बुधवार, 30 सितंबर 2009

भविष्य का स्वागत करती हूँ

घर में अकेली हूँ। बच्चे पापा के साथ घूमने गए हैं। मैं न गई। अधकपारी से सिऱ फटा जा रहा है। चाय चढ़ा कर भूल गई। जब जलने की महंक आई तो दौड़ कर किचेन में गई। सब कुछ जल चुका था। चूल्हा बुझा कर लौट आई। चाय पीने का मन है लेकिन बनाने का मन नहीं है। सोच रही हूँ कोई देवरानी जेठानी या सास या बहन भाई साथ में होते तो चाय कब की मिल चुकी होती । शाम हो रही है। अंधेरा शहरों में वैसा गाढ़ा कभी नहीं हो पाता जैसा गाँवों में होता है। यहाँ सूरज के उगने और डूबने का पता ही नहीं चलता। शाम होते ही बत्तियाँ जल पड़ती हैं। बत्तियाँ जला कर बैठी हूँ। कुछ करने का मन है।

एक थका सा उपन्यास पढ़ रही हूँ लेकिन उसकी कहानी ही नहीं खिसक रही है। नहीं लगता कि यह किताब मुझसे पढ़ी जाएगी। आधी अधूरी पढ़ कर छोड़ी गई किताबों में एक किताब और जुड़ने जा रही है। सोच रही हूँ बाहर निकलूँ तो शायद अच्छा लगे। लेकिन अभी घंटी बजेगी। अभी बच्चे लौट आएँगे। अब तो उनके आने के बाद ही कुछ कर पाउँगी। लेकिन उनके आते ही तो धमा चौकड़ी शुरू हो जाएगी। जीवन का मीठा खेल फिर शुरू हो जाएगा। कई पैरों के सीढ़ियों पर चढ़ने की आवाज आ रही है। बेटी कितने जोर से काँय-काँय कर रही है। निर्भय निरदुंद....मैं उनके घंटी बजाने का इंतजार नहीं कर सकती। बच्चे बाहर दरवाजे की तरफ आ रहे हों तो रुका नहीं जा सकता। चलती हूँ...भविष्य का स्वागत करती हूँ।