रविवार, 23 सितंबर 2007

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ

डॉटर्स डे पर चक दे बेटियाँ

डॉटर्स डे मना रही हूँ, पर एक सवाल मन में बार-बार उठ रहा है कि चक दे इंडिया में कोच कोई महिला क्यों नहीं। कोई भी कह सकता है कि फिल्म चलती नहीं। खैर ।
बात इतनी सी है कि डॉटर्स डे उन बेटियों तक कोई रोशनी नहीं ले जा रहा है जिन्हें वाकई इस की जरूरत है। डॉटर्स डे या सन डे मनाने भर से बात नहीं बनने वाली। सिर्फ बेटा-बेटी एक समान कह देने भर से मामला दुरुस्त नहीं होती। आज भी लोग बेटी पैदा करने से बच रहे हैं। डॉक्टर आराम से कोख में बेटियों को कत्ल कर रहे हैं और समाज चुप है। एक खबर बनने के आगे बात नहीं जा रही है। बिना दहेज के शादियाँ
नहीं हो रही हैं। बेटियाँ बहू बन कर जल रही हैं। और एक खबर के बाद सब बराबर। सब ढर्रे पर हो जाता है।

आज समाज के कई हिस्सों में औरतें डट कर काम कर रही हैं। पर उनकी तादाद कितनी है। लोक सभा और विधान सभा की बात तो है ही मेरा सवाल है कि हजार ब्लॉगर में औरतें या बेटियाँ कितनी हैं। एक सुनीता और कल्पना के उड़ान भरने से भारत के तमाम पिछड़े गाँवों की लड़कियों को उड़ने का मौका नहीं मिल जाता। वे कैद हैं। कभी संस्कार के नाम पर कभी परंपरा और परिपाटी के नाम पर। आज भी यह गीत सुनाई दे जाता है कि अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। मैं आज के दिन यह कहना चाहूँगी कि औरतें खुद ही अपना भविष्य बदल सकती हैं। और बदलेंगी भी। कभी वह दिन आएगा जब यह गीत यूँ गाया जाएगा अगले जनम मोहे बिटिया कीजौ। डाटर्स डे जिंदाबाद.....।

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

रामलीला और सीतवा

देवताओं के साथ लीला

हम जब छोटे थे तब मोहल्ले के बच्चों के साथ एक झुंड बनाकर रामलीला देखने जाते थे। हम लोगों को घर के लोग रामलीला देखने जाने से रोकते थे और रोकने का करण पूछने पर बताया जाता था कि इस तरह की रामलीला में रामायण और देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जाता है। फिर भी हम बच्चे किसी ना किसी तरह से रामलीला देखने चले ही जाते थे। कभी घर के लोंगों को पटा कर कभी चोरी छिपे।

वहाँ पहुँच कर लगता कि साक्षात राम सहित सभी देवताओं के दर्शन हो गये। देवताओं को देखने के बाद लगता कि घर वाले ही मूरख थे जो आने नहीं दे रहे थे।

ठीकठाक चल रही रामलीला में कुछ ऐसा होता जिससे सभी दर्शक खूब हँसते। हुआ कुछ ऐसा । लखन को शक्ति वाण लगने पर सीता के रोने का प्रसंग था। सीता रो रहीं थी । दर्शकों का हँसना सीता के रोने पर था । सीता यह कह कर रो रहीं थी कि –

अब हमके फटफटिया पर के घुमाई।
अब हमके जलेबिया के खिआई ।
अब हमके सिनेमा के देखाई
अब हमरे मेला के देखाई।

सीता का यह रोना दर्शकों को रुलाने की जगह हँसा गया था। हँसने में हम भी भूल गये थे कि यह कैसी सीता और कैसा उसका दुख।

बाद में सीता हरण भी हुआ। अगले दिन हम फिर रामलीला मैदान पहुँचे। हम सब तन्मय होकर रामलीला देख रहे थे तभी किसी दर्शक ने कल की लीला में सीता की भूमिका करने वाले लड़के को पहचान लिया। आज उसकी भूमिका नहीं थी और वह खुद रामलीला देखने आया था। अपने पास सीता को पैंट-शर्ट में पाकर हम हैरान थे। कल जिस के हरण और विलाप पर हम रो और हँस रहे थे वह आज हमारे बीच बैठा दूसरे पात्रों पर हँस रहा था । किसी एक ने जोर से पुकारा अरे सितवा आया है ....सितवा । कुछ दर्शक सीता को देखने लपके लेकिन तब तक खेल खतम हो गया दर्शक उठने लगे और सितवा भीड़ में खो गया ।

देवी देवताओं को लेकर घरवालों का नजरिया तब हमें बुरा लगा था लेकिन बाद में हम समझ गये कि घरवाले ठीक थे। आज भी देश में कुछ लोग ऐसा ही कर रहे हैं। उनके लिए सीता राम मजाक के पात्र हैं । खेल का विषय। और हम सब दर्शक । कोई इस खेल को रोकने वाला नहीं है।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

पिछड़े आदमी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट

आज कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का जन्म दिन है। पढ़िए उनकी दो कविताएँ।


पिछड़ा
आदमी


जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था,
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट

गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
'राम'।

दूसरे के मुँह से निकला-
'माओ'।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
'आलू'।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

हिंदी दिवस पर देशगान

हिंदी दिवस के मौके पर अपने एक प्रिय कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता छाप रही हूँ। यह महज संयोग नहीं कि कल यानी 15 सितंबर को उनका जन्म दिन भी है। कल मैं उनके परिचय के साथ उनकी कुछ और कविताएँ छापूँगी।

देशगान

क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

पेड़ हो या आदमी
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।


नोट- राजकमल, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ संग्रह से।

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

हर आदमी के भीतर होते हैं दस-बीस आदमी

वह कौन था ?

हर आदमी में होता है दस-बीस आदमी इस बात को लेकर मैं सोचती रही हूँ। पता नहीं यह किस शायर का कहा है पर जहां तक मुझे याद है कि यह बशीर बद्र का लिखा है। अगर मैं गलत भी हूँ तो भी बात सटीक उतरती है लोगों के बारे में दुनिया जहान के बारे में और मेरे अपने बारे में भी । कभी ये विचार बहुत परेशान करता रहा तो कभी बहुत शुकून भी देता है ।

एक व्यक्ति में क्या सच में कई व्यक्ति होते हैं । कल शाम को यह मैं सोच ही रही थी कि मेरे बड़े भाई का दिल्ली से फोन आया। जैसे बातें होती हैं हुईं। हाल-चाल हुआ। पूछा कि मैं क्या कर रही हूँ। मैंने बताया घर में रह कर और क्या कर सकती हूँ । बच्चों के देख भाल के अलावा कुछ कविता- कविता कर रही हूँ । एक ब्लॉग खोला है। कभी-कभी उस पर कुछ लिखती हूँ। पर अभी गति नहीं है। रोज लिखना चाहती हूँ पर लिख नहीं पाती हूँ। बातें बहुत सारी कहना चाहती हूं कह नहीं पाती। भीतर बैठा एक दूसरा आदमी मुझे रोक लेता है। । यह लिख यह नहीं। भाई ने कहा कि यह सब दुनियादारी छोड़ कर घर -गृहस्थी देखो। इन बातों से कुछ बनने वाला नहीं। लोग लिख तो रहे हैं हजारों पन्ने हर दिन काले हो रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है दुनिया पर। आशीष और आदेश देकर भाई ने कहा कि दो अच्छे बच्चों की माँ हो उन्हे अच्छा इंसान बनाओ। उनका खयाल रखो। वे ही तुम्हारा लेख और लेखन होगें संसार में। वे ही तुम्हारी कविता कहानी हैं। यही समझ कर चलो।

कल शाम से अब तक उलझी हूँ। मैंने भाई से बात की या किसी और से। यह कौन था जो समझा गया। यह कौन था मेरा भाई या उसके भीतर का कोई और आदमी। जो बिना जरूरत के भी कुछ बता गया। कुछ समझा गया और मैं चुपचाप सुनती रही। यह मैं ही सुन रही थी या कोई और।

मैंने पलट कर भाई को फोन किया । मैंने कहा भाई लिखने में हर्ज क्या है। क्या लिखना गुनाह है। भाई ने कहा नहीं यह मैंने कब कहा। मैंने तो यह कहा था कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी पहली जिम्मेदारी हैं। और ब्लॉग पर लिखना खाली या खलिहर लोगों का खेल है।

इस बात के बाद मैं परेशान हूँ। मैं ब्लॉग लिखूँ या नहीं। मेरे बीतर बैठी एक माँ सवालों के घेरे में है। और मुझे लगने लगा है कि मैं बच्चों का खयाल कम रख रही हूँ। जबकि ऐसा एकदम नहीं है। मैं पिछले ११-१२ सालों से सिर्फ बच्चों की नींद सो और जाग रही हूँ। मैं जानती हूँ कि ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कर रही हूँ। हर माँ की यही दिनचर्या होती होगी। बच्चों की नींद सोना और जागना।

हालाकि मैंने सचमुच पाया है कि हर आदमी के भीतर एक ही समय में कई आदमी डेरा डाले रहता है।

बुधवार, 5 सितंबर 2007

एक बात

तुम्हारी कविता

तुम्हारी कविता से जानती हूँ
तुम्हारे बारे में
तुम सोचते क्या हो ,
कैसा बदलाव चाहते हो
किस बात से होते हो आहत;
किस बात से खुश

तुम्हारा कोई बायोडटा नहीं मेरे पास
फिर भी जानती हूँ मैं
तुम्हें तुम्हारी कविताओं से

क्या यह बडी़ बात नही कि
नहीं जानती तुम्हारा देश ,
तुम्हारी भाषा तुम्हारे लोग
मैं कुछ भी नहीं जानती ,
फिर भी कितना कुछ जानती हूँ
तुम्हारे बारे में

तुम्हारे घर के पास एक
जगल है
उस में एक झाड़ी
है अजीब
जिस में लगता है
एक चाँद-फल रोज
जिसके नीचे रोती है
विधवाएँ रात भर
दिन भर माँजती है
घरों के बर्तन
बुहारती हैं आकाश मार्ग
कि कब आएगा तारन हार
ऐसे ही चल रहा है
उस जंगल में

बताती है तुम्हारी कविता
कि सपनों को जोड़ कर बुनते हो एक तारा
और उसे समुद्र में डुबो देते हो।

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

अरुण कमल की एक कविता

इन्तजार

जिसने खो दी आँखें वह भी एक बार
झाड़ता है अपनी किताबें
बादल गरजते हैं उसके लिए भी
जो सुन नहीं सकता
जो चल नहीं सकता उसके सिरहाने भी
रखा है एटलस
जिसने कभी किसी से साँस नहीं बदली
उसे भी इन्तजार है शाम का।

नोट- यह कविता उनके चौथे संकलन पुतली में संसार से यहाँ लिया गया है। संकलन वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से छपा है।