साये में धूप पलट रही थी । पता नहीं क्यों मेरा ध्यान इस गजल पर अटक गया। यह गजल आगे बढ़ने और लड़ने बदलने के लिए जागरूक करती है। यह गजल कहती है कि तमाम डर भय कुंठाओं से मुक्ति पाकर आगे बढ़ने को कहती है...इसी लिए मुझे यह प्रासंगिक लग रही है...2008 पुराना पड़ गया है....उसके आखिरी दिन चल रहे हैं...मेरा कहना है कि इस साल में मिले सारे डर भय कुंठा को मिटा कर साल 2009 का स्वागत करें.....इसके लिए दुष्यन्त कुमार त्यागी की एक गजल पेश है.....आप सब जानते ही होंगे कि दुष्यंत जी भी इलाहाबादी थे....हालाकि उनका जन्म बिजनौर उत्तर प्रदेश में हुआ था .और उनकी कर्म भूमि भोपाल थी .....लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद से की थी....इस लिहाज से वे इलाहाबादी होते हैं...वहाँ प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर और मार्कडेय उनके सहपाठी थे.....और डॉ. राम कुमार वर्मा जैसे बड़े साहित्यिक उनके गुरु थे....पढ़ें आज दुष्यंत जी की यह गजल
फेंक दो तुम भी
पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी ।
लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी ।
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी ।
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी ।
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ शब्द कुछ स्वर फेंक दो तुम भी ।
किसी संवेदना के काम आएँगें
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी ।
18 टिप्पणियां:
क्या आभा दीदी.. बहुत दिनों बाद दिखी हैं? कोई बात नहीं, अच्छी चीजों के साथ आयी हैं.. :)
राम-राम.. मैं कुछ नहीं फेंकनेवाला.. मालूम नहीं डर ही बाद को काम आये..
ठीक है ....इस साल में मिले सारे डर भय कुंठा को मिटा कर साल 2009 का स्वागत करते हैं।
भय तो निश्चय ही आसुरी सम्पद है। विनोबा जिस दैवीय सेना की बात कहते हैं उसका प्रथम सेनानायक है - अभय।
पुराने डर फैंक दो --- और नये भी न पालो भगवान के लिये!
achcha shabd sanyojan
achchi rachna
डर पर एक ग़ज़ल अपनी
दोबारा से कहता हूँ:-
या तो मैं सच कहता हूँ
या फिर चुप ही रहता हूँ
**डरते लोगों से डर कर
सहमा-सहमा रहता हूँ**
बहुत नहीं तैरा, लेकिन
खुश हूँ, कम ही बहता हूँ
बाहर दीवारें चुन कर
भीतर-भीतर ढहता हूँ
कुछ अनकही भी कह जाऊँ
इसीलिए सब सहता हूँ
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी ।
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी ।
दुष्यंत जी की ग़ज़ल की तारीफ के लिए शब्द ही नहीं बने हैं...बेहतरीन...लाजवाब...इसीलिए वो आज भी उतने ही मकबूल हैं...जितने कल थे...और कल भी रहेंगे...शुक्रिया आपका उनकी ग़ज़ल पढ़वाने का...
नीरज
आभा जी
एक अच्छी कविता के साथ
आप लौटीँ हैँ
लिखती रहीये
स स्नेह,
- लावण्या
भाव, िवचार, संवेदना और िशल्प के समन्वय ने रचना को प्रभावशाली बना िदया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
आपके ब्लॉग पर बड़ी खूबसूरती से विचार व्यक्त किये गए हैं, पढ़कर आनंद का अनुभव हुआ. कभी मेरे शब्द-सृजन (www.kkyadav.blogspot.com)पर भी झाँकें !!
बहुत ही सुंदर बात कही आप ने अपने लेख मै ओर कविता मै आओ हम डर को फ़ेकं कर नयए साल की शुरुआत निडर हो कर करे ओर इस नये साल को जी भर कर जीये.
धन्यवाद
"kisi samvedna ke kaam aaeinge,
yahaaN toote hue pr phenk do tum bhi..."
ek ghazal.numa khoobsurat si nazm
aur kuchh kuchh manovaigyanik drishtikon bhi...
mubaarakbaad...!!
---MUFLIS---
itni achi abhivyakhti . duhsant ji ki rahcnaayen hai hi kamaal ki
badhai .
vijay
pls visit my blog : http://poemsofvijay.blogspot.com/
नव वर्ष आप और आपके परिवार के लिये मंगलमय हो
बढ़िया। सहज पोस्ट। ऐसे ही लिखती रहा करें नियमित। अच्छा लगता है। नया साल मुबारक!
किसकी ग़ज़ल पर टिप्पणी देनी है ? क्या कहा ' दुष्यंत कुमार ' की , वही जिन्होने हिन्दी में ग़ज़ल की विधा को जीवंत कर दिया , ना बाबा ना सूरज चिराग नही दिखाते !
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
आप सब की आभारी हूँ
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