बुधवार, 5 सितंबर 2007

एक बात

तुम्हारी कविता

तुम्हारी कविता से जानती हूँ
तुम्हारे बारे में
तुम सोचते क्या हो ,
कैसा बदलाव चाहते हो
किस बात से होते हो आहत;
किस बात से खुश

तुम्हारा कोई बायोडटा नहीं मेरे पास
फिर भी जानती हूँ मैं
तुम्हें तुम्हारी कविताओं से

क्या यह बडी़ बात नही कि
नहीं जानती तुम्हारा देश ,
तुम्हारी भाषा तुम्हारे लोग
मैं कुछ भी नहीं जानती ,
फिर भी कितना कुछ जानती हूँ
तुम्हारे बारे में

तुम्हारे घर के पास एक
जगल है
उस में एक झाड़ी
है अजीब
जिस में लगता है
एक चाँद-फल रोज
जिसके नीचे रोती है
विधवाएँ रात भर
दिन भर माँजती है
घरों के बर्तन
बुहारती हैं आकाश मार्ग
कि कब आएगा तारन हार
ऐसे ही चल रहा है
उस जंगल में

बताती है तुम्हारी कविता
कि सपनों को जोड़ कर बुनते हो एक तारा
और उसे समुद्र में डुबो देते हो।

6 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

वाह ! बहुत सुन्दर ।

Udan Tashtari ने कहा…

वाह जी!! बहुत बढ़िया भाव हैं!! बधाई.

आभा ने कहा…

अफलातून जी और समीर जी आप सब ने पढ़ा अच्छा लगा, धन्यवाद

अनामदास ने कहा…

आभा जी
नमस्कार, कुछ दिनों से पढ़ रहा हूँ, बहुत अच्छा लग रहा है आपका लिखा पढ़ना, जारी रखिए.

ghughutibasuti ने कहा…

आभा जी , आप बहुत सुन्दर लिखती हैं । आशा है लिखती रहेंगी ।
घुघूती बासूती

अभय तिवारी ने कहा…

बहुत अच्छे आभा.. कुछ बताती है आप की कविता..और कुछ सोचने के लिए छोड़ देती है..