गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

अबोध मन ने तृष्णा को सींचा था

पैसों का अंकुर नहीं फूटा !

आज बचपन की यादों ने पुकारा है मुझे...... ...उनमें से एक बात आप सब को बताऊँ....?
आप हाँ कहें या न पर मैं बताऊँगी....
मैं पाँच साल की थी....एक दिन मैंने अपनी नन्दिता दीदी का पर्स खोला...उसमें पचास पैसे के कई सिक्के मिले...मैंने दी से पूछा तुम्हारे पास इतने सारे पचास पैसे !
दी ने बताया मैंने यूनिवर्सिटी में पचास पैसे का पेड़ लगाया है...
मेरा दिमाग चल गया....मैंने अठन्नी की जगह एक रुपये का पेड़ उगाना तय किया....कैसे-कैसे करके एक रुपये के चार चार सिक्के जुटाए....और उन्हें बोने के लिए प्लास्टिक की बाल्टी से सीढ़ी के नीचे मिट्टी का ढ़ेर लगाया । फिर ईंट की मेंड़ से एक खेत बनाया..और घर के लोगों से बचा कर अपने उन चार सिक्कों को उस खेत में अंकुरित होने के लिए बो दिया.....।

महीनों मैं उन पौधों और उसके फल के बारे में खोई रही...स्कूल से लौट कर मैं सीधे अपने खेत पर जाती...सींचती ..मां कहती कि यह क्या करती है...सीढ़ी के नीचे...लेकिन मैं चुपचाप डांट खा कर अपनी खेती में लगी रहती...।
लेकिन...पौधे न उगे...पर मेरी आस न छूटी.....एक दिन स्कूल से लौट कर देखती हूँ कि मेरा खेत वहाँ नहीं है...सीटी के नीचे सब साफ सुथरा है....मेरा सरबस लुट चुका था...क्या करती...बस्ता फेंक...जूता फेंक....चिग्घाड़ मार कर रोने लगी...इस पर मां ने एक थप्पड़ लगाया जोर का...मैने अपने खेत हटाने का विरोध किया...लेकिन मां ने गंदगी फैलाने की बात करके मुझे चुप करा दिया...वह बोली और कोई खेल नहीं है तुम्हारे पास....मैं रोते हुए बाबा के पास गई...उन्हें अपनी सारी बात बताई....
उन्होंने कहा कि बेटा पैसे उगते नहीं....मेहनत करके पाए जाते हैं...फिर उन्होंने मुझे चार के बदले आठ सिक्के दिए लेकिन मैं खुश न हुई....मैं मानने को तैयार नहीं थी कि दीदी ने मुझे बेवकूफ बनाया था....
जब थोड़ी बड़ी हुई तो पैसे की खेती पर हिंदी के कवि सुमित्रा नंदन पंत की कविता पढ़ी...लगा कि पंत ने मेरे मन की सारी बातें कह दी हैं....उस कविता का एक अंश छाप रही हूँ...

यह धरती कितना देती है...

मैंने छुटपन में छिप कर पैसे बोए थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेंड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल फल कर, मैं मोटा सेठ बनूँगा.?
पर, बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने एक न पैसा उगला—
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हे गए
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल कत्पना के अपलक पाँवड़े बिछा कर !
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोए थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था.!

आज भी उन चार रुपयों को लेकर दुखी होती हूँ....जो मिट्टी में मिल गए...।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

वेलेंटाइन डे और शकुन्तला

रोने से नहीं लड़ने से बनती है बात

शकुन्तला देश की कुछ पहली प्रेमिकाओँ में है...उसके पहले उर्वशी और दमयंती को भी रखा जा सकता है। आज मैं यहाँ शकुन्तला के पत्नी या भार्या संबंधी विचारों को रख रही हूँ जो उसने दुष्यंत के दरबार में न पहचाने जाने पर कहे।

न पहचाने जाने पर शकुंतला लज्जा और दुख से एकदम भूमि में गड़ गई। लेकिन वह चुप हो जानेवाली स्त्री नहीं थी। उसने दुष्यंत को स्त्री के महत्व पर एक पूरा लेक्चर दे डाला। शकुंतला ने भरे दरबार में कहा

सम्राट अब तुम अपने को अकेला मानते हो, क्या तुम्हें हृदय में रहनेवाले उस पुराण मुलि काम का स्मरण नहीं रहा जो सबके पाप कर्म को जानता है। मैं स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ...यह जानकर तुम मुझ पतिव्रता का अपमान न करो। पूजा की पात्र पत्नी का सम्मान न करके उलटे तुम उसको सभा में अपमानित करते हो। यह कदापि उचित नहीं है। मैं अरण्य रोदन नहीं कर रही। क्या तुम मेरी बात नही सुन रहे।

यदि तुम मुझे स्वीकार न करोगे तो हे दुष्यंत तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जाएँगे....

शकुंतला की बात पर दुष्यंत ने उसे ,उसकी माँ मेनका और पिता विश्वामित्र को जम कर गालियाँ दी लेकिन शकुन्तला ने उसे मुँह तोड़ उत्तर दिया।

तुम मेरी भूल का तिनका देखते हो अपनी गलती का ताड़ नहीं दिखाई देता।
राजन पति ही पत्नी के द्वारा स्वयं पुत्र रूप में जन्म लेता है....यही भार्या का भार्यात्व है। भार्या मनुष्य का आधा भाग है....भार्या श्रेष्ठतम सखा है....भार्या त्रिगर्त का मूल है...भार्या के साथ ही गृहमेधी लोग क्रियावान होते हैं। जो भार्यावान हैं उन्हीं के जीवन में आमोद प्रमोद है....प्रिय वादिनी भार्या एकांत में मित्र, दुख में माताऔर धर्म कार्यों में पिता होती है....यदि साथ में स्त्री हो तो मार्गस्थ मनुष्य को जंगल में भी विश्राम मिलता है...
हे दुष्यंत इस कारण विवाह उत्तम धर्म है।

अपने पुत्र की माता अर्थात निज भार्या को माता के समान आदर दें...भार्या से उत्पन्न पुत्र दर्पण में प्रतिबिंबित आत्मा के समान है जिसे देखने से सुख मिलता है। स्त्रियाँ संतति के जन्म का सनातन और पवित्र क्षेत्र हैं...ऋषियों की भी क्या शक्ति है जो स्त्री के बिना संतान उत्पन्न कर सकें...

यहाँ मैं आज की तमाम शकुन्तलाओं से केवल यह कहना चाहूँगी कि यदि उनके दुष्यंत भूलने नाम की बीमारी के शिकार हों तो उन्हें ठीक से सबक दें। चुप हो कर सुबकने-रोने और अकेले मरने से बात न तब बनी थी न आज बननी. है......दरबार निकलते समय शकुन्तला के स्वाभिमान से भरे ये वचन याद रखने लायक हैं...
हे दुष्यंत यदि तुम्हें झूठ ही से प्रेम है तो मैं जाती हूँ.....तुम्हारे जैसे झूठे के साथ मेरा कोई मेल नहीं...और यह याद रखना कि तुम्हारे बिना बी मेरा यह पुत्र इस पृथ्वी का पालन करेगा.....चक्रवर्ती बनेगा।
हार कर दुष्यंत को शकुन्तला और उसके बेटे को अपना ही पड़ा और अंत अच्छा रहा...आप भी अच्छे अंत के लिए प्रेम करें...लेकिन बात बिगड़ जाने पर हिम्मत न हारे....दुष्यंत को भागने और बचने का मौका न दें...