रविवार, 14 अक्तूबर 2007

जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान

संतोष से सुख
गीता में वे आदर्श जीवन मूल्य हैं जिन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए। पर वास्तविक समस्या तो मन की है। किसी चीज को देख कर मन में उसे पाने की एक स्वाभाविक इच्छा जाग जाती है। इससे लोभ उत्पन्न होता है। फिर मन संयमित नहीं है तो वह ईर्ष्या द्वेष में जकडता चला जाता है। उसी लोभ की चिंता में डूबने-उतराने लगता है। केवल धन मिल जाने से कोई सुखी नहीं हो सकता । क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं है। एक को पाकर दूसरी को पा लेने की इच्छा यह मनुष्य का स्वभाव है।
इसी लिए संतोष की महिमा गाई गई है। संत कबीर कहते हैं-

जिनके कछु ना चाहिए सोई सहंसाह

कबीर की निगाह में राजा वही है जिसे कोई कामना न हो। इच्छा के मिट जाने से मनुष्य सभी प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो कर बेपरवाह हो जाता है। और चिंचित राजा हर हाल में राज्य विनाश ही करेगा। अपना घर भरने के लोभ में वह राज्य को निजी सम्पति बनाने के हर संभव उपाय करेगा।

राजा ही नहीं किसी को भी संतोष धन पाने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि संतोष ही असल धन है। क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया।

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

updesh nahi sadupdesh kahiye, so bahut achchha.

Mohinder56 ने कहा…

आभा जी,

यह उपदेश नहीं है.. जीवन का सत्य है... मनोकामनायें कभी पूर्ण नहीं होती.. एक के बाद एक खडी होती रह्ती हैं... सन्तोष ही मन को शान्ति प्रदान कर सकता है... धन और सुखसुविधायें नहीं

काकेश ने कहा…

उपदेश ग्रहण कर लिया.

अभय तिवारी ने कहा…

काकेश के बगल में बैठा पाया जाय मुझे..

Udan Tashtari ने कहा…

काकेश और अभय भाई के पीछे दो सीट छेक कर बैठा दिख रहा हूँ. वो मैं ही हूँ. :) जय हो!!!

अफ़लातून ने कहा…

क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया। 'आप क्या करूँ' से निकलिए और धड़ल्ले से उपदेश दीजिए।

Atul Chauhan ने कहा…

इस रचना को लिखने के बाद जरूर आपका जी हल्का हो गया होगा। सन्तोष मिलना बडा ही मुशकिल काम है। चलिये मान लेते हैं कि आपको संतोष मिल गया है!