यह पाठ मुझे मेरी दादी ने पढ़ाया था। वे अक्सर ड. तक पढ़ाने के बाद रोने लगती थी....और मैं उनको रोता छोड़ कर बाहर निकल जाती खेलने । दादी तो आज नहीं हैं लेकिन उनकी पढ़ाई आज भी मेरे पास है । आप भी पढ़ें उनका यह पाठ।
माइ री माइ कितबिया दे स्कूल में जायेके
माइ री माई खाना पकायेदे स्कूल में खायेके।
हम स्कूल गए और पढ़े.................
क कबूतर पकड़ के लाया
ख खटिया पर बैठा है
ग गधे को कभी न छेड़ो
घ घड़ी को देखता है
ड. बेचारा पड़ा अकेला
आओ बच्चो खेलें खेला।।
बचपन तो हमारा ऐसे ही गया ....अभी भी यही पाठ चल रहा है। सिर्फ ड. और दादी ही नहीं हम सब अकेले छूटते है ........।
22 टिप्पणियां:
बहुत भावपूर्ण कविता है..सच, कितने अकेले छूट जाते हैं हम सभी.
ड. कठिन है। दादी जाने क्यों रोती थीं। पर इन पांचवे अक्षरों की महिमा और अर्थ से तो हम आज भी जूझ रहे हैं।
मार्मिक
बिल्कुल सही लिखा है आपने..हम सभी अकेले ही छूटते हैं.अकेले छूटने का दर्द बहुत बड़ा है.
ङ की सीख और दादी की याद... बचपन की बातें होती ही ऐसी हैं... कभी नहीं भूलती.
बहुत सही बात कही आभा आपने.सच हम सभी अकेले छूटते जा रहे हैं,सब अपने अपने टापुओं पर.
बहुत ही भारी सच
अति मार्मिक.
मानव मन का सटीक चित्रण.
हर दिल की बात है ये.
हम सभी अपने अपने दायरे में अकेले..लेकिन जब कभी आसपास के दायरे एक दूसरे से मिलते हैं तो सुन्दर चक्र फूल सा बन जाता है बस यही जीना आसान कर देता है...
ड से बात शुरु की ओर कहा तक पहुची,बहुत ही भाव पुर्ण कविता हे आप की, धन्यवाद
meri daadi yaad aa gayin mujhey..bahut beemar hai in dino..
बहुत ही सुन्दर जीवन दर्शन दिया है। अकेला रहना सचमुच ही कठिन है। इतनी सरलता से भाव व्यक्त करने के लिए बधाई स्वीकारें।
दादी का अकेलापन समझना आसान नही है , ड.के खालीपन और अकेलेपन से दादी ने अपने जीवन के अकेलेपन और खालीपन को जोड़ा होगा और रुलाई फूट पड़ी होगी ।
बहुत सम्वेदनशील !
बहुत सुंदर दादी की सीख यह अकेलापन बहुत मार्मिक ढंग से उभर कर आया है जो सच है ..
सुजाता जी सच तो यह है कि दादी ने व्यक्तिगत अकेला पन कभी देखा ही नहीं -दादा-दादी का आपस का स्नेह मिसाल है और हम सब तो उनके थे ही बाबा के न रहने पर फिर घर ही नहीं हर परिचित मेरी दादी को धरती और गंगा की उपमा दिया करते थे और किसी भी घर के ब़ड़े से बड़े झगड़ो के प्रेम मे बदल देती थी चाहे सास बहू या कोई भी... हा यह जरूर रहा की दूसरों के दुख को अपने की तरह महसूस करती और सीख देती कि खुद के लिए कीड़े मकोड़े कुत्ते बिल्ली काफी है पर मनुष्य जीवन वही है जो दूसरो के दुख को भी समझे और सहयोग करें.. घर सहित बाहरी लोगों के लिए भी मिसाल थी..
ड. पड़ा अकेला। दादी/अइया के ऐसे अकेलेपन को बहुत-बहुत देखा है। दो-दो बेटों, एक बेटी और आठ नाती-नतिनियों के बावजूद घर में अइया अकेले रह जाती थीं। हम बच्चे उनसे बिछुड़ने पर रोते थे पल भर को, लेकिन अइया की सारी ज़िंदगी अपनों के बिछोह में रोते-रोत कट गई।
बहुत मार्मिक लिखा है आपने। प्रेमचंद की काकी कहानी भी याद आ गई।
अकेला पन वाकई में बड़ा निरस होता है लेकिन ये ड क्या डमरू वाला ड है, अगर हाँ तो वो कहाँ अकेला है - शोर मचाता डमरू आया
गीता के उपदेश इसीलिए प्रासंगिक हैं। इन्सान अकेला खाली हाथ आया है और अकेले ही जाना है।
...बीच में कुछ लोगों से मिल-मिला लें तो जिन्दगी सुकून से कट जाय।
ऐसे ही ज़िँदगी के राज़ दादीयाँ और नानीयोँ के सीने मेँ पलते हैँ और याद बनकर हमारे आँसूओँ मेँ ढलते हैँ ..सुँदर, भावभरी कविता है आभा जी
bahut achchi laga dadi ka yah paath
तरुन जी यह कभी गंगा में लगनेवाला ड. है डमरू का ड नहीं ....कोई दुविधा हुई हो तो माफ करें
अंगअ उच्चारण होता है कवर्ग के आखिरी अंग का . दादी का रोना शायद इसलिए होता था कि आखिरी शब्द जिदगी के आखिरी लम्हों में न चाहते हुए उच्चारित होने वाला व्यंजन है. दादी का प्रिय पात्र इस शब्द को उच्चारते आखिरी दम तोडे होंगे . {एक अनुमान }
बांकी बहुत खूब !
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