रविवार, 5 अप्रैल 2009

तब तो हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है मसिजीवी जी

प्रिय मसिजीवी जी

आपकी अनाम निलोफर के मैले तर्कों पर सफाई नुमा पोस्ट देखी। आपने माँ बाप द्वारा बच्चों के लालन पालन में किए गए कार्य को मैला कमाने से तुलना की है -

“ अपने बच्‍चे के पाखाना साफ करने से बचने वाली... बच सकने वाली मॉं कहॉं पाई जाती है ? कौन सा बच्‍चा कभी अपने पाखाने से खेलने का सत्‍कर्म नहीं कर चुका होता? ”

आपकी तुलनात्मक मेधा को सलाम करने का मन है। सलाम करती हूँ। किसी के पास ऐसे धुरंधर तर्क का क्या उत्तर हो सकता है। आपके कथन से तो भारत की सब सामाजिक बुराई एक झटके में छू मंतर। और जो थी वह महज वहम थी। क्योंकि मामला बचकाना है अरे गू साफ करना भी कोई समस्या है। तभी तो आप ताव से कह पाते हैं-

“ हमने भी अपने बच्‍चों का मैला कमाया है... आप चाहें तो कहें हमें भंगी/चमार ”

लेकिन भाई बात इतनी सहज नहीं है जितनी सहजता से आप ने कह दी है भाई। मेरा एक सवाल है। यह कहाँ तक उचित है कि आप या कोई निलोफर पहले किसी को भंगी, चमार कह देंगे और जब उस पर जब कोई आपत्ति करेगा तो आप कह देंगे कि हम सब अपने घर का पाखाना साफ करते हैं तो हम सभी भंगी हैं( मैं इन शब्दों को प्रयोग के लिए माफी चाहती हूँ....)। फिर कोई किसी को चमार या मोची या कसाई या नाई या धोबी कह देगा और आप उसकी सफाई में कह देंगे कि हम सभी जूते पालिश करते हैं मीट मछली के लिए कभी कभार चाकू भी उठा लेते हैं, अपने बाल दाढ़ी भी बना लेते हैं, घर में कपड़े भी साफ कर लेते हैं। तो हम सब हुए ना चमार, मोची कसाई, नाई, धोबी। कितना सहज सामान्य और निर्मल तर्क है।

मैं नहीं कह सकती कि आपने इन सामाजिक पेशे से जुड़े शब्दों में समाए अपमान का कितना अंश सहा झेला है। न झेला हो तो ही सही है और आप कभी न झेलें यही दुआ करूँगी।

चमार होना देश में कितना बड़ा अभिशाप है यदि आप इस बात को समझते तो शायद उस अपमान के पेशे की तुलना घर के भीतर सिमटी कार्रवाई से न कर बैठते। अपने बच्चे का मैला साफ करना और सामाजिक रूप से भंगी होना किस तर्क से एक समान है, अपने गुह से खेलना और सिर पर दूसरों का मैला ढोना आपके लिए यदि बराबर हो तो कल आपके घर मैला भेजने का प्रबंध किया जाए या आपको दिल्ली नगर निगम में मैला कमाने का काम दिलाया जाए या आप स्वयं जा कर जुट जाएँ मैला कमाने । मैले से खेल कर एक बार अपना मन पवित्र कर लें। बहुत दिन हो गया होगा घर के बाहर के मैले से खेले। क्या आपको याद है कि कभी आपने रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर,बस अड्डे या किसी पड़ोसी के यहाँ जाकर उसका संडास साफ किया हो। उसका गू उठाया हो। उसके शौच घर को साफ सुथरा किया हो। क्या आपने कभी इस या इस तरह के किसी भी पेशे में सिर झुकाया है। हाथ लगाया है। किसी का गुह हटाना बहुत बड़ी बात है यहाँ तो लोग अपने घर के बड़े बूढ़ो तक को किसी नर्स किसी नौकर के हाथों लगा देते हैं।

रही बात गीतकार लेखक कवि स्वर्गीय नरेन्द्र शर्मा की पत्नी के नाम के आगे शर्मा लिखने की तो वे क्या लिखें से पहले मेरा प्रश्न है कि वे क्यों न लिखें शर्मा। आप अपने नाम के आगे क्या लिख कर पैसा कमाते हैं। आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ...नाई,चौहान हैं या सिंह दुबे या यादव इसमें लज्जित होनेवाली कौन सी बात है।( भंगी लिखना या कहाना सचमें आपके सिवा शायद ही कोई और पसंद करे)। क्या अपने जाति गोत्र को छिपाना भी किसी सामाजिक क्रांति का हिस्सा है। क्या इस महान देश में अपने जाति गोत्र धर्म क्षेत्र आदि को कभी छिपा सकते हैं। मेरा मानना है कि नहीं यह सम्भव नहीं है। जातिवादी, धर्मवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी होने और अपने जाति धर्म, भाषा पर अभिमान करना दोनों दो बाते हैं। आप लावन्या जी को केवल इस लिए नहीं घेर सकते कि वे अपनी माँ के प्रति कहे गए शब्दों से अपमानित पा रही थीं। यदि लावण्या जी को अपने विद्वान पिता और गरिमा मई माँ के प्रति सम्मान की भावना है तो क्या यह कोई अनैतिक बात है। क्या यदि उनमें उच्चकुलता का बोध है तो आप उन पर अपने मन का मैला फेंक कर मलिन करेंगे। उनके ब्राह्मणत्व को छीन कर उन्हें बिना हरिजन या चमार बनाए आप नहीं शांत होंगे। आपकी बातों से कुछ अलग तरह की गंध आ रही है।

कम शब्दों में कहूँ तो आपके तर्क कुछ ऐसे हैं कि पहले आप या कोई निलोफर किसी को वेश्या कह दें फिर बाद में सफाई में आप यह कहें कि हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है क्योंकि संतान पैदा करने के लिए जो काम वेश्या करती है वही काम स्त्री,पत्नी, माँ को भी करना पड़ता है। आप क्या इस बात की छूट देंगे कि कोई आपके परिजनों को आपकी माँ आपकी पत्नी को सामाजिक रूप से ऐसा कुछ कहे। क्या आप अपने घर में स्वजनों के लिए ऐसा ही साधारण संबोधन प्रयोग करते हैं। क्या आप इन्हीं तर्कों के आधार पर अपनी पत्नी, माँ या बहन को वेश्या कहते हैं। यदि कहते या समझते हों तो कृपया ऐसा न करें। मुझे आपसे यह उम्मीद थी और है भी कि कम से कम माँ के प्रति किसी की भी भावनाओं पर प्रहार कर सुख पाने की कोशिश न करेंगे। माँ तो माँ ही होती है। चाहे आपकी हो मेरी या लावण्या जी की।

मैं यह भी नहीं समझ पा रही कि इस पूरे मामले में चोखेरबाली समुदाय चुप क्यों है। और आप इतनी बेताबी से शर्मा को शर्मा कहने का विरोध और भंगी को भंगी कहने को बेताब क्यों हैं। आप के मन में इन दोनों तबकों के प्रति कोई और भावना तो नहीं क्योंकि आपके लेख में पालिमिक्स कम प्रतिशोध अधिक है ऐसा न होता तो आप और लावन्या जी की माँ का अनादर करने वाले माफी माँग कर किसी शुभ काम में लग जाते। लेकिन आप तो लगातार मसि बहाने में लगे हैं। आप पर तो बड़े भाइयों के कहने का भी शायद ही कुछ असर नहीं है। समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। जो भूल स्वीकारने में भरोसा नहीं रखते।
सधिक्कार
आपकी

आभा

नोट- कुंदा वासनिक पर लावन्या जी का शानदार लेख अंतर्जाल से नदारद है। साथ ही उनकी निलोफर के विषाक्त मन को समझने वाला लेख भी। हम उसके लिंक नहीं दे रहे हैं।