मंगलवार, 11 सितंबर 2007

हर आदमी के भीतर होते हैं दस-बीस आदमी

वह कौन था ?

हर आदमी में होता है दस-बीस आदमी इस बात को लेकर मैं सोचती रही हूँ। पता नहीं यह किस शायर का कहा है पर जहां तक मुझे याद है कि यह बशीर बद्र का लिखा है। अगर मैं गलत भी हूँ तो भी बात सटीक उतरती है लोगों के बारे में दुनिया जहान के बारे में और मेरे अपने बारे में भी । कभी ये विचार बहुत परेशान करता रहा तो कभी बहुत शुकून भी देता है ।

एक व्यक्ति में क्या सच में कई व्यक्ति होते हैं । कल शाम को यह मैं सोच ही रही थी कि मेरे बड़े भाई का दिल्ली से फोन आया। जैसे बातें होती हैं हुईं। हाल-चाल हुआ। पूछा कि मैं क्या कर रही हूँ। मैंने बताया घर में रह कर और क्या कर सकती हूँ । बच्चों के देख भाल के अलावा कुछ कविता- कविता कर रही हूँ । एक ब्लॉग खोला है। कभी-कभी उस पर कुछ लिखती हूँ। पर अभी गति नहीं है। रोज लिखना चाहती हूँ पर लिख नहीं पाती हूँ। बातें बहुत सारी कहना चाहती हूं कह नहीं पाती। भीतर बैठा एक दूसरा आदमी मुझे रोक लेता है। । यह लिख यह नहीं। भाई ने कहा कि यह सब दुनियादारी छोड़ कर घर -गृहस्थी देखो। इन बातों से कुछ बनने वाला नहीं। लोग लिख तो रहे हैं हजारों पन्ने हर दिन काले हो रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है दुनिया पर। आशीष और आदेश देकर भाई ने कहा कि दो अच्छे बच्चों की माँ हो उन्हे अच्छा इंसान बनाओ। उनका खयाल रखो। वे ही तुम्हारा लेख और लेखन होगें संसार में। वे ही तुम्हारी कविता कहानी हैं। यही समझ कर चलो।

कल शाम से अब तक उलझी हूँ। मैंने भाई से बात की या किसी और से। यह कौन था जो समझा गया। यह कौन था मेरा भाई या उसके भीतर का कोई और आदमी। जो बिना जरूरत के भी कुछ बता गया। कुछ समझा गया और मैं चुपचाप सुनती रही। यह मैं ही सुन रही थी या कोई और।

मैंने पलट कर भाई को फोन किया । मैंने कहा भाई लिखने में हर्ज क्या है। क्या लिखना गुनाह है। भाई ने कहा नहीं यह मैंने कब कहा। मैंने तो यह कहा था कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी पहली जिम्मेदारी हैं। और ब्लॉग पर लिखना खाली या खलिहर लोगों का खेल है।

इस बात के बाद मैं परेशान हूँ। मैं ब्लॉग लिखूँ या नहीं। मेरे बीतर बैठी एक माँ सवालों के घेरे में है। और मुझे लगने लगा है कि मैं बच्चों का खयाल कम रख रही हूँ। जबकि ऐसा एकदम नहीं है। मैं पिछले ११-१२ सालों से सिर्फ बच्चों की नींद सो और जाग रही हूँ। मैं जानती हूँ कि ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कर रही हूँ। हर माँ की यही दिनचर्या होती होगी। बच्चों की नींद सोना और जागना।

हालाकि मैंने सचमुच पाया है कि हर आदमी के भीतर एक ही समय में कई आदमी डेरा डाले रहता है।

8 टिप्‍पणियां:

अभय तिवारी ने कहा…

मेरी माँ कहती थी कि जब खाना खाओ तो सोचो कि भगवान का भोग लगा रहे हो.. अच्छे से मन लगा कर उसे पोषित करो.. अपने प्रति.. अपने शरीर के प्रति अपनी ज़िम्मेवारी का वहन करो..
बच्चे तो आप की ज़िम्मेवारी हैं ही.. पर अपने प्रति अपनी ज़िम्मेवारी को भूलियेगा मत..

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बतौर एक मां आपकी ज़िम्मेदारी के बारे में आपके भाई साहब का कथन सत्य है और अपने विचारों को लेकर आपका अपना!!

जब हम अपना आत्मविश्लेषण करते हैं तो बशीर बद्र साहब का यह शेर सत्य ही प्रतीत होता है। हम अपने साथ कई चेहरे लेकर चला करते हैं दिन भर, जब जहां जिस चेहरे की ज़रुरत पड़े फ़टाक से वही लगा लेते हैं। कभी-कभी तो इंसान इन मौकों वाले चेहरे लगाते रहने के कारण अपना असली चेहरा ही भूलने लगता है, बस इसी बात का ख्याल रखें अपना असली चेहरा न भूलने पाएं।

Pratyaksha ने कहा…

बच्चों के प्रति जिम्मेदारी निभाने का ये मतलब कहाँ कि खुद के प्रति जिम्मेदारी छोड दें । बच्चे बडे होते हैं , बढते हैं , अपना स्पेस खुद बनाते हैं और इसी क्रम में हम भी बिना अपराधबोध के अपना खुद का स्पेस बनाये इसमें कोई डाईकोटोमी जैसी बात क्यों हो । मल्टी टास्किंग में हम औरतें वैसे भी माहिर होती ही हैं ।

Udan Tashtari ने कहा…

आवश्यकता तो मात्र विभिन्न गतिविधियों में सामनजस्य बैठाने की है और अपने अनेकों रुपों को पूरा पूरा जीने की-

आप मात्र माँ तो नहीं-आप पत्नी भी, नारी भी है, नागरिक भी है और इंसान भी. सभी पात्रों को तो निभाना है. किसी के साथ भी तो नाइंसाफी करना धर्म नहीं.

बस समय की मांग और उसके बटवारे पर ध्यान दें. बाकी सब ठीक है.

आभा ने कहा…

मेरी कोशिश है कि मैं अपनी हर जिम्म्देरी निबी सकूँ। आप लोगों के बहुमूल्य सुझाव मेरे बहुत काम के हैं।

ePandit ने कहा…

प्रत्यक्षा जी ने एकदम सही शब्द दिया है - मल्टीटास्किंग

पहले जरुरी काम निबटाइए और खाली समय में चिट्ठा लिखिए।

Atul Chauhan ने कहा…

इंसान ने आज एक चेहरे पर दर्जनों भर मुखौटे लगा रखे हैं। क्योकिं समाज ने ऐसी व्यवस्थाएं बना रखीं हैं कि वह चाहकर भी अपने चेहरे पर लगा मुखौटा न तो खुद उतारता है, और न ही किसी और को उतारने देता है। "ब्लॉग" लिखना मुखौटा उतारकर फेंकना है। लेकिन इतना ध्यान रहे……परिवार के साथ सामंजस्य बैठाते हुए… "रूक जाना नहीं ,तू कहीं हार के……" और "जिन्दगी हर कदम एक नयी जंग है।" क्योंकि विचारों की जंग ने ही आज महिलाओं को आजादी दिलाई है।

Quaintzy Patchez ने कहा…

हालांकि मैं यह टिप्पणी आपके यह "पोस्ट" लिखने के कई दिनों बाद लिख रही हूँ, पर कभी मैं भी सोचती थी "यह लिखूं, यह नहीं" "किसी को क्या लगेगा..." वगैरह, पर ब्लॉग होते ही हैं अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए..

जहाँ तक आपकी पारिवारिक जिम्मेदारियों की बात है तो आपको जब समय मिले आप लिखें :)

और मैं हमेशा ही मानती रही हूँ की हर इंसान के कई चेहरे होते हैं, इन्ही चेहरों के माध्यम से हम अपने आप को व्यक्त करते हैं.. यह झूठ का मुखौटा नहीं वरन, मानस की ही एक अभिव्यक्ति है :)

ब्लॉग पढ़ कर अच्छा लगा, लिखती रहें :) धन्यवाद!!