अनोखे आख्यान की अनुभूति परक प्रवंचना
सागर की लहरें छम-छम करती अपने आरोह अवरोह में
गुंफित हो हो पुकार रही थीं। सब कुछ । कुछ नहीं। बस । भटकाव और भटकाव और...पंछियों का नीड़ गमन। कहीं बजता राग यमन। पवन का पल्लवित आलोड़न।
कौन था कौन कुछ पता न चला। हिला एक मेघ आर्द्र। जैसे झुनझुना बजा हो आकाश के आँगन में। खिली हों लाखों कोमल मुदित अग्नि अलकें। मैं पलके बिछाए बिसूरती हूँ। दिप दिप करके मेघ हंसा। पछुआ ने डसा किसी बिरहन को। कोई गेहुअन डोला महुअर के मंत्र पर।
वहाँ तुम हो क्या। पच्छिम के छोर क्षितिज पर साँसों के धुएँ में घुले समाए शोक के समान। क्या कहा था फूल की मरती महक ने सूखती घास से। जलते चिलमन से। मदिर था साँझ का सूना सलोना संथागार।
मैं वहाँ क्यों थी। तुम थे। मेरी कामनाओं के कंकाल में खिले असीम अछोर आकाश की तरह।
मुझे झमक कर जगा गई रागिनी तुम्हारे आहत मन की । मैं हृत तंत्री ठाड़ी रही। साँझ रात हुई।
खो गए । सपने सो गए। मैं बिसर गई। सब....सब.....सब बातें । घातें। आते जाते। बतियाते मुझे भूल जाओ । खुश रहो। आमीन । मैं मात्र तुम्हारी सूनी संध्या...।