शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

पुराने डर फेंक दो तुम भी

साये में धूप पलट रही थी । पता नहीं क्यों मेरा ध्यान इस गजल पर अटक गया। यह गजल आगे बढ़ने और लड़ने बदलने के लिए जागरूक करती है। यह गजल कहती है कि तमाम डर भय कुंठाओं से मुक्ति पाकर आगे बढ़ने को कहती है...इसी लिए मुझे यह प्रासंगिक लग रही है...2008 पुराना पड़ गया है....उसके आखिरी दिन चल रहे हैं...मेरा कहना है कि इस साल में मिले सारे डर भय कुंठा को मिटा कर साल 2009 का स्वागत करें.....इसके लिए दुष्यन्त कुमार त्यागी की एक गजल पेश है.....आप सब जानते ही होंगे कि दुष्यंत जी भी इलाहाबादी थे....हालाकि उनका जन्म बिजनौर उत्तर प्रदेश में हुआ था .और उनकी कर्म भूमि भोपाल थी .....लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई इलाहाबाद से की थी....इस लिहाज से वे इलाहाबादी होते हैं...वहाँ प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर और मार्कडेय उनके सहपाठी थे.....और डॉ. राम कुमार वर्मा जैसे बड़े साहित्यिक उनके गुरु थे....पढ़ें आज दुष्यंत जी की यह गजल

फेंक दो तुम भी

पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी ।
लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी ।
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी ।
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी ।
ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ शब्द कुछ स्वर फेंक दो तुम भी ।
किसी संवेदना के काम आएँगें
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

क्या हमारी जिन्दगी का स्क्रीन प्ले नेता और आतंक वादियों के हाथ में है ?

हर बार एक नई परत खुल रही है । हर परत के नीचे दबता आम हिन्दुस्तानी दमघोटू माहौल में जी रहा है। राजनेताओं ने अपनी रोटिय़ाँ सेंकी,इतनी सेंकी की आम जनता इनकी रोटियों के नीचे दबती गई । मूढ जनता भी समझ रही है साफ साफ । जिसे भुगत रही आम जनता, हमारे जवान ,हमारे अधिकारी।
इस वोट की राजनीति ने वैमनस्यता की इतनी दीवारे खड़ी कर दी हैं जिन्हें मिटाना
नामुमकिन सा दिख रहा है , इन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाया इन आतंकी संगठनों ने । इस छलावे की राजनीति में आतंकी अजमल के हाथ पर बधी रोली भी नित नई उलझन नित नई गुत्थी जो हमेशा की तरह उलझी की उलझी रहेगी । हर दिन हम सभी अपने अपने घरों में न्यूज पेपर और खबरी चैनल देखते हैं इस उत्साह के साथ की कुछ तो सही सही सबूत सामने आएगा पर वही ढाक के तीन पात ।
भावुकता इन्सानियत का गला घोटती है और धसाती जाती है दलदल में । भारतीय जनता सचमुच दलदल में फस गई है ,इससे कैसे ऊबरा जाए सोचना होगा । या फिर वही बयान और जूलूस के बाद फिर किसी भी दिन सौ दो सौ का अकाल काल के गाल में चले जाना जारी रहेगा ।
छब्बीस ग्यारह के सदमे से हर भारतीय सदमें का गुबार लिए जी रहा है पर क्या लगभग सवा अरब जनता का साथ देगें ये मुट्ठी भर नेता ? देखिए देखिए नेता जी को आप बरबस कहेगे भुख्खड़ नेता कैसा हो नारायण राणे जैसा हो । कैसे बच्चे हैं ये नेता जिन्हें कुर्सी चाकलेट की तरह अच्छी लगती है नहीं मिली तो लोट पोट शुरू ।
इस राजनीति और आतंकवाद पर कहने को बहुत बहुत कुछ हर जनमानस के मन में है ।फिलहाल बचपन की पढ़ी एक एक कविता जनता, नेता और मातम पसारने वाले चेहरों के लिए।
जनता के लिए
वीर तुम बढ़े चलों
धीर तुम बढे चलो,
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो।
तुम निडर हटो नहीं
तुम निडर डटो वहीं,
प्रात हो की रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो ,
वीर.......
नेताओं को समर्पित
उठो लाल अब आखें खोलो
पानी लाई हूँ मुहँ धोलो,।
बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भौरे झूले।
चिड़िया चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर।
नभ में न्यारी लाली छाई ,
धरती ने प्यारी छवि पाई ।

भोर हुआ सूरज उग आया ,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुन्दर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
आतंक के सौदागरों से
तु्म्हें भी किसी माँ ने जनम दिया है
वह तुम जैसों को
जन्म देने से पहले मर क्यों न गई
कम से कम अपनी जननी की खातिर बन्द करो खूनी खेल।
खुद जिओ औरों को भी जीने दो
यही तो है जिन्दगी का रास्ता
तुम्हें अमन का शान्ति का वास्ता
यही तो लिखा गीता और कुरान में
यही तो वाणी नानक और कबीर की
इसी लिए तो गाँधी जी नें जान दी
की समझे दुनिया बात उस फकीर की
खुद जिओ...

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कितनी पुरानी साध है यह

कितनी पुरानी साध है यह


कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..

रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....

तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..

धूल .....

पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....

दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...


मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..

तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।

७ जुलाई 2008

सोमवार, 28 जुलाई 2008

दादी की सीख

यह पाठ मुझे मेरी दादी ने पढ़ाया था। वे अक्सर ड. तक पढ़ाने के बाद रोने लगती थी....और मैं उनको रोता छोड़ कर बाहर निकल जाती खेलने । दादी तो आज नहीं हैं लेकिन उनकी पढ़ाई आज भी मेरे पास है । आप भी पढ़ें उनका यह पाठ।

माइ री माइ कितबिया दे स्कूल में जायेके

माइ री माई खाना पकायेदे स्कूल में खायेके।

हम स्कूल गए और पढ़े.................

क कबूतर पकड़ के लाया

ख खटिया पर बैठा है

ग गधे को कभी न छेड़ो

घ घड़ी को देखता है

ड. बेचारा पड़ा अकेला

आओ बच्चो खेलें खेला।।

बचपन तो हमारा ऐसे ही गया ....अभी भी यही पाठ चल रहा है। सिर्फ ड. और दादी ही नहीं हम सब अकेले छूटते है ........।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

नेताओं की नंगई देखेगी जनता जल्द


नेताओं की नंगई देखेगी जनता जल्द .....
कुछ ही महीनों मे देश में आम चुनाव होगें, हमेशा की तरह जनता-नेता की कुर्सी पोछ- पाछ कर बैठाती आई है वैसे ही सही गलत का फैसला होने पर उतारती भी है। जहाँ तक
सीपीएम का सवाल है उसने अपना चेहरा ठीक से दिखा दिया । सोमनाथ जी को
पार्टी से निष्कासित करने के उनके फैसले के बाद अब उनकी यानि लेफ्ट की बात करना कोई मायने नहीं रखता
हाँ.. जिन्हें करना हो करें ।
बीजेपी जनता को गुमरगह करने की कोशिश में माहिर है इसका सबूत हमारे पास 92 का 6 दिसम्बर है...जिसे हम या कोई जिसने सिर्फ समाचार में देखा-सुना पर जिन घरों , जिन लोगों को उस खूनी खेल ने भुगता उनके घर वाले ही बीजेपी की राजनीति को समझ सकते हैं ठीक से.... यह अलग बात है कि किसी के लिए देश भक्त हो सकती है यह पार्टी....
यह देश भक्ति फिर दिखी जब नोटों की गड्डियाँ वे संसद मे लहरा रहे थे, और हम शर्मिंदा हो रहे थे अपने -अपने घरों में, साथ ही अपने को समझा रहे थे कि यदि खरीद फरोख्त जैसा कुछ हुआ भी था तो इन्हें स्पीकर सर को खबर करनी थी और साथ ही यह भी समझ आ रहा था कि यह इनकी 6 दिसम्बर की चाल तो नहीं, खैर जो कुछ हुआ ठीक नहीं रहा पर हम जनता हैं हम सही – सही और गलत - गलत साफ जानना चाहते हैं ।
वैसे ही जैसे आरूषी हत्या काण्ड का सबूत साबित हुआ, यह अलग बात है कि आरूषी की हत्या जिसे मेरी साढ़े तीन साल की बेटी भानी अरूषी दीदी कहने लगी .... लोगों के मन में अब भी सवाल लिए खड़ी है, दूसरी ओर देश की सबसे बड़ी जाँच व्यवस्था पर सवाल उठाता गलत है ऐसा मन कहता है । भरोसे पर दुनिया कायम है तो हमें इस बड़ी और सच के आखिरी सबूत वाली जाँच व्यवस्था को मानना ही होगा, हमने मान लिया और शान्ति भी मिली है - मन को, क्यों न मिले भी आखिर एक पिता की मर्यादा कलंकित होते होते बची है....
यह अलग बात है कि अरूषी की मौत ने भरोसे को झकझोर दिया है ....
अब वैसे ही हम जानना चाहते है इस खरीदी सांसद को, क्या सही है क्या गलत समझाना होगा हम जनता को, आगे सब जनता तय करेगी हमेशा की तरह.......
भरोसा
भरोसा किसी चिड़िया का नाम
होता तो अच्छा था......
फिर हम बच्चों से
,या

...,

हम कहते, वो देखो वो
कितनी कितनी ऊपर
ऊड़ती भरोसा चिड़िया,
फिर बच्चे खुश होते ,
देख देख हम खुश होते इन
बच्चो को ...देख देख,
हम कहते
बच्चो से, देखो यह भरोसा चिड़िया
कैसे दाना चुगते चुगते फुर्र हो जाती है।
या नाम होता किसी इन्सान का ,
हम पूछते नाम और कोई कहता मेरा नाम भरोसा....,
हा सुना भी है नाम- जैसे राम भरोसे
हो सकता है, पूर्वजों ने रखा हो नाम, कि राम ही
करेगें उद्धार ......

पर यह भरोसा न कोई चिड़िया है
न है कोई इन्सान या फिर
जानवर भी
यह तो है एक व्यवस्था का नाम
जिस पर कायम होता है
हमारा...
बहुत कुछ या सब कुछ ....

बुधवार, 9 जुलाई 2008

सब सच सच कह दूँ....

सब सच सच कह दूँ , ठीक है . ..

इस संसार मे आया कोई भी माया से बच नहीं सकता जब तक की संसार न छूट जाए,।
नहीं कह सकती कि ब्लॉग माया कब तक साथ देगी । यह जरूर है कि जब कभी मन यह सोचता है माई री मै का से कहूँ अपने जिया कि.. फिर खुद ही जवाब भी मिल जाता है कि कहो न ब्लॉग पर, यह अलग बात है कि बिसर भी जाता है बहुत कुछ कई कई बार ......

साल भर पहले बोधि ने अभय से मेरा भी एक ब्लॉग हो, इस बाबत सलाह किया,
और 24 जून 2007 को अभय ने मेरा ब्लॉग अपना घर बनाया।
तय सी बात है कि जो अक्सर घर पर आते है वो अपनों से हो जाते-बड़े छोटे हम उम्र सभी.... इन अपनों से वाद-संवाद के लिए निर्मल आनन्द के अभय तिवारी की आभारी हूँ । अनूप शुक्ल फुरसतिया जो टिप्पणी तो करते ही हैं साथ ही कभी कभार बातचीत में अपनापा और बड़प्पन जता जाते हैं इधर मैं भावुक होने लगती हूँ, समीर भाई जैसे समझदार और व्यवहारिक लोग भी बड़ी खुशकिशमत जन को मिलते हैं तो मानिए पूरा ब्लॉग जगत भाग्य का धनी है। अनुज संजीत त्रिपाठी कहाँ व्यस्त हैं, किसी को पता हो तो मुझे भी बताएँ या हमारी याद उन तक पहुचाएँ ।

ज्ञान भैया ऐसी सीख भरी टीप देकर उत्साह बढ़ाते रहते हैं...शिव जी ...कभी-कभार अपना घर तक आए हैं पर मुझे कोई शिकायत नहीं ये तो अपनी, सहूलियत और समय मिलने की बात है, अनिल रघुराज जी को क्या कहें वो जैसे कभी-कभार टीप देते हैं वैसे ही कभी-कभार उनकी पोस्ट पढ़ कर बरबस कह देती हूँ देखो अनिल जी ने मेरी बात कह दी यह जरूर है कि बोधि बताते हैं कि अनिल भाई बहुत पढ़े लिखे सहज सरल हैं, प्रमोद भाई का जिस दिन काली काफी पीकर रजाई मे मुँह ढक कर रोने का मन कर रहा था उस दिन लगा यह है न मेरा भाई जिसने मेरा संग्रह छपने छपाने की बात की थी, काकेश की कतरने मैं भले ही हमेशा न पढ़ पाऊँ पर पाऱूली की शादी तो मन में बस गई है, ....अफलातून जी की मेरी पोस्ट पर वेलकम टीप नहीं भूल सकती...। बहुत सारे मेरे भाई जिनका नाम भूल रही हूँ क्या करूँ आशा है क्षमा करेगें
इधर आए अरूण आदित्य भी रवानी भरी दिल की बातें लिखते है तो अच्छा लगता है, ..
अभिषेख ओझा गणितीय पोस्ट भर लिखते हैं, उन्हें महगाई को ध्यान में रखते हुए बचत
करना चाहिए ताकि आने वाली के लिए हीरे का नेकलेस ,रिंग वगैरा.......ले जाएं ये सिर्फ सलाह है......आखिर बड़ी हूँ ..। सुभाष निरव मेल करते हैं अच्छा लगता है ...

बहनें तो अपनी है ही जिनमें बड़ी दी लावण्या जी के स्नेह और सीख भरी टीप मीठी लगती है, इंतजार भी। अनिता जी सहित रंजू ,रचना आप सब के मेल का जवाब नहीं दे पाई कारण–मेरे सहित मेरे कम्प्यूटर की तबीयत भी ठीक नहीं थी इस वास्ते मैंने दस
बारी कान पकड़ कर उट्ठक–बैठक कर ली आप सब ने देखा नहीं पर पढ़ तो लिया ही आशा है माफ करेगीं .....करेगीं न .. । रंजू आप अमृता प्रीतम और मीना कुमारी को पसंन्द करती हैं, मै भी और ब्लॉग पर यदि किसी से मीठी जलन है तो वो आप से इतना ही कहूँ की और कुछ ..... । ममता आप की रीटा आइस्क्रीम पोस्ट बाकी खबरिया पोस्ट पढ़ती हूँ ...। बेजी अचानक कहा व्यस्त हो गई..। घुघूती जी उससे भी पहले से ..कहा है आप का इंतजार..। मीनाक्षी मान जाइए नही तो मैं आकर मनाऊँगी...चोखेरबालियाँ तो अपनी सी हैं ही.................

गुरुवार, 19 जून 2008

खून अपना रंग दिखाता है

खून अपना रंग दिखाता है

मेरी बेटी भानी हर हाल में अपनी बात मनवाती है । उसके इस स्वभाव के चलते
हम सब उसे घर का गुण्डा घोषित कर चुके हैं । भानी के भाई मानस स्कूल से या खेल कर लौटे, बहन के न दिखने पर पूछते हैं, कहाँ हैं अपना गुण्डा, ऐसे ही हम दोनों भी, कहाँ है गुण्डा चंद, गून्डू कहते हैं। खैर हम सब एक सीमा के बाद भानी के शरण में आ जाते हैं इस बाबत बहुत सारी बातें हैं क्या क्या बताऊँ और क्या क्या जाने दूँ,......

मै यह सोच समझ कर भी खुश रहती थी कि अच्छा है ऐसा ही होना चाहिए,
पर बड़ी होकर ऐसे ही करती रही तो...... मन उलझन में भी पड़ जाता है ।
भानी की ये दादागीरी घर ही नहीं बाहर भी चलती है ।
पर भानी कल स्कूल से लौट कर आई । एक घंटे बीतने के बाद जो बाते हुईं उसमें मैं खुद के बचपन को देखने लगी कि जब मैं पहली दूसरी मे पढ़ा करती थी, कैसी थी, ऐसे ही जैसे भानी सुना रही है ।
एक कुलदीप नाम का लड़का और आभा नाम की लड़की..या.
जब कभी आभा की टीचर नहीं आती तो उसे कुलदीप के क्लास में जाना पड़ता
आभा की तो जान हथेली पर होती अब क्या क्या होगा, होता भी ।
आभा की टिफिन कुलदीप पढ़ाई के बीच चट कर जाता, टिफिन जब तक खाता ठीक से सीट पर बैठने देता पर अपना का खत्म होते ही खुद सीट पर डट कर बैठता और आभा
बैठी क्या कुरसी पर लटकी होती, ऊपर से कुलदीप यह कह कर डराता कि अगर टीचर से
शिकायत की तो बहुत मारूँगा, आभा डरती क्यों न कुलदीप पढ़ता पहली में लगता ऐसा जैसे पाँचवीं का छात्र । और आभा एक मरियल सी लड़की

जैसा कि अक्सर होता है । देर सबेर टीचर को सारी कहानी पता चल गई.।
उसके बाद जब कभी आभा को कुलदीप के क्लास में जाना होता, आभा खुश होती,
हो भी क्यों न, अब वो टीचर के बगल वाली सीट पर बैठती .....

अब रही बात भानी कि तो उसे मैं टीफिन में सब्जियाँ अलग से नहीं देती ताकि उसके कपडे़ गंदे न हो दूसरे भानी अक्सर सब्जियाँ नहीं खाती सो मैं सब्जी को रोटी, पराठा पूड़ी मे भर कर देती हूँ और सब्जी वाले खाने में पिस्ता, काजू या कोई सेव, नमकीन रख देती हूँ ताकि भानी खुश हो कर खाए । पर आज बात करने पर पता चला वो पिस्ता काजू और भी कुछ भानी नहीं खा रही बल्कि प्रिशा नाम की लड़की रोज खा लेती है
भानी उससे दोस्ती नहीं करना चाहती न ही उसके साथ बैठना ।
एक दूसरी आगे की क्लास में पढ़ने वाली लड़की ने बताया कि आंटी भानी स्कूल में रो रही थी और कह रही थी कि मुझे मम्मी की याद आ रही है, फिर मैने इसे चुप कराया कि मम्मी थोड़ी देर में मिल जाएगी और इसके क्लास की एक लड़की भी चुप करा रही थी ।
मै करूँ क्या सारी बाते सुन कर खीझ भी हुई फिर हँसी भी आई कि प्रिशा भी भानी के तरह की एक बच्ची है ।
कुल मिला कर यही कह सकती हूँ कि भानी की गुण्डागीरी प्रिशा के आगे हवा हो गई है। या फिर यह कि खून आपना रंग दिखाता है।
आप सब की क्या सलाह है......।

रविवार, 15 जून 2008

करोगे याद तो हर बात याद आएगी

कैसे थे पिता.....

श्रृष्टि की रचना से रचित रिश्तों की डोर में बँधे और पिता बने दशरथ , राम , शान्तनु फिर बुद्ध ये कैसे कैसे पिता थे आप सब ने जाना है । न जाने कहाँ से आज इनकी यादों ने मुझे से घेर लिया, रहने दो छोडो़ भी जाने दो यार कितना करेगें याद ।.

पिछले महीने भर से हर चैनल पर दिख रहे एक पिता हैं डा. राजेश तलवार, उन पर अपनी ही बेटी आरुषी की हत्या का संदेह है...आप सब ने भी उन पर हमारी ही तरह एक बार शक की निगाह से जरूर देखा होगा...हो सकता है उन पर आरोप सच न भी हो...लेकिन पिता के पद और दायित्व पर तलवार खरे नहीं उतरे हैं...और कोई नहीं तो उनकी पत्नी नूपुर ने तो उन्हें अब तक जान ही लिया होगा कि वो कैसे पिता है ।
.
हा यह जरूर है कानून सबूत चाहता है, मागता है, हम भी चाहते है. शंका और समाधान की पुष्टि। बालीवुड की कई कई आँखें लटक रही है सिर्फ एक तार पर और वो तार हैं -अरुषी के पिता डा. तलवार। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखिए होता है क्या और कहानी बनती है क्या । भगवान इस पिता की पुत्री आरूषी की आत्मा
को शान्ति दें ।

दुनिया जहान के हर पिता को हैपी फादर्स डे पर आरूषी के पिता को क्या कहूँ....।

पिता के बारे में बात करने को बहुत बहुत होता हैं। फिलहाल इतना ही कि मेरे पिता
जीवन में जितना सुख-सुविधा-आजादी का जीवन दिया और जिया उतना ही तकलीफ भी झेली अंत के दिनों में। उनकी जेब अपना पराया नहीं देखती थी। देखती थी तो सिर्फ जरूरत मंद को।
मेरे पिता स्वभाव से जिद्दी, क्रोधी साथ ही अपने उसूलों के पक्के थे । बड़े से बड़ा घाटा हो जाए या फायदा...वो अपनी बात पर डटे रहते थे...इसीलिए जिंदगी में उन्होंने बहुत उतार चढ़ाव देखे.....। दादी की तीन संतालों में वे पहले थे। बड़ी मन्नतो के बाद उनका जन्म हुआ वो भी शादी के 14 साल बाद....दादी-दादा के लिए वो पत्थर की दूब थे....भयानक दुलार में पले-बढ़े। कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीएससी की पढ़ाई की लेकिन दुनियादार नहीं बन पाए मेरे बाबूजी।

मेरे बाबूजी...

मेरे बाबूजी
पत्थर पर दूब की तरह थे
मेरी दादी के लिए,
हमारे लिए थे
वे थे ठोस पत्थर की तरह....
चट्टान की तरह थे
जिन पर हम
खेलते बड़े हुए....
काश की वे दुनियादार होते
काश कि वे वैसे न होते जैसे थे वे
तो घर के कोने में खुद को कोसते न कभी।

सोमवार, 26 मई 2008

भाई की फोटो

एक पुरानी कविता

मेरे पास एक फोटो है
मेरे बचपन की पहचान
जब तक रही मैं माँ के साथ
वह अक्सर दिखाती मुझे फोटो
कहती यह तुम हो और यह गुड्डू
तुम्हारा भाई जो नहीं रहा।
माँ अक्सर रोती इस फोटो देख कर
जबकि फोटो में हम भाई-बहन
हँसते थे बेहिसाब,
हालांकि भाई के साथ होने या हँसने की
मुझे कोई याद नही है।

यह फोटो मैं ले आई मायके से ससुराल
छिपा कर सबसे,
विदा होने के पहले रखा मैंने इसे किसी-किसी तरह
अपने बक्से में,
जब घर के लोग मुझे लेकर भावुक होकर रो-रो पड़ते थे।

बाद में माँ ने मुझसे पूछा कि
वह गुड्डूवाली फोटो है क्या तुम्हारे पास,
यहाँ मिल नहीं रही है।
मैं चुप रही
फिर बोली
नहीं है वह फोटो मेरे पास ।

माँ ढूँढती है
अब भी घर का एक एक संदूक और हर एक एलबम
पर यह फोटो नहीं मिलती उसे।
२३ जुलाई 2001

नोट- पिछले कई दिनों से घर में खोज रही हूँ.....पर में भाई वह फोटो कहीं नहीं मिल रही है...

गुरुवार, 15 मई 2008

गिलास को भी पसीना आता है

वैसे तो भानी को गर्मी बिलकुल पसंन्द नहीं और मैं भी उसे दोपहर को हाल यानी लीविंग रूम मे नहीं रहने देती हाल से अंदर के कमरे में ले जाने का तरीका है लसीब.....
मैंने उसे लस्सी पीने के लिए दिया ,हाँ भानी लस्सी को लसीब बोलती है और हम सब उसके मुहँ से लसीब ही सुनना चाहते है...भानी का गुल्लक रसगुल्ला है...वो पैसे रसगुल्ले में रखती हैं...कंटाप मारने को कंटाल मारना कहती हैं...उनकी बात न मानी जाए तो सच में कंटाल मारने लगी हैं...
कल की लसीब कुछ ज्यादा ही ठंन्डी थी ।
मैं.उसको लसीब देकर अन्दर के कमरे मे चली गई यह कह कर कि तुम रहो गरमी में, मैं अन्दर आराम से सोऊँगी दरवाजा स्भाविक रूप से बिना लाक के ही था ताकि भानी जब चाहे अन्दर आ जाएँ.... ।
भानी अन्दर तो नहीं आई बल्कि जोर जोर से आवाज लगाने लगीं मुझे लगा क्या हुआ मेरी .बेटी को मैं दौड़ कर उसके पास आई क्या हुआ
भानी कहने लगी मम्मा मुझे तो खाली गरमी लग रही है और ग्लास इतनी
ठंडी है फिर इसे पसीना क्यों आ रहा है......
मानस को जब पानी पीना होता है भानी से गिलास का पसीना दिखाने को कहता है और भानी दौड़ कर कई गिलास भर लाती हैं...मानस का काम हो जाता है
भानी कई दिनों से गिलास के पसीने का आनंद ले रही हैं... और सब को दिखा रही हैं....देखो गिलास का पसीना ।

बुधवार, 14 मई 2008

कहाँ हो खुदा...

तालस्ताय की कहानी ‘खुदा कौन’ में तीन यात्री खुदा कौन है और वो कहाँ हैं ,इस बाबत बहस करते हैं
एक यात्री कहता है कि उसका खुदा उसके तलवार में है दूसरा कहता है उसका खुदा गिरिजा घर में है
तीसरा कहता है कि खुदा किसी उपासना गृह मे नही रहता उसे

सिर्फ महसूस किया जा सकता है कुल मिला कर कहानी यह है कि खुदा द्वारा बनाई गई यह दुनिया ही एक
उपासना गृह है जहाँ सब को प्रेम से रहना चाहिए जहाँ जाति धर्म क्षूद्रों की सी बात है

जब मन बहुत सी समस्याओ से उलझ जाता है तो स्वाभाविक सी बात है ऐसी रचनाएँ याद आती हैं
जहाँ राज ठाकरे या उनके जैसा कोई भी राजनेता मूढ जैसा दिखता है जो किसी के नहीं होते अपनों के भी नहीं यह बात भी
किसी से छुपी नही और यदि राज वास्तव मे नेता है या मान ले दिखावा ही सही तो कहाँ हैं राज ठाकरे
जिन्होंने जयपुर दुर्घटना पर खेद नहीं जताया।

कहाँ हम इस बढती हुई महगाई को लेकर उलझन में थे कि बहुतों का पेट कैसे भरेगा ....और कुछ भी कर पाने
जैसा नहीं लग रहा था सिवाय दुखी और परेशान होने के वही जयपुर की घटना यह सोचने को बाध्य कर रही है
कि रोटी की समस्या तब होगी जब हम जिएँगे... यहाँ...तो अपनी जिन्दगी का ही भरोसा नहीं

ऐसी परिस्थितयों मे मन बारबार खुदा को ही याद कर रहा है कहाँ हो कहाँ हो....
कहाँ हो अल्लाह
कहाँ हो ईशू
कहाँ हो ईश्वर
कहाँ हो खुदा
करो कुछ....
...... ....।

शनिवार, 10 मई 2008

पराई हो जाती हैं बेटियाँ


आज मदर्स डे है तो स्वाभाविक सी बात है कि माँ सिद्दत से याद आ रही है।
याद आ रही है –माँ जो मुझे...बेबी बेबी बुलाती जिसे मै अनसुना करती माँ फिर बड़े
मीठे सुर मे बुलाती बेबा..बेटी और मैं दौड़ती उसके पास क्या माँ क्या माँ ..करती पहुँच जाती......
आज याद आ रही है - माँ जब
मै विदा हो रही थी उसके घर से, चाचा ने कहा छोड़ो भाभी विदा करो.....। और माँ ने मुझे भर लिया था अपनी बाहों में
देख रही हूँ माँ को जो मुझे विदा कर रोती रही पागल सी...... दो तीन दिनों तक
,ऐसा बड़ी दी ने बताया मुझे ,बहुत कुछ याद आ रहा है. जो यहाँ लिखना फिलहाल सम्भव नहीं
, सम्भव है सिर्फ यह कि आज हर बेटी ऐसे ही याद कर रही होगी अपनी माँ को.. दूर जो हो जाती हैं बेटियाँ
दूर हूँ तो क्या हुआ सुनूँगी माँ की बातें सुनाउँगी उसे अपनी बातें जिसे सुन खुश हो
वो स्वस्थ्य हो माँ.....।
आजकल माँ देर से जागती है...कुछ देर में माँ को और अपनी सासू माँ सब को फोन कर के आशीर्वाद लूँगी....
मेरी माँ अभी 66 साल की हैं...यह उम्र बहुत नहीं है लेकिन वह बहुत बीमार रहती है...जब वो सोती है तो उसके दिमाग में खून का बहाव रुक जाता है और अक्सर उठने पर चक्कर खा कर गिर पड़ती है...और वह अपने गिरने को समझ भी नहीं पाती है...गिरने के काफी देर बाद उसे पता चलता है कि वह गिरी थी...और उसे चोट भी लगी है...डॉक्टरों का कहना है कि बिस्तर से अचानक न उठें..वह इस बात का खयाल भी रख रही है...
ऐसी हालत में भी माँ किसी को परेशान नहीं करना चाहती है... फिलहाल वह अपने बड़े बेटे यानी मेरे भाई के साथ रहती है....जो कि उसका बहुत खयाल रखते है...मैं बेटा होती हो शायद माँ मेरे पास होती...अभी कहती भी हूँ कि माँ को यहाँ मुंबई भेज दो तो भाई कहता है कि तुम्हारी बच्ची अभी छोटी है ...और माँ को सम्हालना भी एक बच्चे को सम्हालने जैसा ही है...अभी....
माँ के पिछले दिन याद करती हूँ तो एक सुघड़, व्यवस्थित माँ याद आती है...जिसके शांत चेहरे को देख कर हम भाई बहन जीने का सलीका पाते थे....
आज मैं उससे दूर हूँ.....और दुआ कर रही हूँ कि वह ठीक हो जाए.....।
सारे ब्लॉगर्स को मदर्स डे की मंगल कामना॥
नोट- माँ के साथ मेरा बेटा मानस और मैं

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

चार के कुनबे में मानस


हम अकेले हैं...

हर बात के फायदे के साथ साथ नुकसान भी होते हैं जैसा कि
आज कल माँ-बाप अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि अच्छा है हम अपने हिसाब से अकेले रहते हैं। सब की तरह मैं भी सोचती हूँ...। पर सच तो यह है कि संयुक्त परिवार हर समस्या का समाधान होता है ..इस बात को मैं शिद्दत से महसूस कर रही हूँ....। जहाँ मानस की पढ़ाई में भानी के खलल डालने पर मानस को परेशानी होती है और उन्हें ठीक से पढ़ने के लिए भानी के सो जाने तक रुकना पड़ता है....। भानी जिद करती है कि भइया को नहीं मुझे पढ़ाओ.....साथ ही ट्यूशन जैसी बातों को लेकर मानस के साथ ही हम दोनों भी उलझन में रहते हैं...वहीं जो मानस पिछले साल तक ट्यूशन लगाने का विरोध करते थे और ट्यूटर के आने की बात पर रोने लगे थे आज ट्यूटर लगाने की बात कर रहे हैं.....।

इस बाबत मैं सोच रही हूँ कि यदि मानस संयुक्त परिवार में रह रहे होते यानी कि उनके सारे ताऊ ताई बड़े भाई बहन सब एक साथ रह रहे होते तो तो शायद उनकी समस्या का हल निकल जाता उन्हे भानी के सोने का इंतजार न करना पड़ता....और भानी भी कभी दादी के साथ तो कभी ताई के साथ खेलती....। हमें वो दिन याद हैं जब हम पढ़ाई में कहीं फंसते थे...और माँ और पिता कहीं व्यस्त होते थे तो हमारी समस्याएँ कभी बाबा दादी सुलटाते थे थे तो कभी चाचा-चाची या घर में आया गया कोई और मेहमान भी...हमारा तारण हार बन जाता था....।

मानस का कहना है कि भानी के कारण उसका मन ही पढ़ाई से हट जाता है...और हमें उसकी बातों में सच्चाई दिख भी रही है....मैं अक्सर सोचती हूँ कि अकेले रहने के जितने फायदे नहीं हैं उससे कहीं अधिक झमेला है । यह अकेले का कुनबा हमारा अकेला नहीं है....करोड़ों लोग हैं जो कि इस समस्या के शिकार हैं...और दादा-दादी केवल दीवारों पर लटक कर रह गए हैं....या एलबम और वीडियों में बंद हैं....और बच्चे परेशान हैं.....और ट्यूटर की राह देख रहे हैं...। क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा। मानस को ट्यूटर के हाथ में छोड़ने का मन नही है...पर सोच रही हूँ कि उनकी समस्या अगले दिन पर अँटकी न रह जाए इस लिए एक ट्यूटर रख ही दूँ.....क्या करूँ...
मानस अभी सातवी में गए हैं और भानी अभी केजी में यानी मॉन्ट टू में हैं । चित्र मानस और भानी का है ।


गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

साथी की तारीफ करें

सुख-दुख

अक्सर ऐसा होता है जब हम बहुत खुश होते हैं और फिर अचानक हम दुखी भी हो जाते हैं....दुख सुख के बीच अजीब घालमेल हो जाता है.... गडमड्ड हो जाता है.....ऐसा ही कल भी हुआ...सुबह मेरे बोधिसत्व अपने काम से कम्प्यूटर पर थे और मैं घर के काम निपटा कर कुछ पढ़ रही थी...तभी बोधि उठ कर आए और मेरी तारीफ करने लगे....वो कहने लगे आभा तुम बहुत कुछ जानती हो बस बच्चों को बड़ा होने दो हम तुम मिल कर काम करेंगे....बहुत कुछ करना है....मैं तुम्हारे साथ हूँ...थोड़ा इंतजार और करो.....वह दिन भी आएगा जब तुम अपने मन का काम कर पाओगी...।

मैं बहुत खुश हुई .....ऐसा लगा जैसे मैंने जो चाहा था पा लिया.... बोधि चले गए और मैं खुशी के मारे रोने लगी.....मैं और जोश में आकर किताब के बाकी के 80 पेज भी पढ़ गई....दिन बहुत अच्छा बीता....पति की एक तारीफ ने मुझे नई ऊर्जा से भर दिया....।
लेकिन देर रात गए जब ब्लॉग पर बैठी तो नीलिमा और सुजाता के पोस्ट ने मन को फिर उदास कर दिया...कि यह क्या है....।

मैंने माना यही है जीवन यही है जीवन की सच्चाई...यही है सुख दुख का संघर्ष...जिसमें एक कैसी भी तारीफ एक उत्साह का शब्द भी आपको मैदान में लड़ने के लिए शक्ति दे सकता है और एक दुत्कार भरा संबोधन आपको हताशा और कुंठा से भर सकता है...।

मैं सभी ब्लॉगरों से यही कहना चाहूँगीं कि यह नारी-नर वाद और बटन न टाँकने जैसी सस्ती बातें छोड़ कर एक दूसरे का सहयोग करें॥अपनी शक्ति को और हुनर को तो पहचाने ही साथ वाले के गुणों को भी तरजीह दें... उसे बढ़ावा दें न कि सपना की डायरी के पन्नों को हताशा से भरें.......बल्कि उसे डायरी के पन्नों में सुख के लिए भी जगह छोड़ें।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

कहानीकारा भानी के बारे में

भानी की कहानी
आजकल सभी बच्चे अद्भुत क्षमता से भरे होते हैं उनमें से एक मेरी बेटी भानी भी है। भानी की तरह ही सभी बच्चे खाने पीने में भी बहुत आना कानी करते हैं। भानी लगभग एक महीने से खाने पीने के मामले में बहुत परेशान कर रही हैं। कल रात मैंने भानी से कहा कि नहीं खाओगी तो भूत आएगा और खूब डराएगा ......हा।हा।हा......करके और भरपेट खाओगी तो भगवान जी आएँगे....विद्या बुद्धि देंगे....ताकत देंगे.....। भानी ने थोड़ा बहुत खाया और सो गईं।
सुबह उठ कर भानी ने कहा...मम्मी भगवान जी भी आए थे और भूत भी आया था। भगवान जी ने कहा कि खाना खाओ और भूत ने कहा कि पानी पियो मैंने पूछा बस इतनी ही बात हुई। भानी ने कहा कि नही....भूत ने मुझे डराया भी नहीं और बोला कि बुक में काचा कूची काचा कूची करके बुक उड़ा दो...और भगवान जी ने कहा कि तुम नीट- नीट लिखो बुक में । सुबह से भानी की कहानी जारी है....। तो हुई न भानी कहानीकारा ।
भानी बिल्डिंग में पीटी उषा पार्ट टू के नाम से जानी जाती हैं...वो उम्र में अपने से तीन-चार साल बड़े बच्चों को भी दौड़ में हरा देती हैं...और हारे हुए बच्चों के माँ -बाप ने भानी को यह नाम दिया है...।
भानी आज कल बिल्डिंग में सब को समझाने का काम भी करती हैं...कोई किसी पर चिल्लाए नहीं...डाँटे नहीं...सब शांत रहें...एक दम शांत। और बड़े बच्चे भी भानी से शांति का पाठ सुन कर खुश रहते हैं...।
भानी की बातें हजार हैं जो खत्म न हों...कभी....इतनी बातें....आगे बताएँगे भानी और बातें....
भानी अभी साढ़े तीन साल की हैं....।

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

नारी तेरे कितने रूप, कितने नाम

मैं स्त्री हूँ.....और आज स्त्री शब्द की उत्पति और उसके कुछ पर्याय यहाँ रख रही हूँ...हर देश समाज की तरहशब्दों का भी अपना इतिहास है... वैसे ही स्त्री शब्द का भी इतिहास है ......पर्याय है....वैदिक युग से अब तक.....

स्त्री शब्द के पर्याय

1-मेना-ऋगवेद मे मेना शब्द नारी अर्थ्र का वाचक है। हिमालय की पत्नी
तथा पार्वती की माता का नाम मेना था -
2-नारी-शतपथ ब्राह्राण मे यह शब्द मिलता है नारी शब्द नृ अथवा नर शब्द से बना है......
3-वामा- स्त्री वामा है क्योंकि वह सौंदर्य विखेरती है....वह सौंदर्य रूप है । वामा दुर्गा का भी नाम है।
4-अबला- इस शब्द की रचना नारी के शारीरिक बल को ध्यान मे रख कर की गई है
क्यो कि स्त्री मे पुरूष जैसा बल नहीं होता है।
5-सुंदरी- सुन्दरी का अर्थ है शोभाशालिनी सुन्दरी यानी सुनरी.....सुन्नर....या भोजपुरी में कहें कि पातरि गोरिया सुनर लागे.........
6-प्रमदा- हर्षित-पुलकित स्वभाव होने के कारण स्त्री प्रमदा भी है
7-तरुणी- जवान स्त्री को तरूणी कहते हैं,
8युवती- वह स्त्री जिसे यौवन प्राप्त हो। तुलसी ने कहा है दीप सिखा सम जुवती तन......
9-मोहिनी- मन को हरने वाली स्त्री को मोहिनी कहते हैं...समुद्र मंथन में मिले अमृत के लिए जब युद्ध हुआ तो राक्षसों को ठगने के लिए विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया था।
१०-मानिनी- स्त्री के लिए यह शब्द उसके मनो वैज्ञानिक स्वरूप को व्यक्त करता है ,जो स्त्री मान प्रिय होती है वही मानिनी होती है....तो मान मनुहार वाली स्त्रियाँ ही मानिनी है.....।
११-ललना - यह शब्द लालसा इच्छा चाह का द्योतक है जिस स्त्री की इच्छाएँ बहुत प्रबल होंगी वह ललना है।
१२-महिला- इस शब्द मह का अर्थ पूजा है ....पूज्य होने के कारण स्त्री का नाम महिला पडा मह का अर्थ महान भी लिया जाता है – तो आप सब समझ रहे हैं न एक स्त्री कहना चाह रही है कि सभी स्त्रियों को पूजिए क्या जाता है पूजा में.... तो फिर हे पुरूष स्त्री को पूज और आशीष ग्रहण कर उन्नति कर खुश रह । हाँ महिला का अर्थ महेला तथा महलिका भी है .....।
१३-पुत्री- यह पुत्र शब्द का स्त्रीलिंग रूप है पुत्रका या पुत्रिका प्रयोग भी कही-कहीं मिलता है ।
१४-सुता- पुत्री को सुता भी कहते है सु धातु से क्त प्रत्यय करने पर सुता रूप बनता है जिसका अर्थ है उत्पादित या पैदा किया गया
१५-बाला- सोलह वर्ष से कम आयु की युवती को बाला कहते हैं यह शब्द भी कन्या का प्रर्याय है बाला का एक अर्थ अवयस्का या तरूणी भी होता है बाला को बालिका भी कहते हैं
16-दारिका – पुत्री को दारिका इसलिए कहते हैं कि यह पिता के ह्रदयको तोड़ने वाली होती है
१७-दुहिता- कन्या को दुहिता भी कहा जाता है एंगलो सेक्शन का दोहतार ,अंग्रेजी का डाटर, जर्मन का तोखतर ,ग्रीक का धुगदर ये सभी शब्द किसी न किसी रूप मे नाता रखते हैं। बेटी का नाता अंतरर्राष्ट्रीय है....माता की तरह ही...
दुहिता वह भी है...जिसे दुतकारा जाए। यह दुहिता शब्द बहुत विस्तार लिए हुए है पर यहाँ मै हडबडी मे हूँ यहाँ काम भर का.....
१८-मध्यमिका-विवाह योग्य वयस्क कन्या को मध्यमिका या मध्यमा कहते हैं
१९-जामा- जामाका अर्थ भी पुत्री होता है।
२०-दारा- पत्नी के लिए दारा शब्द का प्रयोग संस्कृत मे बहुत किया गया है ....दारा सिंह को पता है या नहीं...इसका अर्थ...। जो पत्नी पुरूष के हृदय को चीरने वाली होती है वह दारा है
२१-रमणा,रमणी- रमणी बिना रमण का सब सुख अधूरा है ...ऐसी मान्यता है।
२२-पत्नी –पत्नी के लिए सहचरी, सखी ,सहचारिणी सहधर्मिणी शब्द का भी व्यवहार
मिलता है। पत्नी सुख दुख की साथी होती है इसलिए सखी है जीवन के हर डगर पर
पुरूष के साथ चलने वाली है इसलिए सहचरी है पुरूष के धर्म कर्म मे साझेदार है इसलिए
सहधर्मिणी है।
२३-गृहणी- पत्नी घर के कार्यभार सभालती है इसलिए गृहणी है गृहणी यानी घरनी....किसी ने कहा है...बिन घरनी घर भूत का डेरा ।
२४-प्रियतमा ,प्रेयसी- पत्नी पुरूष को प्रिय होती है इसलिए उसे प्रियतमा या प्रेयसी का सम्बोधन भी मिलता है।
२५-वधु, वधूका, वधू ,वधूरी-स्त्री पिता के घरसे मान सम्मान , धन सम्पति का पति गृह तक
वहन करती है, इसलिए वघू कहलाती है । वघू शब्द पत्नी ,पुत्रवधू ,युवती इन सभी अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । वघूरी शब्द का प्रयोग तरूणी स्त्री के लिए होता है।

इसी तरह स्त्री शब्द के और भी अर्थ प्रर्याय हैं जैसे माता, जननी, जनि, जनिका ,गणिका, मुक्ता,दारिका, विलासिनी, लज्जा ,वेश्या आदि। ऐसे कई और शब्दों का अध्ययन अगले भाग मे ...जारी

..... पढ़ कर कुछ तो कहेंगे। बड़ों को प्रणाम ,छोटो को स्नेह और अपने जैसों
को कैसे हो ,कैसी हो । इस अध्ययन में भूल के लिए क्षमा याचना सहित .........आप सब की
आभा

शनिवार, 8 मार्च 2008

बहनें

आज

आज महिला दिवस पर पर मन में बहुत कुछ चल रहा है,
क्या लिखूँ क्या न लिखूँ के बीच समय बीत रहा है,
इसी बीतने में हर दिवस हर त्यॊहार की तरह यह भी निकल न जाए.
नही़ नहीं- मैं . मैं लिखूँगी अपनी एक कविता


बहनें

बहनें होती हैं, ,
अनबुझ पहेली सी
जिन्हें समझना या सुलझान इतना आसान नही. हॊता जितना लटों
की तरह उलझी हुई दुनिया को ,

इन्हें समझते और सुलझाते .......में
विदा करने का दिन आ जाता है न जाने कब
इन्हें समझ लिया जाता अगर वो होती ......
कोई बन्द तिजोरी.......
जिन्हे छुपा कर रखते भाई या कोई......
देखते सिर्फ.....
या ....कि होती .....
सांझ का दिया .....
जिनके बिना ......
न होती कहीं रोशनी....

पर नही़
बहने तो पानी होती है
बहती हैं.... इस घर से उस घर
प्यास बुझाती
जी जुड़ाती......किस किस का
किस किस के साथ विदा
हो जाती चुप चाप .....

दूर तक सुनाई देती उनकी
रुलाई......
कुछ दूर तक आती है....माँ
कुछ दूर तक भाई
सखियाँ थोड़ी और दूर तक
चलती हैं रोती धोती
......
फिर वे भी लौट जाती हैं घर
विदा के दिन का
इंतजार करने.....
इन्हें सुलझाने में लग जाते हैं...
भाई या कोई.......।

सोमवार, 3 मार्च 2008

भात एकम् भात

छठी क्लास की गर्मी की छुट्टियों मे गाँव गई ,
खूब खूब मजे किए । फिर न उसके बाद कभी जाना हुआ
न पहले कभी ।...कुल मिला कर वो मीठी यादें जब तक
रहूगीं तब तक न भुला पाऊँगी ....
उसी यात्रा में सीखा था एक पहाड़ा.....भात का पहाड़ा....आप सब भी पढिए वह पहाड़ा......

भात का पहाड़ा


भात एकम् भात
भात दूनी दाल ,
भात तिया तरकारी
भात चौके चटनी.,
भात पंजे पापङ़
भात छक्के छाछ
भात सते सतुआ
भात अट्ठे अचार
भात नवे नमकीन
भत दहाई दही
तब भोजन सही

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

अबोध मन ने तृष्णा को सींचा था

पैसों का अंकुर नहीं फूटा !

आज बचपन की यादों ने पुकारा है मुझे...... ...उनमें से एक बात आप सब को बताऊँ....?
आप हाँ कहें या न पर मैं बताऊँगी....
मैं पाँच साल की थी....एक दिन मैंने अपनी नन्दिता दीदी का पर्स खोला...उसमें पचास पैसे के कई सिक्के मिले...मैंने दी से पूछा तुम्हारे पास इतने सारे पचास पैसे !
दी ने बताया मैंने यूनिवर्सिटी में पचास पैसे का पेड़ लगाया है...
मेरा दिमाग चल गया....मैंने अठन्नी की जगह एक रुपये का पेड़ उगाना तय किया....कैसे-कैसे करके एक रुपये के चार चार सिक्के जुटाए....और उन्हें बोने के लिए प्लास्टिक की बाल्टी से सीढ़ी के नीचे मिट्टी का ढ़ेर लगाया । फिर ईंट की मेंड़ से एक खेत बनाया..और घर के लोगों से बचा कर अपने उन चार सिक्कों को उस खेत में अंकुरित होने के लिए बो दिया.....।

महीनों मैं उन पौधों और उसके फल के बारे में खोई रही...स्कूल से लौट कर मैं सीधे अपने खेत पर जाती...सींचती ..मां कहती कि यह क्या करती है...सीढ़ी के नीचे...लेकिन मैं चुपचाप डांट खा कर अपनी खेती में लगी रहती...।
लेकिन...पौधे न उगे...पर मेरी आस न छूटी.....एक दिन स्कूल से लौट कर देखती हूँ कि मेरा खेत वहाँ नहीं है...सीटी के नीचे सब साफ सुथरा है....मेरा सरबस लुट चुका था...क्या करती...बस्ता फेंक...जूता फेंक....चिग्घाड़ मार कर रोने लगी...इस पर मां ने एक थप्पड़ लगाया जोर का...मैने अपने खेत हटाने का विरोध किया...लेकिन मां ने गंदगी फैलाने की बात करके मुझे चुप करा दिया...वह बोली और कोई खेल नहीं है तुम्हारे पास....मैं रोते हुए बाबा के पास गई...उन्हें अपनी सारी बात बताई....
उन्होंने कहा कि बेटा पैसे उगते नहीं....मेहनत करके पाए जाते हैं...फिर उन्होंने मुझे चार के बदले आठ सिक्के दिए लेकिन मैं खुश न हुई....मैं मानने को तैयार नहीं थी कि दीदी ने मुझे बेवकूफ बनाया था....
जब थोड़ी बड़ी हुई तो पैसे की खेती पर हिंदी के कवि सुमित्रा नंदन पंत की कविता पढ़ी...लगा कि पंत ने मेरे मन की सारी बातें कह दी हैं....उस कविता का एक अंश छाप रही हूँ...

यह धरती कितना देती है...

मैंने छुटपन में छिप कर पैसे बोए थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेंड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल फल कर, मैं मोटा सेठ बनूँगा.?
पर, बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने एक न पैसा उगला—
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हे गए
मैं हताश हो, बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल कत्पना के अपलक पाँवड़े बिछा कर !
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोए थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था.!

आज भी उन चार रुपयों को लेकर दुखी होती हूँ....जो मिट्टी में मिल गए...।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

वेलेंटाइन डे और शकुन्तला

रोने से नहीं लड़ने से बनती है बात

शकुन्तला देश की कुछ पहली प्रेमिकाओँ में है...उसके पहले उर्वशी और दमयंती को भी रखा जा सकता है। आज मैं यहाँ शकुन्तला के पत्नी या भार्या संबंधी विचारों को रख रही हूँ जो उसने दुष्यंत के दरबार में न पहचाने जाने पर कहे।

न पहचाने जाने पर शकुंतला लज्जा और दुख से एकदम भूमि में गड़ गई। लेकिन वह चुप हो जानेवाली स्त्री नहीं थी। उसने दुष्यंत को स्त्री के महत्व पर एक पूरा लेक्चर दे डाला। शकुंतला ने भरे दरबार में कहा

सम्राट अब तुम अपने को अकेला मानते हो, क्या तुम्हें हृदय में रहनेवाले उस पुराण मुलि काम का स्मरण नहीं रहा जो सबके पाप कर्म को जानता है। मैं स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ...यह जानकर तुम मुझ पतिव्रता का अपमान न करो। पूजा की पात्र पत्नी का सम्मान न करके उलटे तुम उसको सभा में अपमानित करते हो। यह कदापि उचित नहीं है। मैं अरण्य रोदन नहीं कर रही। क्या तुम मेरी बात नही सुन रहे।

यदि तुम मुझे स्वीकार न करोगे तो हे दुष्यंत तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जाएँगे....

शकुंतला की बात पर दुष्यंत ने उसे ,उसकी माँ मेनका और पिता विश्वामित्र को जम कर गालियाँ दी लेकिन शकुन्तला ने उसे मुँह तोड़ उत्तर दिया।

तुम मेरी भूल का तिनका देखते हो अपनी गलती का ताड़ नहीं दिखाई देता।
राजन पति ही पत्नी के द्वारा स्वयं पुत्र रूप में जन्म लेता है....यही भार्या का भार्यात्व है। भार्या मनुष्य का आधा भाग है....भार्या श्रेष्ठतम सखा है....भार्या त्रिगर्त का मूल है...भार्या के साथ ही गृहमेधी लोग क्रियावान होते हैं। जो भार्यावान हैं उन्हीं के जीवन में आमोद प्रमोद है....प्रिय वादिनी भार्या एकांत में मित्र, दुख में माताऔर धर्म कार्यों में पिता होती है....यदि साथ में स्त्री हो तो मार्गस्थ मनुष्य को जंगल में भी विश्राम मिलता है...
हे दुष्यंत इस कारण विवाह उत्तम धर्म है।

अपने पुत्र की माता अर्थात निज भार्या को माता के समान आदर दें...भार्या से उत्पन्न पुत्र दर्पण में प्रतिबिंबित आत्मा के समान है जिसे देखने से सुख मिलता है। स्त्रियाँ संतति के जन्म का सनातन और पवित्र क्षेत्र हैं...ऋषियों की भी क्या शक्ति है जो स्त्री के बिना संतान उत्पन्न कर सकें...

यहाँ मैं आज की तमाम शकुन्तलाओं से केवल यह कहना चाहूँगी कि यदि उनके दुष्यंत भूलने नाम की बीमारी के शिकार हों तो उन्हें ठीक से सबक दें। चुप हो कर सुबकने-रोने और अकेले मरने से बात न तब बनी थी न आज बननी. है......दरबार निकलते समय शकुन्तला के स्वाभिमान से भरे ये वचन याद रखने लायक हैं...
हे दुष्यंत यदि तुम्हें झूठ ही से प्रेम है तो मैं जाती हूँ.....तुम्हारे जैसे झूठे के साथ मेरा कोई मेल नहीं...और यह याद रखना कि तुम्हारे बिना बी मेरा यह पुत्र इस पृथ्वी का पालन करेगा.....चक्रवर्ती बनेगा।
हार कर दुष्यंत को शकुन्तला और उसके बेटे को अपना ही पड़ा और अंत अच्छा रहा...आप भी अच्छे अंत के लिए प्रेम करें...लेकिन बात बिगड़ जाने पर हिम्मत न हारे....दुष्यंत को भागने और बचने का मौका न दें...

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

बिन कहे भी रहा नही जाए

अपनी बात

पहला भाग..

पिछने दिनों ब्लाग पर लिख्नने की चाहत से मन बहुत सी बातें आईं और गुम भी हो गई .
इसे आलस या व्यस्ततता भी मान सकते है । ब्लॉग तक पहुचने के लिए वैसे ही रास्ता देखती
रही जैसे बच्चे की स्कूल बस लेट होने पर बार बार घड़ी की सुई और गेट पर निगाह टिकी रह्ती है. ....

हाँ न लिख पाने का कारण था बेटी भानी की चंचलता ...उसने कभी भी टाइप करने ही न दिया...और कभी लिखने बैठे तो मानस के कमेंट ने रोक लिया...एक दिन वह स्कूल से लौटा और मैं अपनी पोस्ट को खतम करने में लगी थी...मैंने उससे दो मिनट रुकने को कहा...बेटे ने कहा हमारा ...घर बर्बाद हो गया है मुझे लगा जिस घ्रर की बर्बदी का कारण मेरा बेटा समझ रहा है मुझे भी ....
जानना चाहिए ....मैने पूछा भी ,बेटे ने कहा तुम दोनो बारी बारी से ब्लाग पर बने रह्ते हो ,हम दोनो को
खाना दे देते हो देखते भी नहीं.... हमने खाया कि नहीं नाश्ता दे दिया बस ....पूछा देखा नही । मैने माना हाँ यह सच है ...
बाद में मन ही मन मंथन शुरू....... कौन खास....कौन बड़ा मेरे बच्चे या मेरा ब्लाग कौन ज्यादा जरुरी ..मेरा घर या मेरा ब्लाग अपना घर ..

फिर मन ने माना यह कोई विकट समस्या नही... ,फिर क्या बेटी को गोद और बेटे को पास बिठा... गाने
लगी प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यू डरता है दिल.......,हा..मुझे ब्लाग से प्यार है पर चाह्ती हूँ... एक अच्छी माँ बनना। एक गुम न हुई ब्लागऱ भी ......सो आई हूं एक औरत की तरह दुखड़ा और सुखडा कहने...

आगे जारी है...