारी नहीं मानती, बल्कि एक कमजोर इंसान समझती है।
अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

Anita kumar ने कहा…

आभा जी सच कहा आप ने आज की नारी सीता नहीं, किसी भी अन्याय को अपनी नियती समझ कर बिना प्रश्न किए स्वीकार करने को तैयार नहीं।
न ही राम को मर्यादा पुरुषोत्तम समझती है। आज की नारी की नजर में राम एक बेहद कमजोर इंसान थे।
कविता बहुत सशक्त है।
अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

आभा ने कहा…

अनिता जी आप ने कविता पढ़ी ,आभारी हूँ । राम कमजोर नहीं थे बल्कि युग के दबाव में थे , इसी का तो रोना हैं...

अनूप शुक्ल ने कहा…

बढ़िया कविता। रामजी पढ़ते तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आभा जी ,
आपकी रचना नारी की संवेदना को भलीभांति उजागर करती है - सीता की व्यथा आज भी समीचीन है -
धार्मिक मसले , फिर भी हमेशा , पेचीदा रहे हैं और इस पूरी शताब्दी तक, कायम रहेंगें ऐसा मेरा अनुमान है -
&
Finally , in Year 2010,
a Woman wins
the Best Director's Award
@ the Oscars !!

Happy WOMEN's Day to ALL

&
a link :
http://www.boloji. com/women/ wd5.htm

- लावण्या

पारुल "पुखराज" ने कहा…

"राम" भी दबाव मे ???

सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।

बेहतरीन पंक्तियॉ…आभा

देवमणि पांडेय Devmani Pandey ने कहा…

अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं

बहुत अच्छी कविता है आभाजी, बधाई।
शूर्पणखा प्रसंग पर अलग से एक कविता हो सकती है, ज़रा सोचें !

देवमणि पाण्डेय

आभा ने कहा…

भाई देवमणि जी
टिप्पणी के लिए आबारी हूँ
किंतु शूर्पणखा की तरफ से सोचिए तो मैंने तो बहुत कम लिखा है।

आभा ने कहा…

देव मणि जी आपका सुझाव अच्छा है...मैं कोशिश करती हूँ कि शूरिपणखा पर अलग से क कविता लिख पाऊँ।

शरद कोकास ने कहा…

महाकाव्यों के विभिन्न मिथक पुरुषों द्वारा गढ़े गये है अत: उनकी विचारधारा का समावेश होना स्वाभाविक है । ऐसे मिथकों का वर्तमान मे नया अर्थ ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।

नारी शक्ति स्वरूपा भी है । प्रेम की प्रतिमूर्ति भी है । आवश्यकतानुसार, निश्चय ही अपना रूप ढाल सकती है ।

सुरभि ने कहा…

बहुत दिनों के बाद इतनी भावपूर्ण एवम मानस को झकझोर कर रख देने वाली कविता पढ़ी है. आपका लेखन अत्यधिक प्रभावशाली लगी. उम्मीद है ऐसी ही कई रचनाये और पढने को मिलेंगी. आभार

kshama ने कहा…

सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी।
Poorn rachana josh poorn aur damdaar hai! Wah!

Arvind Mishra ने कहा…

अनुत्तरित ही रहेगें यह प्रश्न मगर आज के नारी पात्र सचमुच अब वैसे दींन हीन नहीं रहे -सशक्त अभिव्यक्ति -बधाई !

Sanjeet Tripathi ने कहा…

sashakt, bhaavpurn!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

bahut hi sundar....kyaa baat...kyaa baat...kyaa baat....

Ashok Kumar pandey ने कहा…

अच्छी कविता कहने भर से काम नहीं चलेगा भाभी…अब तो आपको फ़ुर्सत से बैठ के सुनने की इच्छा बलवती हो रही है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सशक्त अभिव्यक्ति....ऐसे बहुत से प्रश्न मन में उठाते हैं...बहुत अच्छा लिखा है...

मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया

मेरा मुख्य ब्लॉग भी देखें...

http://geet7553.blogspot.com/

राजेश उत्‍साही ने कहा…

बहुत ही मार्मिक कविता है। पर आप नियमित रूप से क्‍यों नहीं लिख रही हैं। यह चुप्‍पी क्‍यों।

shikha varshney ने कहा…

वाह .....वाह ...वाह ओर बस वाह. यही निकल रहा है मुंह से.