गुरुवार, 13 सितंबर 2007

हिंदी दिवस पर देशगान

हिंदी दिवस के मौके पर अपने एक प्रिय कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता छाप रही हूँ। यह महज संयोग नहीं कि कल यानी 15 सितंबर को उनका जन्म दिन भी है। कल मैं उनके परिचय के साथ उनकी कुछ और कविताएँ छापूँगी।

देशगान

क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

पेड़ हो या आदमी
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।


नोट- राजकमल, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ संग्रह से।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

आप तो सक्सेना जी गजब की कविता पढ़वा दी, बहुत आभार. अब तो उनकी किताब पा लेने को आतुर हैं. कल इन्तजार है और कविताओं का.