मै स्त्रीवादी हूँ, सदियों से लानत मलामत झेलती स्त्री के किसी गलत निर्णय पर कई बार मेरा रिएक्शन भी अजीब बेतुकाना हो जाता हैं, साथ ही उस गलत स्त्री को कुल्टा, कंलंकिनी, कुलबोरनी कहने के बजाय मैं भावावेश मे कह बैठती हूँ कि ठीक किया फलाँ ने..जरूरत से ज्यादा दबाब का कहीं-कहीं यहीं नतीजा निकलता है.. जब कि सही क्या है गलत क्या है, यह तो मन समझ ही रहा होता है ठीक ठीक। मैं यहाँ किसी स्त्री का नाम नहीं लेना चाहती, क्यों कि जैसे मुझे मेरी इज्जत प्यारी है, वैसे ही हर स्त्री की ....
हाँ यह जरूर है कि आज के परिवेश में स्त्री को इमेजकाशश नहीं होना चाहिए वर्ना स्त्री मर्यादा का बोझ ढ़ोती हर रोज मरती है तो कहीं मनचली बालाएँ ऊचाईयाँ छूती जिन्दगी को आज के परिवेश में अपने हिसाब से जीती है। .
सारे विरोधों अन्तर्विरोधों के वावजूद मैं स्त्री के साथ हूँ चाहे गलबहियाँ देकर, चाहे हिकारत के साथ ..खैर जीवन है तो दुखड़ा सुखड़ा लगा ही रहता है, यहाँ मुद्दा तो कुछ और ही है।
कल भवन्स कालेज अंधेरी में पुष्पा भारती यानि धर्मवीर भारती जी की पत्नि पु्ष्पा भारती जी का 75वाँ ज्न्म दिन मनाया गया। किस्मत की धनी पुष्पा जी के हिस्से भारती जी का किया धरा आया वर्ना इतनी बड़ी माया नगरी में बहुत सी लेखिकाएँ हैं। कौन जन्म दिन मनाता है। बहुत सी कवयित्रियाँ उस समय की ऐसी भी होंगी जो पति की पेन्शन
पर गुजारा कर रही होंगी। उन्हें कौन जानता है। बेचारी। लेकिन पुष्पा जी के पास भारती जी की घर परिवार रायल्टी सब का सुख भोग रही हैं, सार्थक जीवन जी रही हैं, जो कि उनका स्वाभाविक अधिकार है।
कल वहाँ भारती जी के शुभचिंतकों का जमावड़ा था। मैं गई थी पुष्पा जी को बधाई देने। कुछ सार्थक सुनने और बीच में ही उठकर निकल आई। क्योंकि जो वहाँ सुनने को मिल रहा था वह न तो सार्थक था न सुनने लायक। बीच में बोलना पुष्पा जी के प्रति उचित न था। क्योंकि मौका जन्म दिन का था। दिल्ली से खास तौर पर आईं भारती जी की मुँह बोली बेटी सुनीता बुद्धिराजा ने कमाल कर दिया। उन्होंने भारती जी की महिमा बखानते-बखानते यह तक कह दिया कि “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए, लेकिन भारती जी को मरने के बाद भी जिंदा रखा है पुष्पा जी ने ।”
मुझे सुनिता बुद्धिराजा की बुद्धि पर तरस आता है कि कब और कैसे उन्होंने जान लिया कि “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए। मैंने अपने पति और बच्चों से कहा कि उठो मैं अब नहीं सुन सकती। और मैं “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब का स्यापा छोड़ कर घर आ गई।
इस बात से कौन इन्कार करेगा कि धर्मवीर भारती हिंदी के बड़े लेखक हैं। अंधायुग, कनुप्रिया, सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता जैसी किताबें उनकी हिंदी की देन है। मैं खुद उनकी पाठिका और प्रशंसक रही हूँ। और यह भी सच है कि पुष्पा जी ने हर प्रकार से भारती जी को सहेजा समेटा है। उनके लिए चिंतित रहती है। किंतु पुष्पा जी के जन्मोत्सव पर अपने पुराने धरोहरों की शव क्रिया नहीं देख पाई।
मैं यह सोच रही थी कि कोई संचालक या वक्ता इस घोर अनर्थकारी टिप्पणी पर एतराज करेगा। लेकिन नहीं। किसी ने कुछ नहीं कहा। बस सब एक दूसरे की वाह-वाह करते। “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी का अपमान करते बैठे रहे।
मैं पुष्पा जी को उनके जन्म दिन की हार्दिक बधाई देते हुए आप सब से यह पूँछना चाहूँगी क्या “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए ? क्या ऐसी निर्बुद्दि बुद्धि राजाओं के इस प्रकार के कथनों का कोई प्रतिकार नहीं होना चाहिए।
32 टिप्पणियां:
kafi ochhi soch rahi hogi unki ya fir ve shrimati bharti ke sabse kareebi banane ki daud me hongi ya fir unhe hindi sahitya ka jara sa bhi gyan nahi hoga...
मैं धर्म वीर भर्ती की प्रशंसिका रही हूँ परन्तु उसके एवज में बाकि साहित्यकारों का,साहित्य की धरोहर का अपमान कदापि उचित नहीं.
वड्डे अफ़सोस दी गल्ल हैगी!
आभा बुद्धिजीवियों की बाते बुद्धिजीवी ही जाने हम तो बस एक ब्लॉगर हैं !!!! मान अपमान से ऊपर हैं महादेवी , प्रेमचंद और बहुत से अन्य साहित्यकार । उनके विषय मे अनाप शांप बकने से उनका "अपमान " नहीं होता हैं हां जो बकते हैं उनकी ऊपर के माले कि हालत इतनी खस्ता हैं कि मरम्मत भी नहीं हो सकती ।
..वैसे आपको क्या लगता है प्रतिकार पर ध्यान देने की फुर्सत है किसी के पास ?
चाटुकारिता के युग में किसे ध्यान है कि किसके किस किस कहे का क्या - क्या निहितार्थ है? जिन्हें अपने माता पिता की विरासत ढोनी नहीं आती उनसे साहित्य की विरासत के लिए क्या अपेक्षा भला?
ये तो चाटुकारिता ही नहीं ना समझी की भी हद है...पुष्पा जी ने ये सब सुन कर अपना गुस्सा व्यक्त क्यूँ नहीं किया...इसका मतलब वो भी येही सुनना चाहतीं थीं...दुःख हुआ ये सब पढ़ कर..ऐसे मूर्धन्य साहित्यकारों के प्रति इतनी अशोभनीय टिपण्णी की गयी वो भी भरे समारोह में.....अच्छा हुआ जो आप उठ कर आ गयीं...मैं होता तो मैं भी येही करता...इस तरह कटु अनुभवों ने मुझे भी मुंबई में होने वाले इस प्रकार के आयोजनों से दूर ही रखा हुआ है...
नीरज
आभा जी हम सब जानते हैं कि लेखक कभी नहीं मरते। लेखक क्या है आखिर किसी व्यक्ति का लिखा हुआ रूप है जो शब्दों में होता है। और शब्द कभी नहीं मरते। मरता तो आखिर शरीर ही है। इसीलिए प्रेमचंद हों, महोदेवी हों,हरिऔध हों या फिर पंत जी किसी के नाम के आगे कभी स्वर्गीय लगा देखा है। कभी नहीं। सच तो यह है कि कोई भी रचनात्मक और सृजनात्मक व्यक्ति कभी नहीं मरता।
आपने एकदम सही किया। और उससे भी आगे सही कदम यह है कि अपने मन की बात अपना विरोध यहां ब्लाग पर सार्वजनिक किया।
लेकिन आभा जी माफ करें। जब आप खुद इस बात में विश्वास करती हैं कि लेखक कभी नहीं मरता तो फिर आप उनका स्यापा यानी मृत्युगीत क्यों गा रही हैं। यह आपको शोभा नहीं देता। अगर मेरी बात आपको उचित लगती है तो अपनी इस पोस्ट से निम्न पंक्तियां हटा दीजिए-'और मैं “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब का स्यापा करती हुई घर आ गई।'
अगर उन्हे ये बोलना पढ़ रहा है कि हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए, तो सच ये है कि ये सब कहीं न कहीं जीवित हैं, और कभी भी नहीं मरेंगे,ख़ासकर उसमें जिसने ये बोला, ये मात्र एक स्वार्थ-प्रेरित टिप्पणी है। बाकि सब में तो ये वैसे भी ज़िंदा हैं और रहेंगे।
राजेश जी मैंने स्यापा की बात जानबूझ कर कही है ,क्यों कि जिस जगह पर इन दिग्गजों को समाप्त बताया जा रहा हूँ वहाँ जश्न नहीं मनता स्यापा ही हो सकता है ,उस उत्सव में मै स्यापा नहीं कर सकती थी सो उठ पड़ीमै इस लाइन को इस परिस्थिति में नहीं हटा सकती . यह तो अंतिम सत्य है ही कि लेखक मरता नहीं और वो भी ऐसे .... आप ने अपनापे के नाते सुझाव दिया ठीक है ,पर आप की सुझाव माने तो सारी बात ही खारिज हो जाएगी।
राजेश जी मैंने स्यापा की बात जानबूझ कर कही है ,क्यों कि जिस जगह पर इन दिग्गजों को समाप्त बताया जा रहा हूँ वहाँ जश्न नहीं मनता स्यापा ही हो सकता है ,उस उत्सव में मै स्यापा नहीं कर सकती थी सो उठ पड़ीमै इस लाइन को इस परिस्थिति में नहीं हटा सकती . यह तो अंतिम सत्य है ही कि लेखक मरता नहीं और वो भी ऐसे .... आप ने अपनापे के नाते सुझाव दिया ठीक है ,पर आप की सुझाव माने तो सारी बात ही खारिज हो जाएगी।
दुखद.. शायद उन्हें मरने और अमर होने में अंतर नहीं पता.. लोग सिर्फ खुद या खुद से जुड़े लोगों को ही सबकुछ समझते हैं.. बाकी लोग बड़े होकर भी उनके लिए कुछ नहीं होते. पाता नहीं कैसे उनके नाम के साथ बुद्धिराजा लगा है..
अफसोसजनक :-(
आ. महादेवी जी ,
पन्त जी,
प्रसाद जी,
निराला जी ,
हरीऔध जी
यह तथा अन्य कई
हिन्दी भाषा के अप्रतिम नक्षत्र हैं
उनका योगदान कोइ ,
कम करे
यह असहनीय बात है -
- आप में साहस है ,
इस तरह ब्लॉग पर आपने ,
अपनी प्रतिक्रया जाहीर तो की ...
बाकी सब सुनते रह गये
स स्नेह,
- लावण्या
अच्छे बोल सुनने के लोभ में हम कई बार दूसरों पर की गयी टिप्पणी को भी सुन नहीं पाते। बस उसी क्षण हमारा बड़ा होना निरर्थक हो जाता है।
आभा जी आभार कि आपने मेरी बात पर विचार किया। आपकी बात से सहमत होते हुए भी मुझे लगता है कि इस हिस्से में संपादन की जरूरत है। मेरा सुझाव है कि इस तरह संशोधन करें- 'और मैं “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब का स्यापा करके घर आ गई।'
क्योंकि आपने सही कहा वहां स्यापा हो रहा था। स्यापा वहीं रह गया। आपके अभी के वाक्य में वह जारी रहता है।
बहरहाल पोस्ट तो आपकी है, आप जैसा उचित समझें। शुभकामनाएं।
आपकी सलाह मान ली है...उत्साही जी...
आभारी हूं आभा जी। मुझे लग रहा है आपका ब्लाग सचमुच अपना ही घर है। मैं तार्किक रूप से अपनी बात आपको समझाने में सफल रहा।
मैं कुछ इस तरह की खुशी महसूस कर रहा हूं कि जैसे यह पोस्ट मैंने ही लिखी है। शुभकामनाएं।
इससे तो यही प्रतीत होता है कि ऐसे लोगों को साहित्य की कोई जानकारी ही नही है बस बोलने से मतलब है ………………बाकी पुष्पा जी को तो अपना प्रतिरोध जताना चाहिये था।बेहद दुखद और शोचनीय स्थिति।
असल में चाटुकारिता के लिए अति उत्साह एक बेहद ज़रूरी चीज है. और चाटुकारिता करते समय ज्यादातर लोगों को सुध-बुध नहीं रहती. और फिर ऐसे वाक्य निकलते हैं.
किसी के दिमाग के दिवालिये पन का क्या कहें ?कितु आपने अपने विरोध जताकर ब्लाग केद्वारा सराहनीय काम किया है बाकि ये हमारे मूर्धन्य साहित्यकार सदाही अपनी अमर रचनाओ के साथ हमेशा अमर रहेगे \लावण्याजी से सहमत .
सबकी अपनी एक जगह होती है , apane अपने काल ke वे वो स्तम्भ हैं इनको हम हिंदी साहित्य में आज भी पध्राहे हैं और जब तक ये साहित्य रहेगा ये नाम अमर हैं . अपने बहुत अच्छा किया जो इस बात se सबको अवगत करा दिया . ये तो हमारी सोच कि बात है कि हम किसकी तुलना किस से कर रहे हैं?
ये तो चाटुकारिता की परकाष्ठा थी....धर्मवीर भारती भी जीवित होते तो ऐसे वचन का जरूर विरोध करते...यदि बाकी लोगों की हिम्मत नहीं हुई , विरोध की या उन्हें टोकने की (पर क्यूँ नहीं हुई...यह तो उन्हें ही ज्ञात होगा) ...कम से कम पुष्पा भारती जी को तो उन्हें प्यार भरी झिड़की देनी थी...क्या कान झूठी प्रशंसा के इतने आदी हो जाते हैं कि सच सुन नहीं पाते.
अन्य लोग भी उठ आते तो बेहतर होता और उन्हें अपनी मूर्ख टिप्पणी का आभास भी हो जाता।
घुघूती बासूती
आभा जी :
आज शायद पहली ही बार आप के ब्लौग पर आया हूँ , आप की कविताएं और अन्य लेख अच्छे लगे लेकिन इस लेख पर कुछ असहमति है ।
क्यों कि मैं उस कार्यक्रम में नहीं था जिस में आप गई थीं, इसलिये पूरे यकीन के साथ नहीं कह सकता लेकिन क्या यह सम्भव है कि सुनीता जी की बात को आप गलत सन्दर्भ में ले रही हों ? (यहां यह भी कह दूँ कि मैं सुनीता जी और आप दोनों को ही नहीं जानता)
मुझे सुनीता जी की बात में भारती जी को प्रेमचंद, महादेवी, हरिऔध, पंत से बड़ा दिखाने की बात नहीं लग रही , बात भारती जी के साहित्य के प्रसार में पुष्पा जी के योगदान की लगती है । क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि कारण कुछ भी रहे हों लेकिन यदि प्रेमचंद, महादेवी, हरिऔध, पंत जी की याद को बनाये रखने और उन की मृत्यु के बाद उन के साहित्य के प्रसार में यदि और प्रयास किये जाते तो वह साहित्य और अधिक लोगों तक पहुँचता । आप स्वयं स्वीकार कर रही हैं कि "यह भी सच है कि पुष्पा जी ने हर प्रकार से भारती जी को सहेजा समेटा है" । क्या ऐसा अन्य कवियों / लेखकों और उन के परिवार के बारे में कहा जा सकता है ?
प्रेमचंद, महादेवी, हरिऔध, पंत का लेखन महान है और वह स्वयं उन्हें जीवित रखेगा लेकिन यदि उसे ठीक वैसे ही सहेजा जाता जैसा पुष्पा जी ने भारती जी के साहित्य के साथ किया है तो क्या हिन्दी साहित्य का अधिक भला नहीं होता ?
माफ़ कीजिये लेकिन आप के इन शब्दों में कुछ हद तक पूर्वाग्रह और कुंठा झलक रही है ..
"किस्मत की धनी पुष्पा जी के हिस्से भारती जी का किया धरा आया"
"लेकिन पुष्पा जी के पास भारती जी की घर परिवार रायल्टी सब का सुख भोग रही हैं, सार्थक जीवन जी रही हैं"
यहां एक बात और ध्यान में आती है । बच्चन जी और कैफ़ी आज़मी बड़े कवि/शायर थे । अमिताभ और शबाना को उन के पिता के नाम से जाना गया लेकिन क्या यह सच नहीं है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होनें बच्चन जी और कैफ़ी आजमी साहब को अमिताभ और शबाना जी को जानने के बाद पढा । अमिताभ और शबाना दोनो ने अपने पिता की याद को बनाये रखने और उसे आगे बढाने के लिये जो काम किये हैं , उस से इंकार नहीं किया जा सकता
और इस से निराला ,पन्त , सरदार जाफ़री या फ़िराक गोरखपुरी की महत्ता कम नहीं हो जाती ।
खैर विवाद में पड़ने की इच्छा नही है , आप ने अपने मन की बात कही , मुझे ठीक नहीं लगी - मैनें अपने मन की कह दी ।
आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगी ..
आप की टिप्पणी के लिए खास तौर पर आभारी हूँ... आप ने अपनी बात रखी ...आप ने कुन्ठा समझा मै इसके लिए सफाई भी न दूंगी , आप ने अन्यथा लिया कोई बात नहीं मै नही ही लूंगी। मेरे ब्लांग पर आते रहें ..
आभा जी:
आप की सदाशयता के लिये आभारी हूँ । मुझे कुन्ठा शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये था क्यों कि इस के लिये मेरे पास कोई आधार नहीं है । लेख पढने के बाद मन खट्टा सा था । शायद इसीलिये ...
कोई बात नहीं अनूप मेरे भाई ,क्या हम आपस में इतना भी नहीं कह सकते...
ओह.. क्या आपके उठने पर किसी ने भी ध्यान दिया? मेरे ख्याल से नहीं दिया होगा.. भीड़ अक्सर निर्बुद्धि ही होती है..
सबसे सार्थक टिपण्णी pd की लगी और आभा के आलेख का पूरा सार भी इस में निहित है!
आपका उठ आना एकदम सहज प्रतिक्रिया है ऐसे में इससे कम हों भी क्या सकता था !.
aapne bilkul sahi kiya
aise logo ko chatukarita ke alawa kuchh nahi aata..
बिलकुल ठीक किया आपने
Bahut badhiya lekh. tippaniyan dhyan se padhi...Gyanvardhan hua.
vishay par agyanta ke chalte kuchh keh nahi paa rahi hun.
aabhar.
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