बुधवार, 11 अगस्त 2010

सावन आ गया है, राखी लेकर आई हूँ


सावन आ गया है, राखी लेकर आई हूँ

अनिता कुमार जी के बज से राखी के बारे में पता चला । मैंने सोचा कि सावन आ गया । गई और राखी लेकर आई । भाइयों की कलाई और उनके मुखड़े सब सपना हो गए हैं। कई के पते नहीं हैं। लिफाफे पर नाम लिखते मन काँपता है। भाई सलामत रहें। मेरी दुआ उन तक पहुँचे। दुआ के अलावाँ और क्या दे सकती हूँ। ऐसा कोई दिन कोई पल नहीं कि भाइयों के लिए दुआ न करती हूँ। आखिर बहन जो हूँ। याद करने के अलावा और क्या कर सकती हूँ।

जब भाई फोन पर पूछता है कि ठीक तो हो तो मन भारी और शक्ति से भर जाता है।गर्व से पति की ओर देखती हूँ कि देखा भैया मेरा कितना खयाल रखता है। मैं उन लड़कियों को लेकर अक्सर सोचती हूँ जिनके भाई नहीं होते या जिन लड़कों की बहने नहीं होतीं। मायके से फोन आते ही मन विकल सा हो जाता है। मेरी बेटी भानी जब खेल रही होती है, और उसकी खुशियों भरी चीख पुकार से घर भरा होता है तो उस दिन की सोच कर थर्रा जाती हूँ कि इसे तो विदा कर देना होगा। मेरे पास रहने के इसके दिन भी गिनती के ही हैं। जायसी की एक पंक्ति याद आती है-
यह नइहर रहना दिन चारी
या कबीर कहते हैं-
नइहर खेलि लेहु दिन चारि।

जब मेरे बड़े भैया की नई-नई नौकरी लगी थी तो वे पूछते थे कि क्या चाहिए और हम जो माँगते थे मिलता था। ऐसा लगता है कि विदा के बाद माँगने और पाने का वह अधिकार कम हो गया है। आखिर मेरा कन्यादान जो हो गया है। अब उसी भाई से कुछ भी माँगने की बात अजीब क्यों लगती है। आखिर वह क्या है जो एक ही कोख से जन्में भाई और बहन को पराया कर देते हैं।

पानी सुबह से बरस रहा है। रात में भी कई-कई बार बरसा है। ऐसे में जब मैं माँ के घर में होती थी तो खिड़की पर जा कर बैठ जाती थी। पढ़ने का बहाना करके। हाथ में कोई किताब लेकर। पढ़ती एक अक्षर नहीं थी। सिर्फ बादलों को और बारिश को देखती रहती थी। बादलों की उमड़-घुमड़ से मन करता था कि सावन की फुहार बन बरस जाऊँ। कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं। पढ़े।

मैं सावन की बयार
फुहार, मेघ मल्हार
यहाँ हूँ वहाँ हूँ
जाने कहाँ हूँ
मुझसे रिमझिम सब संसार
मैं सावन की बयार।