बहुत दिनों बाद कोई कविता छाप रही हूँ। कुछ मित्रों को सुनाया तो इस पर मिली-जुली प्रतिक्रिया आई। फिलहाल इसे कुछ और कविताओं के साथ जयपुर के एक अखबार डेली न्यूज में छपने के लिए भेज दिया है। उसके पहले यहाँ पढ़ें।
सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई
मैं बाँझ नही हूँ
नहीं हूँ कुलटा
कबीर की कुलबोरनी नहीं हूँ ।
न केशव की कमला हूँ
न ब्रहमा की ब्रह्माणी
न मंदिर की मूरत हूँ।
नहीं हूँ कमीनी, बदचलन छिनाल और रंडी
न पगली हूँ, न बावरी
न घर की छिपकली मरी हुई
फिर भी
मैं सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई।
नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है ....कौन है ......कौन है.....
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है मौन है मौन है।
9 टिप्पणियां:
बहुत गहरी अभिव्यक्ति!
सुंदर कविता है।
"सुनती हूँ यह सब डरी हुई" - अपने में गहरे अर्थ समेटे भावपूर्ण रचना आभा जी।
सुंदर अभिव्यक्ति !!
शायद सदियों के अनुभव का डर है यह। अच्छा लगा इसे पढ़ना!
बेहद संवेदनापूर्ण प्रवाह लिए कविता बन पडी है ...आगे भे लिखियेगा
- लावण्या
gud, bht aachhee.
aabhaa me manisha, i think u sud write 4 me 2. mai rastriya sahara hindi daily ce hu,or mahilaon ka supliment nikaltee hu. u cn contact me manisha0011@yahoo.co.in ya 0120-2598411 in office hours.
hope u lik it.
tk care
डरी हुई है, इस लिये सुनती है।
डर तो गहरे गड़ी फांस है। बहुत यत्न से निकलती है। कभी निकालने की जद्दोजहद में और धंस जाती है!
अच्छी कविता
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