हर बार एक नई परत खुल रही है । हर परत के नीचे दबता आम हिन्दुस्तानी दमघोटू माहौल में जी रहा है। राजनेताओं ने अपनी रोटिय़ाँ सेंकी,इतनी सेंकी की आम जनता इनकी रोटियों के नीचे दबती गई । मूढ जनता भी समझ रही है साफ साफ । जिसे भुगत रही आम जनता, हमारे जवान ,हमारे अधिकारी।
इस वोट की राजनीति ने वैमनस्यता की इतनी दीवारे खड़ी कर दी हैं जिन्हें मिटाना
नामुमकिन सा दिख रहा है , इन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाया इन आतंकी संगठनों ने । इस छलावे की राजनीति में आतंकी अजमल के हाथ पर बधी रोली भी नित नई उलझन नित नई गुत्थी जो हमेशा की तरह उलझी की उलझी रहेगी । हर दिन हम सभी अपने अपने घरों में न्यूज पेपर और खबरी चैनल देखते हैं इस उत्साह के साथ की कुछ तो सही सही सबूत सामने आएगा पर वही ढाक के तीन पात ।
भावुकता इन्सानियत का गला घोटती है और धसाती जाती है दलदल में । भारतीय जनता सचमुच दलदल में फस गई है ,इससे कैसे ऊबरा जाए सोचना होगा । या फिर वही बयान और जूलूस के बाद फिर किसी भी दिन सौ दो सौ का अकाल काल के गाल में चले जाना जारी रहेगा ।
छब्बीस ग्यारह के सदमे से हर भारतीय सदमें का गुबार लिए जी रहा है पर क्या लगभग सवा अरब जनता का साथ देगें ये मुट्ठी भर नेता ? देखिए देखिए नेता जी को आप बरबस कहेगे भुख्खड़ नेता कैसा हो नारायण राणे जैसा हो । कैसे बच्चे हैं ये नेता जिन्हें कुर्सी चाकलेट की तरह अच्छी लगती है नहीं मिली तो लोट पोट शुरू ।
इस राजनीति और आतंकवाद पर कहने को बहुत बहुत कुछ हर जनमानस के मन में है ।फिलहाल बचपन की पढ़ी एक एक कविता जनता, नेता और मातम पसारने वाले चेहरों के लिए।
जनता के लिए
वीर तुम बढ़े चलों
धीर तुम बढे चलो,
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो।
तुम निडर हटो नहीं
तुम निडर डटो वहीं,
प्रात हो की रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो ,
वीर.......
नेताओं को समर्पित
उठो लाल अब आखें खोलो
पानी लाई हूँ मुहँ धोलो,।
बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भौरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर।
नभ में न्यारी लाली छाई ,
धरती ने प्यारी छवि पाई ।
भोर हुआ सूरज उग आया ,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुन्दर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
आतंक के सौदागरों से
तु्म्हें भी किसी माँ ने जनम दिया है
वह तुम जैसों को
जन्म देने से पहले मर क्यों न गई
कम से कम अपनी जननी की खातिर बन्द करो खूनी खेल।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
यही तो है जिन्दगी का रास्ता
तुम्हें अमन का शान्ति का वास्ता
यही तो लिखा गीता और कुरान में
यही तो वाणी नानक और कबीर की
इसी लिए तो गाँधी जी नें जान दी
की समझे दुनिया बात उस फकीर की
खुद जिओ...
शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
कितनी पुरानी साध है यह
कितनी पुरानी साध है यह
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल .....
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....
दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...
मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..
तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
७ जुलाई 2008
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल .....
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....
दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...
मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..
तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
७ जुलाई 2008
सोमवार, 28 जुलाई 2008
दादी की सीख
यह पाठ मुझे मेरी दादी ने पढ़ाया था। वे अक्सर ड. तक पढ़ाने के बाद रोने लगती थी....और मैं उनको रोता छोड़ कर बाहर निकल जाती खेलने । दादी तो आज नहीं हैं लेकिन उनकी पढ़ाई आज भी मेरे पास है । आप भी पढ़ें उनका यह पाठ।
माइ री माइ कितबिया दे स्कूल में जायेके
माइ री माई खाना पकायेदे स्कूल में खायेके।
हम स्कूल गए और पढ़े.................
क कबूतर पकड़ के लाया
ख खटिया पर बैठा है
ग गधे को कभी न छेड़ो
घ घड़ी को देखता है
ड. बेचारा पड़ा अकेला
आओ बच्चो खेलें खेला।।
बचपन तो हमारा ऐसे ही गया ....अभी भी यही पाठ चल रहा है। सिर्फ ड. और दादी ही नहीं हम सब अकेले छूटते है ........।
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
नेताओं की नंगई देखेगी जनता जल्द
नेताओं की नंगई देखेगी जनता जल्द .....
कुछ ही महीनों मे देश में आम चुनाव होगें, हमेशा की तरह जनता-नेता की कुर्सी पोछ- पाछ कर बैठाती आई है वैसे ही सही गलत का फैसला होने पर उतारती भी है। जहाँ तक
सीपीएम का सवाल है उसने अपना चेहरा ठीक से दिखा दिया । सोमनाथ जी को
पार्टी से निष्कासित करने के उनके फैसले के बाद अब उनकी यानि लेफ्ट की बात करना कोई मायने नहीं रखता
हाँ.. जिन्हें करना हो करें ।
बीजेपी जनता को गुमरगह करने की कोशिश में माहिर है इसका सबूत हमारे पास 92 का 6 दिसम्बर है...जिसे हम या कोई जिसने सिर्फ समाचार में देखा-सुना पर जिन घरों , जिन लोगों को उस खूनी खेल ने भुगता उनके घर वाले ही बीजेपी की राजनीति को समझ सकते हैं ठीक से.... यह अलग बात है कि किसी के लिए देश भक्त हो सकती है यह पार्टी....
यह देश भक्ति फिर दिखी जब नोटों की गड्डियाँ वे संसद मे लहरा रहे थे, और हम शर्मिंदा हो रहे थे अपने -अपने घरों में, साथ ही अपने को समझा रहे थे कि यदि खरीद फरोख्त जैसा कुछ हुआ भी था तो इन्हें स्पीकर सर को खबर करनी थी और साथ ही यह भी समझ आ रहा था कि यह इनकी 6 दिसम्बर की चाल तो नहीं, खैर जो कुछ हुआ ठीक नहीं रहा पर हम जनता हैं हम सही – सही और गलत - गलत साफ जानना चाहते हैं ।
वैसे ही जैसे आरूषी हत्या काण्ड का सबूत साबित हुआ, यह अलग बात है कि आरूषी की हत्या जिसे मेरी साढ़े तीन साल की बेटी भानी अरूषी दीदी कहने लगी .... लोगों के मन में अब भी सवाल लिए खड़ी है, दूसरी ओर देश की सबसे बड़ी जाँच व्यवस्था पर सवाल उठाता गलत है ऐसा मन कहता है । भरोसे पर दुनिया कायम है तो हमें इस बड़ी और सच के आखिरी सबूत वाली जाँच व्यवस्था को मानना ही होगा, हमने मान लिया और शान्ति भी मिली है - मन को, क्यों न मिले भी आखिर एक पिता की मर्यादा कलंकित होते होते बची है....
यह अलग बात है कि अरूषी की मौत ने भरोसे को झकझोर दिया है ....
अब वैसे ही हम जानना चाहते है इस खरीदी सांसद को, क्या सही है क्या गलत समझाना होगा हम जनता को, आगे सब जनता तय करेगी हमेशा की तरह.......
भरोसा
भरोसा किसी चिड़िया का नाम
होता तो अच्छा था......
फिर हम बच्चों से
,या
...,
हम कहते, वो देखो वो
कितनी कितनी ऊपर
ऊड़ती भरोसा चिड़िया,
फिर बच्चे खुश होते ,
देख देख हम खुश होते इन
बच्चो को ...देख देख,
हम कहते
बच्चो से, देखो यह भरोसा चिड़िया
कैसे दाना चुगते चुगते फुर्र हो जाती है।
या नाम होता किसी इन्सान का ,
हम पूछते नाम और कोई कहता मेरा नाम भरोसा....,
हा सुना भी है नाम- जैसे राम भरोसे
हो सकता है, पूर्वजों ने रखा हो नाम, कि राम ही
करेगें उद्धार ......
पर यह भरोसा न कोई चिड़िया है
न है कोई इन्सान या फिर
जानवर भी
यह तो है एक व्यवस्था का नाम
जिस पर कायम होता है
हमारा...
बहुत कुछ या सब कुछ ....
बुधवार, 9 जुलाई 2008
सब सच सच कह दूँ....
सब सच सच कह दूँ , ठीक है . ..
इस संसार मे आया कोई भी माया से बच नहीं सकता जब तक की संसार न छूट जाए,।
नहीं कह सकती कि ब्लॉग माया कब तक साथ देगी । यह जरूर है कि जब कभी मन यह सोचता है माई री मै का से कहूँ अपने जिया कि.. फिर खुद ही जवाब भी मिल जाता है कि कहो न ब्लॉग पर, यह अलग बात है कि बिसर भी जाता है बहुत कुछ कई कई बार ......
साल भर पहले बोधि ने अभय से मेरा भी एक ब्लॉग हो, इस बाबत सलाह किया,
और 24 जून 2007 को अभय ने मेरा ब्लॉग अपना घर बनाया।
तय सी बात है कि जो अक्सर घर पर आते है वो अपनों से हो जाते-बड़े छोटे हम उम्र सभी.... इन अपनों से वाद-संवाद के लिए निर्मल आनन्द के अभय तिवारी की आभारी हूँ । अनूप शुक्ल फुरसतिया जो टिप्पणी तो करते ही हैं साथ ही कभी कभार बातचीत में अपनापा और बड़प्पन जता जाते हैं इधर मैं भावुक होने लगती हूँ, समीर भाई जैसे समझदार और व्यवहारिक लोग भी बड़ी खुशकिशमत जन को मिलते हैं तो मानिए पूरा ब्लॉग जगत भाग्य का धनी है। अनुज संजीत त्रिपाठी कहाँ व्यस्त हैं, किसी को पता हो तो मुझे भी बताएँ या हमारी याद उन तक पहुचाएँ ।
ज्ञान भैया ऐसी सीख भरी टीप देकर उत्साह बढ़ाते रहते हैं...शिव जी ...कभी-कभार अपना घर तक आए हैं पर मुझे कोई शिकायत नहीं ये तो अपनी, सहूलियत और समय मिलने की बात है, अनिल रघुराज जी को क्या कहें वो जैसे कभी-कभार टीप देते हैं वैसे ही कभी-कभार उनकी पोस्ट पढ़ कर बरबस कह देती हूँ देखो अनिल जी ने मेरी बात कह दी यह जरूर है कि बोधि बताते हैं कि अनिल भाई बहुत पढ़े लिखे सहज सरल हैं, प्रमोद भाई का जिस दिन काली काफी पीकर रजाई मे मुँह ढक कर रोने का मन कर रहा था उस दिन लगा यह है न मेरा भाई जिसने मेरा संग्रह छपने छपाने की बात की थी, काकेश की कतरने मैं भले ही हमेशा न पढ़ पाऊँ पर पाऱूली की शादी तो मन में बस गई है, ....अफलातून जी की मेरी पोस्ट पर वेलकम टीप नहीं भूल सकती...। बहुत सारे मेरे भाई जिनका नाम भूल रही हूँ क्या करूँ आशा है क्षमा करेगें
इधर आए अरूण आदित्य भी रवानी भरी दिल की बातें लिखते है तो अच्छा लगता है, ..
अभिषेख ओझा गणितीय पोस्ट भर लिखते हैं, उन्हें महगाई को ध्यान में रखते हुए बचत
करना चाहिए ताकि आने वाली के लिए हीरे का नेकलेस ,रिंग वगैरा.......ले जाएं ये सिर्फ सलाह है......आखिर बड़ी हूँ ..। सुभाष निरव मेल करते हैं अच्छा लगता है ...
बहनें तो अपनी है ही जिनमें बड़ी दी लावण्या जी के स्नेह और सीख भरी टीप मीठी लगती है, इंतजार भी। अनिता जी सहित रंजू ,रचना आप सब के मेल का जवाब नहीं दे पाई कारण–मेरे सहित मेरे कम्प्यूटर की तबीयत भी ठीक नहीं थी इस वास्ते मैंने दस
बारी कान पकड़ कर उट्ठक–बैठक कर ली आप सब ने देखा नहीं पर पढ़ तो लिया ही आशा है माफ करेगीं .....करेगीं न .. । रंजू आप अमृता प्रीतम और मीना कुमारी को पसंन्द करती हैं, मै भी और ब्लॉग पर यदि किसी से मीठी जलन है तो वो आप से इतना ही कहूँ की और कुछ ..... । ममता आप की रीटा आइस्क्रीम पोस्ट बाकी खबरिया पोस्ट पढ़ती हूँ ...। बेजी अचानक कहा व्यस्त हो गई..। घुघूती जी उससे भी पहले से ..कहा है आप का इंतजार..। मीनाक्षी मान जाइए नही तो मैं आकर मनाऊँगी...चोखेरबालियाँ तो अपनी सी हैं ही.................
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इस संसार मे आया कोई भी माया से बच नहीं सकता जब तक की संसार न छूट जाए,।
नहीं कह सकती कि ब्लॉग माया कब तक साथ देगी । यह जरूर है कि जब कभी मन यह सोचता है माई री मै का से कहूँ अपने जिया कि.. फिर खुद ही जवाब भी मिल जाता है कि कहो न ब्लॉग पर, यह अलग बात है कि बिसर भी जाता है बहुत कुछ कई कई बार ......
साल भर पहले बोधि ने अभय से मेरा भी एक ब्लॉग हो, इस बाबत सलाह किया,
और 24 जून 2007 को अभय ने मेरा ब्लॉग अपना घर बनाया।
तय सी बात है कि जो अक्सर घर पर आते है वो अपनों से हो जाते-बड़े छोटे हम उम्र सभी.... इन अपनों से वाद-संवाद के लिए निर्मल आनन्द के अभय तिवारी की आभारी हूँ । अनूप शुक्ल फुरसतिया जो टिप्पणी तो करते ही हैं साथ ही कभी कभार बातचीत में अपनापा और बड़प्पन जता जाते हैं इधर मैं भावुक होने लगती हूँ, समीर भाई जैसे समझदार और व्यवहारिक लोग भी बड़ी खुशकिशमत जन को मिलते हैं तो मानिए पूरा ब्लॉग जगत भाग्य का धनी है। अनुज संजीत त्रिपाठी कहाँ व्यस्त हैं, किसी को पता हो तो मुझे भी बताएँ या हमारी याद उन तक पहुचाएँ ।
ज्ञान भैया ऐसी सीख भरी टीप देकर उत्साह बढ़ाते रहते हैं...शिव जी ...कभी-कभार अपना घर तक आए हैं पर मुझे कोई शिकायत नहीं ये तो अपनी, सहूलियत और समय मिलने की बात है, अनिल रघुराज जी को क्या कहें वो जैसे कभी-कभार टीप देते हैं वैसे ही कभी-कभार उनकी पोस्ट पढ़ कर बरबस कह देती हूँ देखो अनिल जी ने मेरी बात कह दी यह जरूर है कि बोधि बताते हैं कि अनिल भाई बहुत पढ़े लिखे सहज सरल हैं, प्रमोद भाई का जिस दिन काली काफी पीकर रजाई मे मुँह ढक कर रोने का मन कर रहा था उस दिन लगा यह है न मेरा भाई जिसने मेरा संग्रह छपने छपाने की बात की थी, काकेश की कतरने मैं भले ही हमेशा न पढ़ पाऊँ पर पाऱूली की शादी तो मन में बस गई है, ....अफलातून जी की मेरी पोस्ट पर वेलकम टीप नहीं भूल सकती...। बहुत सारे मेरे भाई जिनका नाम भूल रही हूँ क्या करूँ आशा है क्षमा करेगें
इधर आए अरूण आदित्य भी रवानी भरी दिल की बातें लिखते है तो अच्छा लगता है, ..
अभिषेख ओझा गणितीय पोस्ट भर लिखते हैं, उन्हें महगाई को ध्यान में रखते हुए बचत
करना चाहिए ताकि आने वाली के लिए हीरे का नेकलेस ,रिंग वगैरा.......ले जाएं ये सिर्फ सलाह है......आखिर बड़ी हूँ ..। सुभाष निरव मेल करते हैं अच्छा लगता है ...
बहनें तो अपनी है ही जिनमें बड़ी दी लावण्या जी के स्नेह और सीख भरी टीप मीठी लगती है, इंतजार भी। अनिता जी सहित रंजू ,रचना आप सब के मेल का जवाब नहीं दे पाई कारण–मेरे सहित मेरे कम्प्यूटर की तबीयत भी ठीक नहीं थी इस वास्ते मैंने दस
बारी कान पकड़ कर उट्ठक–बैठक कर ली आप सब ने देखा नहीं पर पढ़ तो लिया ही आशा है माफ करेगीं .....करेगीं न .. । रंजू आप अमृता प्रीतम और मीना कुमारी को पसंन्द करती हैं, मै भी और ब्लॉग पर यदि किसी से मीठी जलन है तो वो आप से इतना ही कहूँ की और कुछ ..... । ममता आप की रीटा आइस्क्रीम पोस्ट बाकी खबरिया पोस्ट पढ़ती हूँ ...। बेजी अचानक कहा व्यस्त हो गई..। घुघूती जी उससे भी पहले से ..कहा है आप का इंतजार..। मीनाक्षी मान जाइए नही तो मैं आकर मनाऊँगी...चोखेरबालियाँ तो अपनी सी हैं ही.................
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गुरुवार, 19 जून 2008
खून अपना रंग दिखाता है
खून अपना रंग दिखाता है
मेरी बेटी भानी हर हाल में अपनी बात मनवाती है । उसके इस स्वभाव के चलते
हम सब उसे घर का गुण्डा घोषित कर चुके हैं । भानी के भाई मानस स्कूल से या खेल कर लौटे, बहन के न दिखने पर पूछते हैं, कहाँ हैं अपना गुण्डा, ऐसे ही हम दोनों भी, कहाँ है गुण्डा चंद, गून्डू कहते हैं। खैर हम सब एक सीमा के बाद भानी के शरण में आ जाते हैं इस बाबत बहुत सारी बातें हैं क्या क्या बताऊँ और क्या क्या जाने दूँ,......
मै यह सोच समझ कर भी खुश रहती थी कि अच्छा है ऐसा ही होना चाहिए,
पर बड़ी होकर ऐसे ही करती रही तो...... मन उलझन में भी पड़ जाता है ।
भानी की ये दादागीरी घर ही नहीं बाहर भी चलती है ।
पर भानी कल स्कूल से लौट कर आई । एक घंटे बीतने के बाद जो बाते हुईं उसमें मैं खुद के बचपन को देखने लगी कि जब मैं पहली दूसरी मे पढ़ा करती थी, कैसी थी, ऐसे ही जैसे भानी सुना रही है ।
एक कुलदीप नाम का लड़का और आभा नाम की लड़की..या.
जब कभी आभा की टीचर नहीं आती तो उसे कुलदीप के क्लास में जाना पड़ता
आभा की तो जान हथेली पर होती अब क्या क्या होगा, होता भी ।
आभा की टिफिन कुलदीप पढ़ाई के बीच चट कर जाता, टिफिन जब तक खाता ठीक से सीट पर बैठने देता पर अपना का खत्म होते ही खुद सीट पर डट कर बैठता और आभा
बैठी क्या कुरसी पर लटकी होती, ऊपर से कुलदीप यह कह कर डराता कि अगर टीचर से
शिकायत की तो बहुत मारूँगा, आभा डरती क्यों न कुलदीप पढ़ता पहली में लगता ऐसा जैसे पाँचवीं का छात्र । और आभा एक मरियल सी लड़की
जैसा कि अक्सर होता है । देर सबेर टीचर को सारी कहानी पता चल गई.।
उसके बाद जब कभी आभा को कुलदीप के क्लास में जाना होता, आभा खुश होती,
हो भी क्यों न, अब वो टीचर के बगल वाली सीट पर बैठती .....
अब रही बात भानी कि तो उसे मैं टीफिन में सब्जियाँ अलग से नहीं देती ताकि उसके कपडे़ गंदे न हो दूसरे भानी अक्सर सब्जियाँ नहीं खाती सो मैं सब्जी को रोटी, पराठा पूड़ी मे भर कर देती हूँ और सब्जी वाले खाने में पिस्ता, काजू या कोई सेव, नमकीन रख देती हूँ ताकि भानी खुश हो कर खाए । पर आज बात करने पर पता चला वो पिस्ता काजू और भी कुछ भानी नहीं खा रही बल्कि प्रिशा नाम की लड़की रोज खा लेती है
भानी उससे दोस्ती नहीं करना चाहती न ही उसके साथ बैठना ।
एक दूसरी आगे की क्लास में पढ़ने वाली लड़की ने बताया कि आंटी भानी स्कूल में रो रही थी और कह रही थी कि मुझे मम्मी की याद आ रही है, फिर मैने इसे चुप कराया कि मम्मी थोड़ी देर में मिल जाएगी और इसके क्लास की एक लड़की भी चुप करा रही थी ।
मै करूँ क्या सारी बाते सुन कर खीझ भी हुई फिर हँसी भी आई कि प्रिशा भी भानी के तरह की एक बच्ची है ।
कुल मिला कर यही कह सकती हूँ कि भानी की गुण्डागीरी प्रिशा के आगे हवा हो गई है। या फिर यह कि खून आपना रंग दिखाता है।
आप सब की क्या सलाह है......।
मेरी बेटी भानी हर हाल में अपनी बात मनवाती है । उसके इस स्वभाव के चलते
हम सब उसे घर का गुण्डा घोषित कर चुके हैं । भानी के भाई मानस स्कूल से या खेल कर लौटे, बहन के न दिखने पर पूछते हैं, कहाँ हैं अपना गुण्डा, ऐसे ही हम दोनों भी, कहाँ है गुण्डा चंद, गून्डू कहते हैं। खैर हम सब एक सीमा के बाद भानी के शरण में आ जाते हैं इस बाबत बहुत सारी बातें हैं क्या क्या बताऊँ और क्या क्या जाने दूँ,......
मै यह सोच समझ कर भी खुश रहती थी कि अच्छा है ऐसा ही होना चाहिए,
पर बड़ी होकर ऐसे ही करती रही तो...... मन उलझन में भी पड़ जाता है ।
भानी की ये दादागीरी घर ही नहीं बाहर भी चलती है ।
पर भानी कल स्कूल से लौट कर आई । एक घंटे बीतने के बाद जो बाते हुईं उसमें मैं खुद के बचपन को देखने लगी कि जब मैं पहली दूसरी मे पढ़ा करती थी, कैसी थी, ऐसे ही जैसे भानी सुना रही है ।
एक कुलदीप नाम का लड़का और आभा नाम की लड़की..या.
जब कभी आभा की टीचर नहीं आती तो उसे कुलदीप के क्लास में जाना पड़ता
आभा की तो जान हथेली पर होती अब क्या क्या होगा, होता भी ।
आभा की टिफिन कुलदीप पढ़ाई के बीच चट कर जाता, टिफिन जब तक खाता ठीक से सीट पर बैठने देता पर अपना का खत्म होते ही खुद सीट पर डट कर बैठता और आभा
बैठी क्या कुरसी पर लटकी होती, ऊपर से कुलदीप यह कह कर डराता कि अगर टीचर से
शिकायत की तो बहुत मारूँगा, आभा डरती क्यों न कुलदीप पढ़ता पहली में लगता ऐसा जैसे पाँचवीं का छात्र । और आभा एक मरियल सी लड़की
जैसा कि अक्सर होता है । देर सबेर टीचर को सारी कहानी पता चल गई.।
उसके बाद जब कभी आभा को कुलदीप के क्लास में जाना होता, आभा खुश होती,
हो भी क्यों न, अब वो टीचर के बगल वाली सीट पर बैठती .....
अब रही बात भानी कि तो उसे मैं टीफिन में सब्जियाँ अलग से नहीं देती ताकि उसके कपडे़ गंदे न हो दूसरे भानी अक्सर सब्जियाँ नहीं खाती सो मैं सब्जी को रोटी, पराठा पूड़ी मे भर कर देती हूँ और सब्जी वाले खाने में पिस्ता, काजू या कोई सेव, नमकीन रख देती हूँ ताकि भानी खुश हो कर खाए । पर आज बात करने पर पता चला वो पिस्ता काजू और भी कुछ भानी नहीं खा रही बल्कि प्रिशा नाम की लड़की रोज खा लेती है
भानी उससे दोस्ती नहीं करना चाहती न ही उसके साथ बैठना ।
एक दूसरी आगे की क्लास में पढ़ने वाली लड़की ने बताया कि आंटी भानी स्कूल में रो रही थी और कह रही थी कि मुझे मम्मी की याद आ रही है, फिर मैने इसे चुप कराया कि मम्मी थोड़ी देर में मिल जाएगी और इसके क्लास की एक लड़की भी चुप करा रही थी ।
मै करूँ क्या सारी बाते सुन कर खीझ भी हुई फिर हँसी भी आई कि प्रिशा भी भानी के तरह की एक बच्ची है ।
कुल मिला कर यही कह सकती हूँ कि भानी की गुण्डागीरी प्रिशा के आगे हवा हो गई है। या फिर यह कि खून आपना रंग दिखाता है।
आप सब की क्या सलाह है......।
रविवार, 15 जून 2008
करोगे याद तो हर बात याद आएगी
कैसे थे पिता.....
श्रृष्टि की रचना से रचित रिश्तों की डोर में बँधे और पिता बने दशरथ , राम , शान्तनु फिर बुद्ध ये कैसे कैसे पिता थे आप सब ने जाना है । न जाने कहाँ से आज इनकी यादों ने मुझे से घेर लिया, रहने दो छोडो़ भी जाने दो यार कितना करेगें याद ।.
पिछले महीने भर से हर चैनल पर दिख रहे एक पिता हैं डा. राजेश तलवार, उन पर अपनी ही बेटी आरुषी की हत्या का संदेह है...आप सब ने भी उन पर हमारी ही तरह एक बार शक की निगाह से जरूर देखा होगा...हो सकता है उन पर आरोप सच न भी हो...लेकिन पिता के पद और दायित्व पर तलवार खरे नहीं उतरे हैं...और कोई नहीं तो उनकी पत्नी नूपुर ने तो उन्हें अब तक जान ही लिया होगा कि वो कैसे पिता है ।
.
हा यह जरूर है कानून सबूत चाहता है, मागता है, हम भी चाहते है. शंका और समाधान की पुष्टि। बालीवुड की कई कई आँखें लटक रही है सिर्फ एक तार पर और वो तार हैं -अरुषी के पिता डा. तलवार। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखिए होता है क्या और कहानी बनती है क्या । भगवान इस पिता की पुत्री आरूषी की आत्मा
को शान्ति दें ।
दुनिया जहान के हर पिता को हैपी फादर्स डे पर आरूषी के पिता को क्या कहूँ....।
पिता के बारे में बात करने को बहुत बहुत होता हैं। फिलहाल इतना ही कि मेरे पिता
जीवन में जितना सुख-सुविधा-आजादी का जीवन दिया और जिया उतना ही तकलीफ भी झेली अंत के दिनों में। उनकी जेब अपना पराया नहीं देखती थी। देखती थी तो सिर्फ जरूरत मंद को।
मेरे पिता स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी साथ ही अपने उसूलों के पक्के थे । बड़े से बड़ा घाटा हो जाए या फायदा...वो अपनी बात पर डटे रहते थे...इसीलिए जिंदगी में उन्होंने बहुत उतार चढ़ाव देखे.....। दादी की तीन संतालों में वे पहले थे। बड़ी मन्नतो के बाद उनका जन्म हुआ वो भी शादी के 14 साल बाद....दादी-दादा के लिए वो पत्थर की दूब थे....भयानक दुलार में पले-बढ़े। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई की लेकिन दुनियादार नहीं बन पाए मेरे बाबूजी।
मेरे बाबूजी...
मेरे बाबूजी
पत्थर पर दूब की तरह थे
मेरी दादी के लिए,
हमारे लिए थे
वे थे ठोस पत्थर की तरह....
चट्टान की तरह थे
जिन पर हम
खेलते बड़े हुए....
काश की वे दुनियादार होते
काश कि वे वैसे न होते जैसे थे वे
तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी।
श्रृष्टि की रचना से रचित रिश्तों की डोर में बँधे और पिता बने दशरथ , राम , शान्तनु फिर बुद्ध ये कैसे कैसे पिता थे आप सब ने जाना है । न जाने कहाँ से आज इनकी यादों ने मुझे से घेर लिया, रहने दो छोडो़ भी जाने दो यार कितना करेगें याद ।.
पिछले महीने भर से हर चैनल पर दिख रहे एक पिता हैं डा. राजेश तलवार, उन पर अपनी ही बेटी आरुषी की हत्या का संदेह है...आप सब ने भी उन पर हमारी ही तरह एक बार शक की निगाह से जरूर देखा होगा...हो सकता है उन पर आरोप सच न भी हो...लेकिन पिता के पद और दायित्व पर तलवार खरे नहीं उतरे हैं...और कोई नहीं तो उनकी पत्नी नूपुर ने तो उन्हें अब तक जान ही लिया होगा कि वो कैसे पिता है ।
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हा यह जरूर है कानून सबूत चाहता है, मागता है, हम भी चाहते है. शंका और समाधान की पुष्टि। बालीवुड की कई कई आँखें लटक रही है सिर्फ एक तार पर और वो तार हैं -अरुषी के पिता डा. तलवार। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखिए होता है क्या और कहानी बनती है क्या । भगवान इस पिता की पुत्री आरूषी की आत्मा
को शान्ति दें ।
दुनिया जहान के हर पिता को हैपी फादर्स डे पर आरूषी के पिता को क्या कहूँ....।
पिता के बारे में बात करने को बहुत बहुत होता हैं। फिलहाल इतना ही कि मेरे पिता
जीवन में जितना सुख-सुविधा-आजादी का जीवन दिया और जिया उतना ही तकलीफ भी झेली अंत के दिनों में। उनकी जेब अपना पराया नहीं देखती थी। देखती थी तो सिर्फ जरूरत मंद को।
मेरे पिता स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी साथ ही अपने उसूलों के पक्के थे । बड़े से बड़ा घाटा हो जाए या फायदा...वो अपनी बात पर डटे रहते थे...इसीलिए जिंदगी में उन्होंने बहुत उतार चढ़ाव देखे.....। दादी की तीन संतालों में वे पहले थे। बड़ी मन्नतो के बाद उनका जन्म हुआ वो भी शादी के 14 साल बाद....दादी-दादा के लिए वो पत्थर की दूब थे....भयानक दुलार में पले-बढ़े। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई की लेकिन दुनियादार नहीं बन पाए मेरे बाबूजी।
मेरे बाबूजी...
मेरे बाबूजी
पत्थर पर दूब की तरह थे
मेरी दादी के लिए,
हमारे लिए थे
वे थे ठोस पत्थर की तरह....
चट्टान की तरह थे
जिन पर हम
खेलते बड़े हुए....
काश की वे दुनियादार होते
काश कि वे वैसे न होते जैसे थे वे
तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी।
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