शनिवार, 1 दिसंबर 2007

यहाँ निराला


हिंदी के सूर्य निराला को तो आप सब ने पढ़ा ही होगा। उनकी बहुत सी छवियाँ भी देखीं होंगी। निराला जी की एक छवि यह भी देखें। यह चित्र उन्होंने स्वयं सरस्वती संपादक को दी थी। निराला का जन्म 1896 की बसंत पंचमी पर बंगाल के महिसादल में हुआ था। उनकी मृत्यु 15 अक्टूबर 1961 को सुबह 9 बज कर 23 मिनट पर इलाहाबाद के दारागंज में हुई । यह छवि उनके युवा अवस्था यानी 1939 की है। तब वे 43-44 साल के थे। यह चित्र सरस्वती पत्रिका के 1961 के दीपावली अंक से साभार है। उनको समर्पित मेरी यह कविता भी पढ़ें।


यहाँ

यहाँ नदी किनारे मेरा घर है
घर की परछाई बनती है नदी में ।

रोज जाती हूँ सुबह शाम नहाने गंगा में
गंगा से माँगती हूँ मनौती
एक बार देख पाऊँ तुम्हें फिर
एक बार छू पाऊँ तुम्हें फिर ।

एक बार पूछ पाऊँ तुमसे
कि कभी मेरी सुधि आती है

गंगा कब सुनेंगी मेरी बातें
कब पूरी होगी मेरी कामना
ऐसी कुछ कठिन माँग तो नहीं है यह सब

यदि कठिन है तो माँगती हूँ कुछ आसान
कि किसी जनम हम तुम
एक ही खेत में दूब बन कर उगें
तुम्हारी भी कोई इच्छा हो अधूरी
तो मैं गंगा से माँग लूँ
मनौती,
गंगा मेरी सुनती हैं।

15 सितंबर 2004

11 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

जरूर सुनेंगी गंगा आपकी । लिखने में अन्तराल घटेगा, उम्मीद है ।

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

निराला जी के प्रति आपकी श्रद्धा देखकर यह आप ही स्पष्ट हो गया कि आप कविता की अच्छी पाठक हैं. कविता पढ़ने के बाद मेरी यही शुभकामना है कि आपका संग्रह शीघ्र प्रकाशित हो!

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुनें ज़रुर गंगा आपकी!!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सच में दारागंज से जब मेरी ट्रेन गुजरती है तो आंखें और कुछ नहीं - निराला को तलाशती हैं।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

बढि़या जी,

काकेश ने कहा…

फिर से आपने निराला की अद्भुत रच्नाओं की याद दिला दी.

अभय तिवारी ने कहा…

सुन्दर फ़ोटो.. सुन्दर कविता..

Manish Kumar ने कहा…

बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व था निराला जी का ! ये चित्र यहाँ बाँटने का शुक्रिया !

Divine India ने कहा…

जितना सुंदर निराला जी का व्यक्तित्व था उतनी ही भाव समर्पित आपकी रचना… काफी सुंदर लिखा है…।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

परम आदरनीय निराला जी को सादर नमन --

मेरे पिताजी के शब्द -सुमन भेज रही हूँ -
" दिवँगत निराला के प्रति "
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हे कविर्मनिषी यश काय , निशब्द शब्दपति नमस्कार !
तुम चिर निन्द्रा मे लीन हुअ या जगा गये फिर एक बार ?
हर शब्द तुम्हारा तप का फल
वरदान वाक्य बन जाता थ
अनिबध्धा सुबध्ध तरँगित स्वर
छँदस बन कर मँडरता था !
आकार कल्पना को देकर हो गए शिल्पि तुम निराकार !
अन्तिम पँक्ति
हिँदी की शिरा धम्नीयोँमे जगा गये तुम फिर नया ज्वार !

स्व: पँ.नरेन्द्र शर्मा

Sent By : Lavanya

Sanjay Saroj "Raj" ने कहा…

Jitni Unki kavitaon me sachhai hai thik usi tarah se unki is tasvir me saf-saf jhalakta hai