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मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ठंड की याद में हूँ

जाड़ा चाहिए

उत्तर भारत ठंड की चपेट में है। लोग मर रहे हैं। इस कड़ाके की ठंड को देखते हुए मैं रात 10 के बाद किसी संबंधी, किसी दोस्त मित्र को फोन नहीं कर रही हूँ। क्या पता वो रजाई में घुस चुका हो। पर यहाँ मुंबई में स्वेटर सिर्फ निकले हैं और हम सोच रहे हैं कि काश और ठंड पड़ती और हम स्वेटर पहनते। याद कर रहे हैं धूप में भी रजाई ओढ़ कर सोना।

रात गए मुंगफली तोड़ कर खाना। बाजरे की रोटी और गुड़ खा रही हूँ पर वह स्वाद नहीं मिल रहा है। याद आ रही है ओ ठंड जब हम स्कूल कॉलेज या विश्वविद्यालय जाया करते थे और ठंड से मेरी नाक आँख लाल हो जाया करती थी । ऐसा लगता था कि मैं रो रही हूँ। सहेलियाँ पूछती थी कि क्या हुआ क्यो रो रही हो। मैं बताती की ठंड लग रही है। रो नहीं रही हूँ।

जब क्लास नहीं होती हम सब धूप खोजते कि कहाँ बैठा जाए। और मुह से खूब भाप निकालते। गरम-गरम भाप। हम लेक्चर रूम में जाने से बचते। दुआ करते कि आज पढ़ाई न हो और हम घर जा कर रजाई में दुबक जाएँ। और घर में काम न करने के लिए बहाने खोजते थे। कैसे भी किचेन में अपनी जगह किसी और को फसाने का जुगाड़ बिठाते थे। और अगर खुद जाना हुआ तो खिचड़ी या तहरी बना कर छुट्टी पा लेते थे।

आज दोपहर में अपनी सासू माँ से बात की तो पता चला कि गाँव में 1 बजे दोपहर में भी धूप नहीं है। वे सब आग ताप रहे हैं। गोल बंद गोष्ठियाँ चल रही हैं। मन आया कि वहाँ पहुँच जाऊँ।
जाड़ा कथा जारी है.....