गुरुवार, 19 जून 2008

खून अपना रंग दिखाता है

खून अपना रंग दिखाता है

मेरी बेटी भानी हर हाल में अपनी बात मनवाती है । उसके इस स्वभाव के चलते
हम सब उसे घर का गुण्डा घोषित कर चुके हैं । भानी के भाई मानस स्कूल से या खेल कर लौटे, बहन के न दिखने पर पूछते हैं, कहाँ हैं अपना गुण्डा, ऐसे ही हम दोनों भी, कहाँ है गुण्डा चंद, गून्डू कहते हैं। खैर हम सब एक सीमा के बाद भानी के शरण में आ जाते हैं इस बाबत बहुत सारी बातें हैं क्या क्या बताऊँ और क्या क्या जाने दूँ,......

मै यह सोच समझ कर भी खुश रहती थी कि अच्छा है ऐसा ही होना चाहिए,
पर बड़ी होकर ऐसे ही करती रही तो...... मन उलझन में भी पड़ जाता है ।
भानी की ये दादागीरी घर ही नहीं बाहर भी चलती है ।
पर भानी कल स्कूल से लौट कर आई । एक घंटे बीतने के बाद जो बाते हुईं उसमें मैं खुद के बचपन को देखने लगी कि जब मैं पहली दूसरी मे पढ़ा करती थी, कैसी थी, ऐसे ही जैसे भानी सुना रही है ।
एक कुलदीप नाम का लड़का और आभा नाम की लड़की..या.
जब कभी आभा की टीचर नहीं आती तो उसे कुलदीप के क्लास में जाना पड़ता
आभा की तो जान हथेली पर होती अब क्या क्या होगा, होता भी ।
आभा की टिफिन कुलदीप पढ़ाई के बीच चट कर जाता, टिफिन जब तक खाता ठीक से सीट पर बैठने देता पर अपना का खत्म होते ही खुद सीट पर डट कर बैठता और आभा
बैठी क्या कुरसी पर लटकी होती, ऊपर से कुलदीप यह कह कर डराता कि अगर टीचर से
शिकायत की तो बहुत मारूँगा, आभा डरती क्यों न कुलदीप पढ़ता पहली में लगता ऐसा जैसे पाँचवीं का छात्र । और आभा एक मरियल सी लड़की

जैसा कि अक्सर होता है । देर सबेर टीचर को सारी कहानी पता चल गई.।
उसके बाद जब कभी आभा को कुलदीप के क्लास में जाना होता, आभा खुश होती,
हो भी क्यों न, अब वो टीचर के बगल वाली सीट पर बैठती .....

अब रही बात भानी कि तो उसे मैं टीफिन में सब्जियाँ अलग से नहीं देती ताकि उसके कपडे़ गंदे न हो दूसरे भानी अक्सर सब्जियाँ नहीं खाती सो मैं सब्जी को रोटी, पराठा पूड़ी मे भर कर देती हूँ और सब्जी वाले खाने में पिस्ता, काजू या कोई सेव, नमकीन रख देती हूँ ताकि भानी खुश हो कर खाए । पर आज बात करने पर पता चला वो पिस्ता काजू और भी कुछ भानी नहीं खा रही बल्कि प्रिशा नाम की लड़की रोज खा लेती है
भानी उससे दोस्ती नहीं करना चाहती न ही उसके साथ बैठना ।
एक दूसरी आगे की क्लास में पढ़ने वाली लड़की ने बताया कि आंटी भानी स्कूल में रो रही थी और कह रही थी कि मुझे मम्मी की याद आ रही है, फिर मैने इसे चुप कराया कि मम्मी थोड़ी देर में मिल जाएगी और इसके क्लास की एक लड़की भी चुप करा रही थी ।
मै करूँ क्या सारी बाते सुन कर खीझ भी हुई फिर हँसी भी आई कि प्रिशा भी भानी के तरह की एक बच्ची है ।
कुल मिला कर यही कह सकती हूँ कि भानी की गुण्डागीरी प्रिशा के आगे हवा हो गई है। या फिर यह कि खून आपना रंग दिखाता है।
आप सब की क्या सलाह है......।

रविवार, 15 जून 2008

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

कैसे थे पिता.....

श्रृष्टि की रचना से रचित रिश्तों की डोर में बँधे और पिता बने दशरथ , राम , शान्तनु फिर बुद्ध ये कैसे कैसे पिता थे आप सब ने जाना है । न जाने कहाँ से आज इनकी यादों ने मुझे से घेर लिया, रहने दो छोडो़ भी जाने दो यार कितना करेगें याद ।.

पिछले महीने भर से हर चैनल पर दिख रहे एक पिता हैं डा. राजेश तलवार, उन पर अपनी ही बेटी आरुषी की हत्या का संदेह है...आप सब ने भी उन पर हमारी ही तरह एक बार शक की निगाह से जरूर देखा होगा...हो सकता है उन पर आरोप सच न भी हो...लेकिन पिता के पद और दायित्व पर तलवार खरे नहीं उतरे हैं...और कोई नहीं तो उनकी पत्नी नूपुर ने तो उन्हें अब तक जान ही लिया होगा कि वो कैसे पिता है ।
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हा यह जरूर है कानून सबूत चाहता है, मागता है, हम भी चाहते है. शंका और समाधान की पुष्टि। बालीवुड की कई कई आँखें लटक रही है सिर्फ एक तार पर और वो तार हैं -अरुषी के पिता डा. तलवार। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखिए होता है क्या और कहानी बनती है क्या । भगवान इस पिता की पुत्री आरूषी की आत्मा
को शान्ति दें ।

दुनिया जहान के हर पिता को हैपी फादर्स डे पर आरूषी के पिता को क्या कहूँ....।

पिता के बारे में बात करने को बहुत बहुत होता हैं। फिलहाल इतना ही कि मेरे पिता
जीवन में जितना सुख-सुविधा-आजादी का जीवन दिया और जिया उतना ही तकलीफ भी झेली अंत के दिनों में। उनकी जेब अपना पराया नहीं देखती थी। देखती थी तो सिर्फ जरूरत मंद को।
मेरे पिता स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी साथ ही अपने उसूलों के पक्के थे । बड़े से बड़ा घाटा हो जाए या फायदा...वो अपनी बात पर डटे रहते थे...इसीलिए जिंदगी में उन्होंने बहुत उतार चढ़ाव देखे.....। दादी की तीन संतालों में वे पहले थे। बड़ी मन्नतो के बाद उनका जन्म हुआ वो भी शादी के 14 साल बाद....दादी-दादा के लिए वो पत्थर की दूब थे....भयानक दुलार में पले-बढ़े। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई की लेकिन दुनियादार नहीं बन पाए मेरे बाबूजी।

मेरे बाबूजी...

मेरे बाबूजी
पत्थर पर दूब की तरह थे
मेरी दादी के लिए,
हमारे लिए थे
वे थे ठोस पत्थर की तरह....
चट्टान की तरह थे
जिन पर हम
खेलते बड़े हुए....
काश की वे दुनियादार होते
काश कि वे वैसे न होते जैसे थे वे
तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी।