रविवार, 15 जुलाई 2007

कविता

स्त्रियां

स्त्रियां घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियां .पीढी दर पीढी .स्त्रियां बना रही हैं
उस्ताद फिर गुरु, अपने ही दो चार बुझे-अनबुझे
शव्दों से ,

दे रही हैं ढांढस, बन रही हैं ढाल,
सदियों से सह रही हैं मान -अपमान घर और बाहर.
स्त्रियां बढा रही हैं मर्यादा कुल की खुद अपनी ही
म्रर्यादा खोकर,

भागमभाग में बराबरी कर जाने के लिये
दौड रही हैं पीछे-पीछे,

कहीं खो रही हैं
कहीं अपनापन,
कहीं सर्वस्व.

3 टिप्‍पणियां:

बोधिसत्व ने कहा…
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बोधिसत्व ने कहा…

अच्छी रचना पढवाने के लिए शुक्रिया

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया!