गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

उत्सव बना झमेला


खुशी अफसोस में बदल गई

मेरे छोटे भाई की शादी तय हो गई थी। 12 फरवरी को शादी और 14 को रिसेप्सन ओ भी बिना लड़की देखे। कि शादी ही तो करनी है। लड़की से करनी है देखना क्या । मुख्य आधार था लड़की का एक सुघड़ भाभी से तुलना। मेरे भाई ने कहा जब लड़की उन भाभी की तरह है तो मैं कर लूँगा। लड़की एमएससी कर के रिसर्च कर रही है और हायर स्टडी के लिए अमेरिका जा रही है। लड़की फरवरी में अमेरिका जा रही है। दोनों की आपस में बात भी शुरू हो गई थी। जिसमें मेरे भाई ने कहा कि तुम अपना केरियर देखो। फिर भी माँ ने कहा कि तुम लड़की एक बार देख लो। शादी के पहले। शायद माँ के मन ने कुछ भाप लिया था। लड़की अपने भाई और पिता के साथ नोयडा आई और मेरा भाई हैदराबाद से आया अपनी भावी पत्नी को देखने।

मुझे छोड़ कर सभी थे। लेकिन जब मेरे भाई ने लड़की को देखा तो जिन भाभी से उस लड़की की तुलना की गई थी वो उसमें दूर-दूर तक नहीं दिखीं। इतना ही नहीं लड़की के कपड़े अस्त-व्यस्त थे साफ नहीं थे। नए नहीं थे। कुछ भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वे लोग लड़की को दिखाने आए हैं। यही नहीं लड़की समेत वे सारे लोग बड़े रिजिड और अड़ियल दिखे। भाई फिर खूब उत्साहित था। सज-धज कर तैयार था आखिर उस लड़की से मिलने जा रहा था जो उसके सपनों से जुड़ रही थी।

मिल कर वह बात-व्यवहार और रंग-ढंग से कपड़े-लत्ते से दुखी हुआ। फिर भी भैया के कहने पर वह शादी के लिए मान गया। कि लड़की को देख कर मना नहीं करते। बात सही दिशा में थोड़ी देर चली तो मामला वेन्यू पर आ कर फिर अटक गया। भाई चाहता था कि शादी इलाहाबाद से हो। लेकिन वे लोग लखनऊ से शादी करने पर अड़े रहे। फिर भी मेरे बड़े भाई ने कहा कि सोच लीजिए अगर इलाहाबाद से हो तो अच्छा रहेगा। हम फिर बात कर लेंगे। अगले दिन लड़की के भाई का फोन आया कि शादी लखनऊ से ही होगी और रिसेप्सन भी यहीं से होगा। उनका यह रवैया भाई को ठीक न लगा। हमारी ओर से इलाहाबाद में शादी करने के अलावा और कोई माँग न थी। इस पर वे लोग असहज रूप से पेश आ रहे थे। जिस बात को बड़ी प्यार से मनवाया जा सकता था उस पर वे लोग कुछ ढ़ीठ की तरह डट गए।

और इस के बाद भाई ने शादी से इनकार कर दिया। माँ अभी भी यह चाहती है कि यही शादी हो जाए। उधर से लड़की मेरे भाई को फोन करने लगी। पूरे प्रकरण से परेशान भाई में पहले तो फोन लेने की हिम्मत न रही। फिर उसने बात किया तो लड़की ने पूछा कि क्या गलती हुई। मेरे भाई ने कहा कि मेरी और आपकी शादी लगता है नहीं लिखी है। आपको और अच्छे जीवन साथी मिलेंगे। यह मेरी दुआ है।

अपने इस निर्णय से भाई और मेरा पूरा घर दुखी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी लड़की को देखने के बाद किसी और कारण से शादी से न करना पड़ा है। हम यह सोच कर परेशान हैं कि आखिर लड़की वालों को कैसा लग रहा होगा।

बाद में सोचने समझने पर समझ में आया कि सब गड़बड़ी हड़बड़ी के कारण हुई और परिणाम यह निकला कि एक लड़की और एक लड़का बे वजह परेशान हो रहे हैं। दोनों अनायास ही एक दूसरे की नजर से गिर गए हैं। वे लोग अभी भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि शादी क्यों टूटी। और इधर सो कोई उन्हें साफ-साफ यह नहीं कह पा रहा कि उनके अड़ियल बर्ताव से मामला बिगड़ रहा है। जब मैंने भाई से कहा कि तुम्हें लखनऊ बारात लेकर चलने में क्या दिक्कत है। तो वह बोला कि दिक्कत कुछ भी नहीं। बस उनके बोल बचन अच्छे नहीं लगे।

भाई की दुविधा यह है कि जो लड़की फोटो में बहुत अच्छी दिख रही थी वह सामने से इतनी उलट क्यों है। जो ल़ड़की फोन पर इतनी सहज और मीठी थी वह सामने से इतनी उलझी और कठोर क्यों थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके यहाँ कोई आपसी संकट रहा हो। जिसके कारण लड़की को कोई उलझन रही हो। जो भी रहा हो। खामखा का एक संभावित उत्सव झमेले में बदल गया। 12 और 14 फरवरी 2010 मेरे भाई और उस लड़की के लिए एक मनहूस तारीख की तरह दर्ज हो गए हैं। अब मैंने कहा था तैने कहा था करने से क्या होगा।दोनों पक्षो की फजीहत हो रही है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

मानस परनानी की गोद में




खोना पाना जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है इसमें जहाँ हम समय के साथ पुराने लोगों को खोते जाते हैं वहीं नए लोगों को पाते जाते हैं । पाने की खुशी की तरह खोने का दुख भी स्वभाविक है ।

कल 14 .12.09 की शाम मेरी नानी नही रहीं वह 87 वर्ष की थीं। मेरी मौसी ने फोन पर बताया कि उनका खाना पीना कम होता जा रहा था तभी उन्हें लगा इस साल की ठंड पार करना मेरी माँ के लिए बहुत मुश्किल है, वही हुआ भी ।

अपनों के बारे में बताने को बहुत बहुत बातें होती हैं जो कभी खत्म नहीं होतीं ।
अपनी नानी के बारे में कह सकती हूँ कि बिना लाग लपेट के सीधी बात कहतीं थीं।
चौकस निगाह से किसी नए को पढ़तीं थीं। हम सब को ठूँस ठूँस कर खिलाती और खुद भी खाने पीने का ख्याल रखतीं और कहतीं कि रोटी भात ज्यादा ज्यादा नहीं खाना चाहिए । दूध- दही, फल -सब्जी ज्यादा खाना चाहिए जिससे दिमाग तेज रहता है और शरीर चुस्त । जिसका नतीजा नानी में दिखता भी था।

अपनी नानी जी के बारे में यह भी बताना चाहूँगी कि वे मेरी माँ की कहनेभर को सौतेली माँ थीं करने भर में अपनी ही माँ सी प्यारी........।

जब मेरी माँ दो साल की थीं और मेरे मामा पाँच साल के तब मेरी नानी उनको माँ के रूप में मिलीं। माँ बताती रहीं है कि लोगों के बताने, बहकाने पर भी नई माँ में सौतेला पन जैसा कभी कुछ नहीं दिखा। नानी ने माँ को इतना प्यार किया कि हमेशा उन्हें लेकर ही मायके गईं। जब वे पहली बार विदा होकर मायके जाने लगीं तो भी अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर ही गईं। हालाकि माँ की ताई जी ने उनसे तब कहा था कि बच्चों को लेकर मायके मत जाओ । यानि मेरे पाँच वर्ष के मामा और 2 साल की मेरी माँ
को। दो बच्चे पहली ही विदाई में अच्छा नही लगेगा । तब मेरी नानी जी ने कहा था कि ये मेरे बच्चे हैं मैं लेकर ही जाऊँगी । मेरी माँ भी नानी से चिपक कर रो रही थीं । नानी ने उन्हें गोद में उठा लिया और तैयार कर अपने साथ ले गईं ।

मेरी नानी ने मेरी माँ और मामा को पाल पोस कर बड़ा किया और शादी की । मेरे मामा इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर एच एस सी एल में बतौर इंजीनियर बहाल हुए, मेरी माँ विदा होकर मेरे पिता के पास ससुराल भेज दी गई ।

तब मेरे पिता कोलकाता के सेंटजेवीयर्स में बी एसी के छात्र थे .। मेरे पिता का कारोबार ठीक ठाक रहा तो नानी अपनी बेटी यानि मेरी माँ के भाग्य पर इतरातीं और जब कभी बुरे दिन आए नानी ने मेरे पिता को शंकर जी भोले बाबा की उपाधियाँ भी दी । आखिर मेरी नानी जी को अपनी बेटी की खुशी से ही लेना देना था ।

जब मेरी माँ और मामा जी को बच्चे हुए तब नानी ने अपनी जिम्मेवारियों से मुक्त हो अपना परिवार किया । जिसमें मेरी एक मौसी और दो मामाओं का जन्म हुआ। मेरी मौसी दिल्ली के कमला विहार महाविद्यालय मे एसोसिएट प्रोफेसर हैं। मेरे दूसरे मामा एक्पोर्ट के व्यापार में हैं और तीसरे मामा डॉक्टर हैं ।

मेरे नाना स्वर्गीय राज वल्लभ ओझा जी 14 साल पहले ही 16 जुलाई 1994 को संसार से विदा ले चुके हैं । वे पत्रकार थे और उन्होंने फिरोज गाँधी के साथ काम किया था। अपनी पत्रकारिता और अपनी हिन्दी से अटूट प्यार करते थे । उन्हें विश्व भ्रमण का शौक था और नाना ने देश दुनियाँ का भ्रमण किया भी । अन्त के दिनों में रशियन ऐमबेसी में रहे। हिन्दी के प्रति प्रेम के चलते ही नानाजी को श्रीमती इन्दिरा गाँधी जी द्दारा भेंट में साकेत प्रेस इन्क्लेव में एक फ्लैट मिला। मेरे नाना जी की तीन-चार किताबें भी प्रकाशित हुईं जिनमें एक है गेटे के देश में और दूसरी है बदलते दृश्य । बाकी के नाम याद नहीं कर पा रही हूँ।

मेरे नाना-नानी जी की ढेरों बातें मेरी समृति में जुड़ी है । उनमें एक है जब मैं मानस के होने के बाद नानी का आशीर्वाद लेने सपरिवार उनके पास गई। बात 1996 की है। मेरा बेटा मानस तब चार-पाँच महीने का ही था। नानी ने लपक कर उसे गोंद में ले लिया और जब तक मैं रही उसे उन्होंने अपने अंक से उतारा नहीं। मानस के साथ खेलतीं दुलरातीं रहीं । कुछ तस्बीरें मौंसी ने खींच ली थीं जो आज भी मेरे पास हैं । आप उपर की तस्वीर में 13 साल पहले मानस को उसकी अपनी परनानी की गोद में देख सकते हैं। उस दिन का वह पल आज मेरे लिए अमूल्य नीधि हैं।

मै अपनी ही उलझन में आज नानी की अन्त्येष्ठि में न जा सकी। मेरी नानी आज शाम को पंच तत्व में लीन हो गईं हैं। मैं उनसे दूर रह कर उनको अपनी श्रद्धांजलि कैसे दूँ सो नानी के बारे में अपनी बातें लिख कर अपने भाव प्रकट कर रही हूँ। भगवान मेरी प्यारी नानी की आत्मा को शांति दें।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

कोई बड़े कुल में जन्म लेने भर से बड़ा नहीं होता।



कितनी कितनी बातें जो आप सब से बांटना चाहती थी पर

रोजमर्रा की व्यस्तता के बीच बातें आईं और गईं, ऐसा मेरे साथ ही नहीं
सभी के साथ होता है ।बेचैनी होती है जब हम चाह कर भी अपनी बात कह नहीं पाते, पर
खुशी होती है तब जब मेरी बात कोई और कह दे। मैं या हम और बेफिक्र हो जाते हैं
कि चलो लोगों तक बात पहुँच गई । अब फिर फिर एक ही बात क्यों । इस उहा-पोह में मैंने देखा अरे आज महीने का आखिरी दिन और एक पोस्ट, बस यही वजह लिख रही हूँ । हालाकि इस बात को मैं ठीक से समझती हूँ कि जहाँ चाह है वहा राह है । अरे वह पीने वाली गरमा गरम चाह नहीं ।
इसी चाह में मैं हरिवंश राय बच्चन की 102 वी जयन्ती के अवसर पर भारती विद्या भवन (चर्नी रोड)पहुँची । वहाँ सभागार में पहुँचते ही सभी दर्शको को नवनीत का बच्चन विशेषांक बांटा गया । दस पन्द्रह मिनट समारोह के इन्तजार के बीच मैंने नवनीत की प्रति उलट पुलट देखी, सोलहवें पेज पर फोटो में हरिवंश राय बच्चन, सुमित्रा नन्दन पंत और पं.नरेद्र शर्मा जी दिखे । नरेद्र जी को देख कर लावण्या जी याद आती रहीं ....
कार्यक्रम शुरू हुआ अमिताभ सपरिवार मंच पर थे जिसमें जया जी, अजिताभ, अभिषेक, ऐश्वर्या, श्वेता, नम्रता, नैना सहित उनकी पारिवारिक मित्र पुष्पा भरती जी भी थीं।
अमिताभ जी ने बीजू शाह के संगीत संगत में हरिवंश जी की कविताओं का पाठ किया। नाच घर और बुद्ध कविता जो पहले भी पढ़ चुकी थी अमिताभ जी से सुनकर फिर प्रिय कर लगी। जया और अमिताभ ने अपना गान मुझे दे दो साथ साथ पढ़ा । फिर बारी बारी से बच्चन परिवार के सभी बच्चों ने छोटी छोटी कविताएं पढ़ीं । जो बच्चन जी ने इन बच्चों के लिए ही लिखी थी।

सभी श्रोता मंत्र मुग्ध सुन रहे थे जिसमें पुष्पा जी ने कुछ संस्मरण सुनाए। साथ ही पुष्पा जी ने यह भी बताया कि वह कक्षा 2 से 12वीं तक अपने स्कूल में हरिवंश राय बच्चन बन कर काव्य पाठ करती थीं और हर बार उन्हें फस्ट प्राइज मिलती कभी सेकेंड नहीं मिली ।पुष्पा जी ने हरिवंश राय बच्चन के जैसे बाने को पाने की जद्दोजहदो को भी बयान किया ।


बच्चन परिवार को मंच पर बैठे देख रही थी, सुन रही थी, सुनते हुए यह सोच रही थी, कि हरिवंश राय बच्चन खुद को कायस्थ (शूद्र?) कहते हैं ।यह तो उनकी बात है, पर सच तो यह लगता है कि वह ही नहीं उनका पूरा कुनबा अपनी करनी से कर्म श्रेष्ठ -कुल श्रेष्ठ है । कर्म ही जाति है

हाँ सभी इन्हें चुपचाप देखते सुनते रहे । सभी के लिए यह सुखद होगा कि सपरिवार एक साथ दिखें । सुख किसे अच्छा नहीं , बच्चन परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ संस्कार भी दिखा । जहाँ अपने बाबू जी को इस तरह से याद किया गया ।और हम भी सहभागी रहे...मेरा मन हुआ इस सुखद शाम को आप सब से बाँटू.. ।बाप तो, बेटा बाप रे बाप, उनका भी बेटा अभिषेक -बंदे ने उन तीन घंटो में ही अपने परिवार और बड़ो के साथ अपने आदर को छोटी छोटी हरकतों से बताया । तेजी जी , जया जी ने परिवार को कुनबा बना कर दिखाया है । अब बारी विश्व सुन्दरी ऐश्वर्या की जो अपने परिवार को और किस ऊँचे मुकाम तक ले जाती हैं। उम्मीद है बड़े कलाकार का बड़ा परिवार ऐसे ही बड़ा बना रहे..........

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

ब्लॉग की हिंदी भविष्य की हिंदी हो के रहेगी


इलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन में बहुत कुछ पाया

इलाहाबाद ब्लॉगिंग संगोष्ठी में जाने से पहले ही हमारी बनारस की घरेलू यात्रा तय हुई थी, यात्रा सुनिश्चित होना ही था कारण यहाँ मुम्बई मे दीवाली की पंद्रह दिन की बच्चों की छुट्टियाँ, फिर उधर यूपी में न सर्दी होगी न गर्मी। बच्चे सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित की स्थिति बन गई । तभी पता चला कि इलाहाबाद में ब्लॉगिंग संगोष्ठी भी उन्हीं दिनों तय की गई है । कुल मिला कर मुझे निमंत्रण मेल मिला और मैं संगोष्ठी की भागीदार बनीं।
मुझे खुशी इस बात की थी कि क्या अच्छा मौसम है, बच्चों की छुट्टी और संगोष्ठी साथ-सा। लेकिन इतना तो तय है यदि छुट्टी न होती तो मैं इस ब्लॉगिंग संगोष्ठी में चाह कर भी न होती । खैर बुलाया तो बुलाया, गई तो गई ।

अब बात मुद्दे की । इलाबाद पहुँचने के पहले मैने मेल में मिले आठ मुद्दों में से एक
आखिरी या आठवाँ अभिव्यति की उन्मुक्तता पर बोलना तय किया। और बिंदास होकर अपने प्रयाग राज में दो दिनों के लिए पैर जमाया ताकि जम कर अपनी बात कहूँ और यह मौका न चूकने के जोश के साथ के साथ बातों को रखूँ।
लेकिन इलाहाबाद पहुँच कर बोलना पड़ा ब्लॉग पर बहस के मुद्दे और भाषा । इस अचानक तय मुद्दे पर बरबस बोल गई अई हो दादा...क्या करूँ । फिर जवाब भी खुद ब खुद मिला करूँ क्या डटूँ बहस के मुद्दे पर। जो जँचे
लिख डालूँ
पढ़ डालूँ या
मुझे जो लगा किया अब जिसे जो लगे सो करे
पढ़े या कहे धत्त जाने दे ...
फिर वहाँ ऐसा भी माहौल बनने लगा जैसे अक्सर एक दूसरे की पोस्ट पर बेवजह विपरीत माहौल बन जाता है, पर जो कहना था सो कहा।

मैंने अपना वक्तव्य इन शव्दो मे रखा
मित्रों अभिव्यति की स्वतन्त्रता राजा राम के समय से है तभी किसी एक के कहने पर जनक-दुलारी सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी, सो मुझे भी अपनी बात कहने दें । बाद में टोका टाकी करें । और मुझे लगेगा कि उत्तर देना उचित है तो दूँगी वर्ना आप सब मुझे माफ करेगें, सचमुच सभी ब्लॉगर मित्रों ने धैर्य से सुना इसके लिए उनकी आभारी हूँ

ब्लॉग पर बहस के मुद्दे और भाषा

1-मेरा मानना है कि ब्लॉग बहस की दुनियाँ नही है,वास्तविकता यह है कि हिन्दी समाज में बहस एक सीरे से गायब है लोग बहस नहीं करते बल्कि अपने फैसले सुनाते हैं साथ ही इस अंदाज में पेश आते हैं कि मै महान तू नादान , मैं सही तू गलत। ऐसे माहौल में क्या किसी समाज में चाहे वह ब्लॉग ही क्यों न हो बहस कैसे हो पाएगी और जो बहस होगी भी वह एक तरफा होगी। पूर्वाग्रह से ग्रस्त होगी, और जो थोड़ी बहुत बहस है भी वह बेनामी ब्लॉगर्स की वजह से हमेशा एक गलत दिशा ले लेती है। यह छुपे हुए लोग अपनी दुश्मनियाँ अपनी खुन्नस निकालते हैं
2- मेरा मानना है कि अगर बहस करनी हो तो एक खास ब्लॉग बने, मुद्दे तय किए जाएँ मुद्दे सुझाए जाएँ फिर बहस एक मुकाम पर जाए ताकि ब्लॉग को एक खास पहचान मिले।
3-वैसे भी ब्लॉग अब पहचान का मोहताज नहीं इसका प्रमाण यह इतना बड़ा आयोजन ही है । लेकिन अफसोस है कि ब्लॉग पर बड़े से बड़ा मुद्दा पुराना और उबाऊ हो जाता है। लोग हर दिन नई बात ढ़ूँढते हैं । एक ही बात को लेकर चलना ब्लॉग का स्वभाव नहीं है।
4- ब्लॉग बोले तो बहता पानी । हर पल चढ़ाई गई पोस्ट किसी भी बहस को धूमिल करती जाती है ।
5- जो लोग बहस करते भी हैं वह बेसिकली सामने वाले ब्लॉगर के संहार और सामाजिक हत्या के प्रयास में लगे रहते हैं । न तो उनके यहाँ बहस की गुंजाइश है और न भाषा और कोई लोकतांत्रिक दबाव ही रहता है ।
6- ब्लॉग खेमेबाजी का शिकार होता दिख रहा है । यह गुटबाजी ब्लॉग भविष्य के लिए ठीक नहीं । यह खेमेबाजी बहसों को खत्म करने या गलत दिशा देने में अपनी खास भूमिका अदा करती है।
7- ब्लॉग के रूप को देखते हुए आप सभी समझ सकते हैं कि लिखने और खुद को उजागर करने कि ऐसी आजादी न कभी देखी-सुनी न ही पाई गई है। आप किसी भी मुद्दे को लिखने और प्रकाशित करने को स्वतन्त्र हैं। किसी भी भाषा, किसी भी शब्दावली में लिखने को आजाद हैं । और यही आजादी ब्लॉग जगत की भाषा को कभी कभी असंयत, गैरजिम्मेदार बना देती है । क्यों कि आप अपने ब्लॉग के लेखक, प्रकाशक और संपादक खुद होते हैं । इसलिए आप हम अपने संपादकीय अधिकारों का दुरूपयोग कर पाते हैं। जिसके चलते अच्छे-अच्छे मुद्दे में भी चौक चौबारे की अर्मयादित भाषा का बोल बाला हो जाता है.
8- इन सारी विसंगतियों के बावजूद ब्लॉग बहस का और अभिव्य़ति का सबसे बड़ा मंच बनेगा, बन भी रहा है। इस आधार पर कह सकती हूँ कि ब्लॉग का भविष्य बहुत अच्छा है। आज जो हिंदी ब्लॉगर्स की संख्या हजारों में है वो कल लाखों में और परसों करोड़ों में पहुँचेगी और ब्लॉगिंग हिन्दी भाषा और साहित्य को भी एक नया मुकाम देगी । साथ ही ब्लॉग की हिन्दी भविष्य की हिन्दी हो के रहेगी । अच्छी और सार्थक बहसें भी हो पाएँगी इसकी पूरी उम्मीद दिख रही है। बस इन्हीं शब्दों के साथ अपनी बात खत्म करती हूँ । मै हिन्दुस्तानी एकेडमी, महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविधालय, सिद्धार्थ त्रिपाठी, संतोष भदौरियाँ, अनूप शुक्ल, ज्ञान जी इन सब को धन्यवाद देती हूँ जिनकी वजह से मैं एक अदना ब्लॉगर अपने विचार यहाँ रख पाई और आप सब ब्लागर्स का भी जिन्होनें मुझे धैर्य से सुना, धन्यवाद।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

इलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन से क्या मिला



बहुत कुछ खोया बहुत कुछ पाया

यह अक्टूबर का महीना बड़ा अच्छा रहा। इसमें बहुत कुछ खोया बहुत कुछ पाया। खोया यह कि मुंबई के स्कूल रायन इंटर नेशनल में जज बना कर बुलाई गई। हालाकि अचानक खाँसी बुखार से तबियत खराब हो जाने के कारण न जा सकी। खोया यह भी कि मेरे एक कान की बाली कहीं यात्रा की तैयारियों में खो गई। जो एक बची है उसे देख -देख कर दुखी हो रही हूँ। वहीं पाया यह कि इलाहाबाद के ब्लॉगर सम्मेलन में न जाते-जाते पहुँच गई।

मेरा वहाँ पहुचना तो असम्भव था। न मैं बड़ी ब्लॉगर हूँ न लिक्खाड़। यह मेरा पहला ब्लॉगर मीट था जो मेरे लिए एक बड़ी घटना है। वहाँ जो कुछ बोल पाई बोल भी दिया। । उस भाषण में मुझे सबसे अधिक उलझन इस बात की है कि मैंने आयोजकों को किसी भी तरह का आभार वचन नहीं कहा। हालाकि ब्लॉगर बंधुओं ने धीरज से सुन कर मेरा हौसला बढ़ाया और प्रतीक चिह्न सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के कारण मुझे बाद में मिल पाया। मैं उनकी संतोष भदौरिया और अनूप शुक्ल की आभारी हूँ। जिनके चलते मुझे यह सुवसर मिला।

वहाँ कितने ऐसे लोगों से भेट मुलाकात हुई जिन्हें पिछले तीन सालों से ब्लॉग पर देखती- पढ़ती आ रही हूँ। मुझे बचपन से लोगों से मिलना अच्छा लगता रहा है । वह आदत गई नहीं है। सो लोगों से मिल कर खुश हूँ। खुश हूँ कि ज्ञान भाई, अनूप जी, अजित बडनेकर जी, प्रियंकर जी, अफलातून जी, रवी रतलामी जी, मसिजीवी, मनीषा समेत बहुत सारे प्रिय ब्लॉगरों से मिलना हुआ। मैं यहाँ जिनका नाम नहीं ले पा रही हूँ वे मान लें कि मैं उनसे मिल कर खुश हूँ।


इलाहाबाद के इसी सम्मेलन में अपने मुंबई के पड़ोसी युनूस भाई से मिलना अच्छा लगा। वहाँ सोचा था उनके साथ जा कर बतरस वाली ममता जी से मिल लूँगी। लेकिन यह न हो सका । ममता को उनके माता जी के निधन पर केवल फोन से सांत्वना दे पाई हूँ।


इलाहाबाद के इस अधिवेशन को मैं जीवन में कभी भी भूल न पाऊँगी। हालाकि मैं यह ठीक से जानती हूँ कि मैं उतनी प्रतिभाशाली नहीं जितने प्रतिभाशाली ब्लॉगर वहाँ जुटे थे। मुझे इस बात का भी मलाल है कि कई सारे प्रतिभाशाली ब्लॉगर वहाँ न पहुँच सके। वे भी आते तो सुनने और समझने का संयोग होता। लेकिन क्या यह संभव है कि कोई आयोजन बिना सवालों के घेरे में आए पूरा हो सके। यह तो रीति है। सामाजिक आयोजन तो अपनी जगह हैं। लोग तो बेटे-बेटियों के विवाह तक में बहुत सारे अपनों को बुलाना भूल जाते हैं।


इलाहाबाद में जो कुछ विचार मैंने व्यक्त किए उसे छाप कर आप सब को पढ़वाऊँगी।

बुधवार, 30 सितंबर 2009

भविष्य का स्वागत करती हूँ

घर में अकेली हूँ। बच्चे पापा के साथ घूमने गए हैं। मैं न गई। अधकपारी से सिऱ फटा जा रहा है। चाय चढ़ा कर भूल गई। जब जलने की महंक आई तो दौड़ कर किचेन में गई। सब कुछ जल चुका था। चूल्हा बुझा कर लौट आई। चाय पीने का मन है लेकिन बनाने का मन नहीं है। सोच रही हूँ कोई देवरानी जेठानी या सास या बहन भाई साथ में होते तो चाय कब की मिल चुकी होती । शाम हो रही है। अंधेरा शहरों में वैसा गाढ़ा कभी नहीं हो पाता जैसा गाँवों में होता है। यहाँ सूरज के उगने और डूबने का पता ही नहीं चलता। शाम होते ही बत्तियाँ जल पड़ती हैं। बत्तियाँ जला कर बैठी हूँ। कुछ करने का मन है।

एक थका सा उपन्यास पढ़ रही हूँ लेकिन उसकी कहानी ही नहीं खिसक रही है। नहीं लगता कि यह किताब मुझसे पढ़ी जाएगी। आधी अधूरी पढ़ कर छोड़ी गई किताबों में एक किताब और जुड़ने जा रही है। सोच रही हूँ बाहर निकलूँ तो शायद अच्छा लगे। लेकिन अभी घंटी बजेगी। अभी बच्चे लौट आएँगे। अब तो उनके आने के बाद ही कुछ कर पाउँगी। लेकिन उनके आते ही तो धमा चौकड़ी शुरू हो जाएगी। जीवन का मीठा खेल फिर शुरू हो जाएगा। कई पैरों के सीढ़ियों पर चढ़ने की आवाज आ रही है। बेटी कितने जोर से काँय-काँय कर रही है। निर्भय निरदुंद....मैं उनके घंटी बजाने का इंतजार नहीं कर सकती। बच्चे बाहर दरवाजे की तरफ आ रहे हों तो रुका नहीं जा सकता। चलती हूँ...भविष्य का स्वागत करती हूँ।

रविवार, 30 अगस्त 2009

सुनती हूँ यह सब डरी हुई

बहुत दिनों बाद कोई कविता छाप रही हूँ। कुछ मित्रों को सुनाया तो इस पर मिली-जुली प्रतिक्रिया आई। फिलहाल इसे कुछ और कविताओं के साथ जयपुर के एक अखबार डेली न्यूज में छपने के लिए भेज दिया है। उसके पहले यहाँ पढ़ें।

सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई

मैं बाँझ नही हूँ
नहीं हूँ कुलटा
कबीर की कुलबोरनी नहीं हूँ ।

न केशव की कमला हूँ
न ब्रहमा की ब्रह्माणी
न मंदिर की मूरत हूँ।

नहीं हूँ कमीनी, बदचलन छिनाल और रंडी
न पगली हूँ, न बावरी
न घर की छिपकली मरी हुई
फिर भी
मैं सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई।

नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है ....कौन है ......कौन है.....
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है मौन है मौन है।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

क्या आप ने भी आराम के लिए लगाया है झाड़ू की तीली से इंजेक्शन


आज अपनी बेटी भानी के साथ डॉक्टर डॉक्टर खेल रही थी कि अपना बचपन याद आ गया। हमारे पास बहुत सारे खिलौने होते थे लेकिन नहीं होता था तो एक डॉक्टर सेट। हम अपने खेल में इंजेक्शन की कमी को झाड़ू की खूब नुकीली तीली से पूरा करते थे। घर को बुहारने में खूब घीसी तीली हमारा इन्जेक्शन होती।

उस खेल में हम कभी-कभी सामने वाले पर अपना खुन्नस निकालते। सुई लगाने के बहाने हम किसी की बाँह पर कस कर चुभा देते। और खेल में रोगी बने लड़के या लड़की की आई आई आई आई.....सुनाई देती । डॉक्टर बना बंदा कहता अरे इतना क्यों रो रहे हो....हम तो आराम के लिए इंजेक्शन लगा रहे है । बस थोड़ी ही देर में सब ठीक हो जाएगा।

जब हम खुद डॉक्टर नहीं बने होते और मरीज के साथ गए होते और अपना बदला भी निकालना होता तो खेल खेल में डॉक्टर को इशारा करते या उसके कान में कहते । वह रोगी की बाँह में जम कर इंजेक्शन चुभाता। और कहता आराम के लिए लगा रहे हैं। अक्सर हैपी, मधु से कान मे बोलता कि शबनम को खूब जोर से इंजेक्शन लगाओ फिर शबनम दो तीन दिन खेलने न आ पाती.......एक बार मैंने भी पूनम के कहने पर मुन्नी को झाड़ू की सुई से पूरा आराम पहुँचाया था। उसकी बाँह से खून निकल आया था। वह जब न रोई तो मैंने उससे पूछा कि रो नहीं रही हो तो उसने कहा कि मेरे आराम के लिए सुई लगा रही हो तो क्यों रोऊँ.....तब उसकी बात पर मुझे रोना आ गया था।

ऐसे होता था हमारा डॉक्टर डॉक्टर का खेल, क्या आप भी ऐसे खेल खेले हैं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग, इस आजादी से बचाओ रे राम


बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग इस आजादी से बचाओ रे राम। कैसे आजादी के चक्कर में सारे जग के आँखों के तारे हो गए हैं बेचारे ।

बढ़ती महँगाई और तेज रफ्तार जिन्दगी की रेस में जी रही महानगरों की ज्यादातर आबादी यह तो सोच रही है कि उसे क्या कुछ पाना जैसे ढेरों पैसें, घर गाड़ी वो भी एक नही कई-कई, शोहरत, इज्जत। यह सब पाने की चाहत में, माता पिता को फुर्सत ही नहीं मिलती कि उन्होंने जो पाया है उसे संजो कर रखे, अपना अनमोल रतन, अपनी संतान, अपना बच्चा

जन्म लेते ही जिसे बाई को सुपुर्द कर दिया जाता है। इतना ही नहीं इसे अपनी शान की तरह देखा जा रहा है । और दावे से कहा जा रहा है कि हम गवार नहीं कि बच्चे की सूसू पाटी–लालन पालन में गुजार दें।

बात काफी हद तक सच भी लग सकती है कि घर बैठ कर डिप्रेशन का शिकार होने से अच्छा है काम करें । क्या घर डिप्रेशिव दिवारों से होता है या उस घर में रह रहे लोगों से ? अगर पति बाहर काम कर परेशान हो रहा है तो पत्नी घर पर नहीं थकती?
उलझन इस बात की है कि माँ बाप के जद्दो जहद का शिकार हो रहें हैं बच्चे जिनकी
कोई गलती नही है । भागा भागी की रफतार में, हम बड़े खुद तो मुकाम पाने की चाहत में जाग रहे हैं भाग रहे हैं, पर हमारे बच्चे जो कभी आँखों के तारे हुआ करते थे, अब बेचारे हो गए है, इनका दुर्भाग्य यह हैं कि दिन भर माँ नही मिलती क्यों कि वह घर पर होती ही नहीं। अपने लाल-लालनी की खुशियों को अपनी मेहनत से खरीद रही होती है बेचारी। और रात में भी अक्सर इसलिए नही मिलती की वह (माँ) भी थक चुकी होती है और अगली सुबह उसे भागना होता है खुशी की खरीदारी करने। पर अफसोस कि माँ बाप जब तक इस बात को समझे की कहाँ चूक हुई, वक्त हाथ से निकल चुका होता है और भगवान भरोसे हो जाती है इन बच्चों की जिन्दगी

रविवार, 2 अगस्त 2009

स्वतंत्रता पुकारती है, पर इससे बचाओ रे राम



अस्तित्व की स्वतन्त्रता किसे अच्छी नहीं लगती, हर कोई चाहता है कि उसे आजाद छोड़ दिया जाए, उड़ान भरने के लिए । पर ऐसी आजाद उड़ान क्या सही दिशा में पहुँच कर मुकाम तय करेगी, इसकी किसे खबर। यह बात मैं उनके लिए नहीं कर रही जो 18 की उम्र को पार कर चुके हैं बल्कि मै टीन एजर्स की बात कर रही हूँ, जिन्हें सही क्या है और गलत क्या है कुछ पता नहीं होता। इस उम्र में ज्यादा तर बच्चे आजादी चाहते हैं, वे चाहते हैं कि वो जो इच्छा जाहिर करे उसे घर वाले तत्काल पूरा करें, सवाल है क्या हर इच्छा पूर्ति सही है, क्या मां-बाप प्यार में अंधे हो कर अपने ही बच्चे या बच्ची के अस्तित्व को अधर में नहीं लटका देते। जहाँ वह न तो शान से जी सकता है और उसकी मुश्किल है कि मुँह चुरा कर जीना नहीं चाहता है या चाहती हैं ।


अपने ही घर की बात करूँ तो मेरा बेटा मानस जो कि 8वीं में पढ़ता है और घर आने जाने वाले, नातेदार सभी उसकी तारीफ करते कहते हैं कि मानस बहुत सहज सरल है, या मानस बड़ा अच्छा लड़का है, उसकी तारीफ सुन कर खुश होने के साथ ही मैं मन ही मन डर कर कह पड़ती हूँ, हे प्रभो इस जीवन में कुछ देना या न देना दो अच्छे बच्चों की मां जरूर बने रहने देना, पता नहीं भगवान मेरी सुन रहे हैं कि नहीं यह तो समय ही बताएगा, करनी भरनी तो देखना ही होगा।


बनने बिगड़ने के सवाल का जवाब ढूढते हुए मैने आठवीं में पढ़ रहे अपने बेटे मानस से एक दिन पूछा कि जब तुम्हारी कोई माँग तत्काल पूरी नहीं की जाती तो तुम क्या सोचते हो, मानस ने कहा मेरा तो काम है माँग करना, सही या गलत समझना तुम्हारा फर्ज है, तुम मां हो ।

मैंने मानस से समझ लिया मां के फर्ज को ....प्यार दुलार के साथ अनुशासन ही सही दिशा है. ।अक्सर इस बात का भय सताता है कि जो सहज होता है वही जल्दी भटकता भी है.....। अगर बात करूँ पारिवारिक माहौल की तो यह भी तय है कि कोई भी घर- परिवार झगड़े और वैचारिक भेद से परे नहीं है । इस परिस्थित में यदि हम पति- पत्नि के बीच बहस होती है, वह चाहे पारिवारिक हो या कोई सामाजिक, राजनितीक मुद्दा, उस वक्त हम या कोई भी सिर्फ अपनी बात साबित करने पर तुले होते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि इस बहस का नतीजा हमारे बच्चों को क्या क्या सोचने को मजबूर करेगा । ऐसी ही बहस की स्थित में एक दिन मैनें बेटे मानस से पूछा बेटा, तुम मेरे और पापा के बारे क्या सोचते हो सिर्फ एक एक वाक्य लिख कर दो। बेटे ने लिखा मेरे पापा बहुत मजाकिया और थोड़े गुसैल आदमी है । मेरी माँ नेक ख्याल रखने वाली पारखी महिला है, हम दोनों के बारे में मानस की यह राय सुकून देती रही। साथ ही मानस से जब यह पूछा कि अगर तुमसे कहा जाए कि तुम अपने फैसले खुद लो तो उसने उत्तर दिया, फैसला लेना तो आता ही है पर उस फैसले से मुझे सही मुकाम मिलेगा या नहीं यह पता नहीं, ऐसे फैसले तो जिन्दगी को जुए की तरह खेलने जैसा होगा जहाँ हमें जीत भी मिल सकती है बरबादी भी।
मेरे कहने का मतलब सिर्फ यह है कि क्या 18 साल से कम उम्र के बच्चों को पूरी स्वतन्त्रता दे दी जाए? क्या हर बच्चा परिस्थित के हिसाब से सही को सही और गलत को गलत समझ सकता है ?

लगातार.......

सोमवार, 4 मई 2009

लोक सभा टीवी पर मेरी कविता

लिखने से कुछ बदलेगा क्या

बहुत पहले से लिखती रही । लिख लिख के भूलती रही। लेकिन छपने का सिलसिला बहुत देर से शुरू हुआ। न जाने कितनी कविताएँ इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। कुछ बदल तो रहा नहीं है। कुछ डायरियाँ मायके के घर में रह गईं। बाद में उन्हें जाकर ले आई। कभी-कभी मन में आता था कि लिखने से क्या होता है। एक दो क्या सब कविताओं को कहीं गुम कर दूँ। भूल जाऊँ कि लिखती भी हूँ। कभी-कभी ऐसा हुआ भी कि महीनों क्या सालों नहं लिखा। हल्दी तेल नोन राई के झंझट में ऐसी उलझी कि कविता क्या खुद को भी भूल सी गई। चाँद की रोशनी बहुत उबाऊ सी लगी। बच्चे और पति तक से उलझन होने लगीं। सुबहें फीकी और दोपहरे बोझ सी लगीं। जीवन फालतू सा लगा। निरुद्देश्य लगी एक एक सांस।

लेकिन अभी ऐसा नहीं लगता। कुछ कविताएँ ज्ञानोदय, वागर्थ और कथादेश में प्रकाशित हुई हैं तो कुछ और कविताएँ देशज सहित कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली हैं। लोगों ने पढ़ कर उत्साह बढ़ाया। लगा कि लिखा जा सकता है। मन में यह बात अभी भी बैठी है कि लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं। किंतु लिखती जा रही हूँ। लगातार ।

इसी बीच पिछले बुध को दिल्ली से बोधिसत्व के मित्र नागेश ओझा जी का फोन आया कि मेरी एक कविता लोक सभा टीवी पर पढ़ी गई है। स्त्रियों से जुड़े किसी परिसंवाद में कार्यक्रम की संचालिका ने मेरी स्त्रियाँ कविता जो कि ज्ञानोदय और कथादेश दोनों में प्रकाशित हुई है पढ़ी। इस खबर से मेरे पंख निकल आए। दिन भर उड़ती रही। लगा कि सच में लिखना सार्थक रहा। लेकिन वह सवाल अभी भी बना है कि क्या लिखने से दुनिया बदल जाएगी। क्या लोक सभा टीवी पर कविता पढ़े जाने से समाज पर कोई असर पड़ेगा। तमाम सवाल हैं. फिर भी लिखती रहूँगी। पढ़ें आप भी मेरी वह कविता जिसे लोक सभा टिवी पर पिछले बुधवार को पढ़ा गया है।

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी,
स्त्रियाँ गढ़ रही हैं गुरु
अपने दो चार बुझे अनबुझे शब्दों से
दे रही हैं ढ़ाढ़स,
बन रही हैं ढ़ाल
तमाम घरों के लिए बन कर ढ़ाल
खा रही हैं मार
सदियों से सह रही हैं मान और अपमान
घर और बाहर सब जगह।

फिर भी
खठकरेजी स्त्रियाँ बढ़ा रही हैं मर्यादा कुल की,
खुद की मर्यादा खो कर।

आगे निकलना तो दूर
जिंदगी की भागम भाग में
बराबरी तक के लिए
घिसटते हुए
दौड़ रही हैं पीछे-पीछे
सम्हालती हुई गर्भ को।

और उनको सम्हालने के लिए
कोई भी रुक नहीं रहा है
फिलहाल।

रविवार, 5 अप्रैल 2009

तब तो हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है मसिजीवी जी

प्रिय मसिजीवी जी

आपकी अनाम निलोफर के मैले तर्कों पर सफाई नुमा पोस्ट देखी। आपने माँ बाप द्वारा बच्चों के लालन पालन में किए गए कार्य को मैला कमाने से तुलना की है -

“ अपने बच्‍चे के पाखाना साफ करने से बचने वाली... बच सकने वाली मॉं कहॉं पाई जाती है ? कौन सा बच्‍चा कभी अपने पाखाने से खेलने का सत्‍कर्म नहीं कर चुका होता? ”

आपकी तुलनात्मक मेधा को सलाम करने का मन है। सलाम करती हूँ। किसी के पास ऐसे धुरंधर तर्क का क्या उत्तर हो सकता है। आपके कथन से तो भारत की सब सामाजिक बुराई एक झटके में छू मंतर। और जो थी वह महज वहम थी। क्योंकि मामला बचकाना है अरे गू साफ करना भी कोई समस्या है। तभी तो आप ताव से कह पाते हैं-

“ हमने भी अपने बच्‍चों का मैला कमाया है... आप चाहें तो कहें हमें भंगी/चमार ”

लेकिन भाई बात इतनी सहज नहीं है जितनी सहजता से आप ने कह दी है भाई। मेरा एक सवाल है। यह कहाँ तक उचित है कि आप या कोई निलोफर पहले किसी को भंगी, चमार कह देंगे और जब उस पर जब कोई आपत्ति करेगा तो आप कह देंगे कि हम सब अपने घर का पाखाना साफ करते हैं तो हम सभी भंगी हैं( मैं इन शब्दों को प्रयोग के लिए माफी चाहती हूँ....)। फिर कोई किसी को चमार या मोची या कसाई या नाई या धोबी कह देगा और आप उसकी सफाई में कह देंगे कि हम सभी जूते पालिश करते हैं मीट मछली के लिए कभी कभार चाकू भी उठा लेते हैं, अपने बाल दाढ़ी भी बना लेते हैं, घर में कपड़े भी साफ कर लेते हैं। तो हम सब हुए ना चमार, मोची कसाई, नाई, धोबी। कितना सहज सामान्य और निर्मल तर्क है।

मैं नहीं कह सकती कि आपने इन सामाजिक पेशे से जुड़े शब्दों में समाए अपमान का कितना अंश सहा झेला है। न झेला हो तो ही सही है और आप कभी न झेलें यही दुआ करूँगी।

चमार होना देश में कितना बड़ा अभिशाप है यदि आप इस बात को समझते तो शायद उस अपमान के पेशे की तुलना घर के भीतर सिमटी कार्रवाई से न कर बैठते। अपने बच्चे का मैला साफ करना और सामाजिक रूप से भंगी होना किस तर्क से एक समान है, अपने गुह से खेलना और सिर पर दूसरों का मैला ढोना आपके लिए यदि बराबर हो तो कल आपके घर मैला भेजने का प्रबंध किया जाए या आपको दिल्ली नगर निगम में मैला कमाने का काम दिलाया जाए या आप स्वयं जा कर जुट जाएँ मैला कमाने । मैले से खेल कर एक बार अपना मन पवित्र कर लें। बहुत दिन हो गया होगा घर के बाहर के मैले से खेले। क्या आपको याद है कि कभी आपने रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर,बस अड्डे या किसी पड़ोसी के यहाँ जाकर उसका संडास साफ किया हो। उसका गू उठाया हो। उसके शौच घर को साफ सुथरा किया हो। क्या आपने कभी इस या इस तरह के किसी भी पेशे में सिर झुकाया है। हाथ लगाया है। किसी का गुह हटाना बहुत बड़ी बात है यहाँ तो लोग अपने घर के बड़े बूढ़ो तक को किसी नर्स किसी नौकर के हाथों लगा देते हैं।

रही बात गीतकार लेखक कवि स्वर्गीय नरेन्द्र शर्मा की पत्नी के नाम के आगे शर्मा लिखने की तो वे क्या लिखें से पहले मेरा प्रश्न है कि वे क्यों न लिखें शर्मा। आप अपने नाम के आगे क्या लिख कर पैसा कमाते हैं। आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ...नाई,चौहान हैं या सिंह दुबे या यादव इसमें लज्जित होनेवाली कौन सी बात है।( भंगी लिखना या कहाना सचमें आपके सिवा शायद ही कोई और पसंद करे)। क्या अपने जाति गोत्र को छिपाना भी किसी सामाजिक क्रांति का हिस्सा है। क्या इस महान देश में अपने जाति गोत्र धर्म क्षेत्र आदि को कभी छिपा सकते हैं। मेरा मानना है कि नहीं यह सम्भव नहीं है। जातिवादी, धर्मवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी होने और अपने जाति धर्म, भाषा पर अभिमान करना दोनों दो बाते हैं। आप लावन्या जी को केवल इस लिए नहीं घेर सकते कि वे अपनी माँ के प्रति कहे गए शब्दों से अपमानित पा रही थीं। यदि लावण्या जी को अपने विद्वान पिता और गरिमा मई माँ के प्रति सम्मान की भावना है तो क्या यह कोई अनैतिक बात है। क्या यदि उनमें उच्चकुलता का बोध है तो आप उन पर अपने मन का मैला फेंक कर मलिन करेंगे। उनके ब्राह्मणत्व को छीन कर उन्हें बिना हरिजन या चमार बनाए आप नहीं शांत होंगे। आपकी बातों से कुछ अलग तरह की गंध आ रही है।

कम शब्दों में कहूँ तो आपके तर्क कुछ ऐसे हैं कि पहले आप या कोई निलोफर किसी को वेश्या कह दें फिर बाद में सफाई में आप यह कहें कि हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है क्योंकि संतान पैदा करने के लिए जो काम वेश्या करती है वही काम स्त्री,पत्नी, माँ को भी करना पड़ता है। आप क्या इस बात की छूट देंगे कि कोई आपके परिजनों को आपकी माँ आपकी पत्नी को सामाजिक रूप से ऐसा कुछ कहे। क्या आप अपने घर में स्वजनों के लिए ऐसा ही साधारण संबोधन प्रयोग करते हैं। क्या आप इन्हीं तर्कों के आधार पर अपनी पत्नी, माँ या बहन को वेश्या कहते हैं। यदि कहते या समझते हों तो कृपया ऐसा न करें। मुझे आपसे यह उम्मीद थी और है भी कि कम से कम माँ के प्रति किसी की भी भावनाओं पर प्रहार कर सुख पाने की कोशिश न करेंगे। माँ तो माँ ही होती है। चाहे आपकी हो मेरी या लावण्या जी की।

मैं यह भी नहीं समझ पा रही कि इस पूरे मामले में चोखेरबाली समुदाय चुप क्यों है। और आप इतनी बेताबी से शर्मा को शर्मा कहने का विरोध और भंगी को भंगी कहने को बेताब क्यों हैं। आप के मन में इन दोनों तबकों के प्रति कोई और भावना तो नहीं क्योंकि आपके लेख में पालिमिक्स कम प्रतिशोध अधिक है ऐसा न होता तो आप और लावन्या जी की माँ का अनादर करने वाले माफी माँग कर किसी शुभ काम में लग जाते। लेकिन आप तो लगातार मसि बहाने में लगे हैं। आप पर तो बड़े भाइयों के कहने का भी शायद ही कुछ असर नहीं है। समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। जो भूल स्वीकारने में भरोसा नहीं रखते।
सधिक्कार
आपकी

आभा

नोट- कुंदा वासनिक पर लावन्या जी का शानदार लेख अंतर्जाल से नदारद है। साथ ही उनकी निलोफर के विषाक्त मन को समझने वाला लेख भी। हम उसके लिंक नहीं दे रहे हैं।

शनिवार, 7 मार्च 2009

सुनों कहानी.......

जागो सोने वालों सुनो ......बदलो मेरी कहानी।
मेरी माँ कहती है औरत ही औरत की दुश्मन है। वही मेरी दूसरी माँ(सास)
का कहना है औरत की नाक न हो तो मैला खाए। क्या मेरी दोनों माएँ अपना जिया
अनुभव कहती हैं या सुनी सुनाई बातें । राम जाने । माँ ने जब यह कहा मैं बहुत छोटी थी। मतलब जानने की हैसियत न थी और सास ने जब कहा उनसे बहुत डरती थी सो जवाब तलब न कर सकी पर दोनों वाक्य बहुत परेशान करते हैं, लेकिन मेरा मानना है औरत खुद अपनी ही दुश्मन है – डरपोक हैं आप । पुरूष चाहे तो उसकी खिल्ली उड़ा सकते हैं, डरपोक-डरपोक कह कर या उसका साथ दें सकते हैं क्यों कि सहयोग पर ही घर, समाज, दुनिया उन्नति कर सकती है।
खुशी की बात इतनी है कि हमारी (औरत की ) कहानी । बहुत हद तक बदल चुकी है,
फिर भी औरत अपनी लाज बजाती , किस्मत को कोसती जी रही हैं।
निवेदन है उन लोगों से जो अब भी सो रहे हैं गावों ,कस्बों और तथाकथित
शहरी लोगों से - जागो सुनो और बदलो मेरी कहानी ...................................

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

यूनुस ममता को बेटे की बधाई


यूनुस ममता को बेटे की बधाई

रेडियोवाणी वाले यूनुस और बतकही वाली ममता के लिए आज का दिन बहुत मुबारक रहा। आज दोपहर में १२ बजकर १० मिनट पर ममता माँ बन गईं और यूनुस पिता बन गए हैं। बच्चा सिजेरियन हुआ है लेकिन माँ बेटे दोनों स्वस्थ । दोपहर में बेटे के जन्म की शुभ सूचना यूनुस ने एसएम एस से दी। फिर उनसे बात भी हुई। फोन पर पिता बनने की खुशी उनकी आवाज में चहक बन कर साफ सुनाई दे रही थी।

जच्चा-बच्चा दोनों अभी कुछ दिन तक मुंबई के लीलावती अस्पताल में रहेंगे। हो सकता है कि कल मैं अस्पताल जाऊँ भी। किंतु यदि न भी गई तो घर आने पर देखूँगी नए मेहमान को। धरती के नए मानव को दुलराना बहुत अच्छा लगता है। मैं ममता माँ बनने की और यूनुस को पिता बनने की मंगल कामनाएँ दे रही हूँ। साथ ही उस नए लाल के लिए मंगल गीत गा रही हूँ। आप सब भी उसका स्वागत करें और ममता यूनुस को बधाई दें।
ऊपर के चित्र में ममता और यूनुस । अब ये दो नहीं तीन हैं।

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

कामनाओं का कंकाल

अनोखे आख्यान की अनुभूति परक प्रवंचना


सागर की लहरें छम-छम करती अपने आरोह अवरोह में
गुंफित हो हो पुकार रही थीं। सब कुछ । कुछ नहीं। बस । भटकाव और भटकाव और...पंछियों का नीड़ गमन। कहीं बजता राग यमन। पवन का पल्लवित आलोड़न।

कौन था कौन कुछ पता न चला। हिला एक मेघ आर्द्र। जैसे झुनझुना बजा हो आकाश के आँगन में। खिली हों लाखों कोमल मुदित अग्नि अलकें। मैं पलके बिछाए बिसूरती हूँ। दिप दिप करके मेघ हंसा। पछुआ ने डसा किसी बिरहन को। कोई गेहुअन डोला महुअर के मंत्र पर।

वहाँ तुम हो क्या। पच्छिम के छोर क्षितिज पर साँसों के धुएँ में घुले समाए शोक के समान। क्या कहा था फूल की मरती महक ने सूखती घास से। जलते चिलमन से। मदिर था साँझ का सूना सलोना संथागार।

मैं वहाँ क्यों थी। तुम थे। मेरी कामनाओं के कंकाल में खिले असीम अछोर आकाश की तरह।
मुझे झमक कर जगा गई रागिनी तुम्हारे आहत मन की । मैं हृत तंत्री ठाड़ी रही। साँझ रात हुई।

खो गए । सपने सो गए। मैं बिसर गई। सब....सब.....सब बातें । घातें। आते जाते। बतियाते मुझे भूल जाओ । खुश रहो। आमीन । मैं मात्र तुम्हारी सूनी संध्या...।

रविवार, 11 जनवरी 2009

ये तहरी खिचड़ी की फैशनेबल बहन है


लावण्या दी आप ने मेरी पिछली पोस्ट पर तहरी क्या है और कैसे बनाते हैं यह सवाल किया था। मै जब बता रही थी तभी हमारा लैपटॉप नखरे करने लगा ....करती क्या आजीज आकर सट डाउन करना पड़ा । बड़ी दी की आज्ञा पालन करना था सो आज कर रही हूँ ..

1-तहरी – वह व्यंजन जिसमें चावल के साथ सब्जियों को मिला कर पकाया जाए,
2-दूसरी तहरी – पेठे की बरी और चावल की खिचड़ी को भी तहरी कहते हैं....।

लगता है इस तहरी का सहरी से कोई नाता है। सहरी आप जानती ही होंगी। सहरी सहर शब्द से बना है। सहर यानी प्रात: काल । रमजान के दिनों में सहरी खाई जाती है। भोर के कुछ पहले । कहीं कहीं इसे सहरगही भी कहते हैं । कुछ हिस्सों में यह करवा चौथ पर भी खाया जाता है। अब यदि सहरी के हिसाब से देखे तो तहरी तिसरे पहर का खाना हो सकता है । पर यह सहरी के साथ तहरी का नाता महज मेरा अनुमान है। बाकी भाषा विद् जाने।
हम जो तहरी बनाते हैं उसमें चावल के साथ ही उड़द की दाल और सब्जियों को मिला कर तेल-घी और गरम मसाले साथ भुनते हैं। थोड़ी देर के बाद जब सब कुछ थोड़ा हल्का कुर कुरा हो जाए तो पानी और नमक डाल कर पकने देते हैं। कुकर की एक सिटी के बाद तहरी तैयार।
आप कह सकती हैं कि खिचड़ी जहाँ एक साफ सुथरी सिम्पल बहन है वहीं तहरी इतने सारे नखरे करती है । स्वाद बढाने के लिए और मसालों के साथ शुद्ध घी ,दो चार सब्जियाँ, जीरा तेजपत्ता, प्याज-लहसन जो चाहे मिलाते जाएँ स्वाद बढ़ाते जाएँ।
बस ऐसे ही बनाते है हम तहरी.। आप भी बनाएँ और खाएँ खिलाएँ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

लड़कियों की सामाजिक हैसियत पर १९२५ में लिखे अपने उपन्यास निर्मला में प्रेमचंद ने एक सवाल उठाया था। वो सवाल आज भी जस का तस कायम है। हालात बदले हैं लेकिन लड़कियों की दशा नहीं बदली है। कुछ तबकों में बदली सी दिखती है, उन तबकों में प्रेम चंद के समय में भी बदली हुई सी थी। बड़ा वर्ग आज भी वहीं खड़ा है जहाँ १९२५ में खड़ा था। आज भी लड़कियाँ दोहरे बरताव का शिकार हैं। संदर्भ है निर्मला की शादी तय हो गई है। अभी वह नाबालिग है। और नहीं समझ पा रही है कि उसकी शादी क्यों की जा रही है। पढ़े निर्मला और उसकी छोटी बहन कृष्णा की बात चीत का यह अंश।


कृष्णा-- मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेले मुझ से यहाँ न रहा जायेगा।

निर्मला मुस्कराकर बोली-- तुझे अम्मा न जाने देंगी।

कृष्णा-- तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाऊंगी।

निर्मला-- कह तो रही हूँ, कोई सुनता है!

कृष्णा-- तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?

निर्मला-- नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों ज़बर्दस्ती निकाल देता?

कृष्णा-- इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?

निर्मला-- और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियाँ हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।

कृष्णा-- चन्दर भी निकाल दिया जायेगा?

निर्मला-- चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?

कृष्णा-- तो लड़कियाँ बहुत ख़राब होती होंगी?

निर्मला-- ख़राब न होतीं तो घर से भगाई क्यों जाती?

कृष्णा-- चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ठंड की याद में हूँ

जाड़ा चाहिए

उत्तर भारत ठंड की चपेट में है। लोग मर रहे हैं। इस कड़ाके की ठंड को देखते हुए मैं रात 10 के बाद किसी संबंधी, किसी दोस्त मित्र को फोन नहीं कर रही हूँ। क्या पता वो रजाई में घुस चुका हो। पर यहाँ मुंबई में स्वेटर सिर्फ निकले हैं और हम सोच रहे हैं कि काश और ठंड पड़ती और हम स्वेटर पहनते। याद कर रहे हैं धूप में भी रजाई ओढ़ कर सोना।

रात गए मुंगफली तोड़ कर खाना। बाजरे की रोटी और गुड़ खा रही हूँ पर वह स्वाद नहीं मिल रहा है। याद आ रही है ओ ठंड जब हम स्कूल कॉलेज या विश्वविद्यालय जाया करते थे और ठंड से मेरी नाक आँख लाल हो जाया करती थी । ऐसा लगता था कि मैं रो रही हूँ। सहेलियाँ पूछती थी कि क्या हुआ क्यो रो रही हो। मैं बताती की ठंड लग रही है। रो नहीं रही हूँ।

जब क्लास नहीं होती हम सब धूप खोजते कि कहाँ बैठा जाए। और मुह से खूब भाप निकालते। गरम-गरम भाप। हम लेक्चर रूम में जाने से बचते। दुआ करते कि आज पढ़ाई न हो और हम घर जा कर रजाई में दुबक जाएँ। और घर में काम न करने के लिए बहाने खोजते थे। कैसे भी किचेन में अपनी जगह किसी और को फसाने का जुगाड़ बिठाते थे। और अगर खुद जाना हुआ तो खिचड़ी या तहरी बना कर छुट्टी पा लेते थे।

आज दोपहर में अपनी सासू माँ से बात की तो पता चला कि गाँव में 1 बजे दोपहर में भी धूप नहीं है। वे सब आग ताप रहे हैं। गोल बंद गोष्ठियाँ चल रही हैं। मन आया कि वहाँ पहुँच जाऊँ।
जाड़ा कथा जारी है.....