रविवार, 30 अगस्त 2009

सुनती हूँ यह सब डरी हुई

बहुत दिनों बाद कोई कविता छाप रही हूँ। कुछ मित्रों को सुनाया तो इस पर मिली-जुली प्रतिक्रिया आई। फिलहाल इसे कुछ और कविताओं के साथ जयपुर के एक अखबार डेली न्यूज में छपने के लिए भेज दिया है। उसके पहले यहाँ पढ़ें।

सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई

मैं बाँझ नही हूँ
नहीं हूँ कुलटा
कबीर की कुलबोरनी नहीं हूँ ।

न केशव की कमला हूँ
न ब्रहमा की ब्रह्माणी
न मंदिर की मूरत हूँ।

नहीं हूँ कमीनी, बदचलन छिनाल और रंडी
न पगली हूँ, न बावरी
न घर की छिपकली मरी हुई
फिर भी
मैं सुनती हूँ यह सब कुछ डरी हुई।

नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है ....कौन है ......कौन है.....
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है मौन है मौन है।

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

क्या आप ने भी आराम के लिए लगाया है झाड़ू की तीली से इंजेक्शन


आज अपनी बेटी भानी के साथ डॉक्टर डॉक्टर खेल रही थी कि अपना बचपन याद आ गया। हमारे पास बहुत सारे खिलौने होते थे लेकिन नहीं होता था तो एक डॉक्टर सेट। हम अपने खेल में इंजेक्शन की कमी को झाड़ू की खूब नुकीली तीली से पूरा करते थे। घर को बुहारने में खूब घीसी तीली हमारा इन्जेक्शन होती।

उस खेल में हम कभी-कभी सामने वाले पर अपना खुन्नस निकालते। सुई लगाने के बहाने हम किसी की बाँह पर कस कर चुभा देते। और खेल में रोगी बने लड़के या लड़की की आई आई आई आई.....सुनाई देती । डॉक्टर बना बंदा कहता अरे इतना क्यों रो रहे हो....हम तो आराम के लिए इंजेक्शन लगा रहे है । बस थोड़ी ही देर में सब ठीक हो जाएगा।

जब हम खुद डॉक्टर नहीं बने होते और मरीज के साथ गए होते और अपना बदला भी निकालना होता तो खेल खेल में डॉक्टर को इशारा करते या उसके कान में कहते । वह रोगी की बाँह में जम कर इंजेक्शन चुभाता। और कहता आराम के लिए लगा रहे हैं। अक्सर हैपी, मधु से कान मे बोलता कि शबनम को खूब जोर से इंजेक्शन लगाओ फिर शबनम दो तीन दिन खेलने न आ पाती.......एक बार मैंने भी पूनम के कहने पर मुन्नी को झाड़ू की सुई से पूरा आराम पहुँचाया था। उसकी बाँह से खून निकल आया था। वह जब न रोई तो मैंने उससे पूछा कि रो नहीं रही हो तो उसने कहा कि मेरे आराम के लिए सुई लगा रही हो तो क्यों रोऊँ.....तब उसकी बात पर मुझे रोना आ गया था।

ऐसे होता था हमारा डॉक्टर डॉक्टर का खेल, क्या आप भी ऐसे खेल खेले हैं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग, इस आजादी से बचाओ रे राम


बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग इस आजादी से बचाओ रे राम। कैसे आजादी के चक्कर में सारे जग के आँखों के तारे हो गए हैं बेचारे ।

बढ़ती महँगाई और तेज रफ्तार जिन्दगी की रेस में जी रही महानगरों की ज्यादातर आबादी यह तो सोच रही है कि उसे क्या कुछ पाना जैसे ढेरों पैसें, घर गाड़ी वो भी एक नही कई-कई, शोहरत, इज्जत। यह सब पाने की चाहत में, माता पिता को फुर्सत ही नहीं मिलती कि उन्होंने जो पाया है उसे संजो कर रखे, अपना अनमोल रतन, अपनी संतान, अपना बच्चा

जन्म लेते ही जिसे बाई को सुपुर्द कर दिया जाता है। इतना ही नहीं इसे अपनी शान की तरह देखा जा रहा है । और दावे से कहा जा रहा है कि हम गवार नहीं कि बच्चे की सूसू पाटी–लालन पालन में गुजार दें।

बात काफी हद तक सच भी लग सकती है कि घर बैठ कर डिप्रेशन का शिकार होने से अच्छा है काम करें । क्या घर डिप्रेशिव दिवारों से होता है या उस घर में रह रहे लोगों से ? अगर पति बाहर काम कर परेशान हो रहा है तो पत्नी घर पर नहीं थकती?
उलझन इस बात की है कि माँ बाप के जद्दो जहद का शिकार हो रहें हैं बच्चे जिनकी
कोई गलती नही है । भागा भागी की रफतार में, हम बड़े खुद तो मुकाम पाने की चाहत में जाग रहे हैं भाग रहे हैं, पर हमारे बच्चे जो कभी आँखों के तारे हुआ करते थे, अब बेचारे हो गए है, इनका दुर्भाग्य यह हैं कि दिन भर माँ नही मिलती क्यों कि वह घर पर होती ही नहीं। अपने लाल-लालनी की खुशियों को अपनी मेहनत से खरीद रही होती है बेचारी। और रात में भी अक्सर इसलिए नही मिलती की वह (माँ) भी थक चुकी होती है और अगली सुबह उसे भागना होता है खुशी की खरीदारी करने। पर अफसोस कि माँ बाप जब तक इस बात को समझे की कहाँ चूक हुई, वक्त हाथ से निकल चुका होता है और भगवान भरोसे हो जाती है इन बच्चों की जिन्दगी

रविवार, 2 अगस्त 2009

स्वतंत्रता पुकारती है, पर इससे बचाओ रे राम



अस्तित्व की स्वतन्त्रता किसे अच्छी नहीं लगती, हर कोई चाहता है कि उसे आजाद छोड़ दिया जाए, उड़ान भरने के लिए । पर ऐसी आजाद उड़ान क्या सही दिशा में पहुँच कर मुकाम तय करेगी, इसकी किसे खबर। यह बात मैं उनके लिए नहीं कर रही जो 18 की उम्र को पार कर चुके हैं बल्कि मै टीन एजर्स की बात कर रही हूँ, जिन्हें सही क्या है और गलत क्या है कुछ पता नहीं होता। इस उम्र में ज्यादा तर बच्चे आजादी चाहते हैं, वे चाहते हैं कि वो जो इच्छा जाहिर करे उसे घर वाले तत्काल पूरा करें, सवाल है क्या हर इच्छा पूर्ति सही है, क्या मां-बाप प्यार में अंधे हो कर अपने ही बच्चे या बच्ची के अस्तित्व को अधर में नहीं लटका देते। जहाँ वह न तो शान से जी सकता है और उसकी मुश्किल है कि मुँह चुरा कर जीना नहीं चाहता है या चाहती हैं ।


अपने ही घर की बात करूँ तो मेरा बेटा मानस जो कि 8वीं में पढ़ता है और घर आने जाने वाले, नातेदार सभी उसकी तारीफ करते कहते हैं कि मानस बहुत सहज सरल है, या मानस बड़ा अच्छा लड़का है, उसकी तारीफ सुन कर खुश होने के साथ ही मैं मन ही मन डर कर कह पड़ती हूँ, हे प्रभो इस जीवन में कुछ देना या न देना दो अच्छे बच्चों की मां जरूर बने रहने देना, पता नहीं भगवान मेरी सुन रहे हैं कि नहीं यह तो समय ही बताएगा, करनी भरनी तो देखना ही होगा।


बनने बिगड़ने के सवाल का जवाब ढूढते हुए मैने आठवीं में पढ़ रहे अपने बेटे मानस से एक दिन पूछा कि जब तुम्हारी कोई माँग तत्काल पूरी नहीं की जाती तो तुम क्या सोचते हो, मानस ने कहा मेरा तो काम है माँग करना, सही या गलत समझना तुम्हारा फर्ज है, तुम मां हो ।

मैंने मानस से समझ लिया मां के फर्ज को ....प्यार दुलार के साथ अनुशासन ही सही दिशा है. ।अक्सर इस बात का भय सताता है कि जो सहज होता है वही जल्दी भटकता भी है.....। अगर बात करूँ पारिवारिक माहौल की तो यह भी तय है कि कोई भी घर- परिवार झगड़े और वैचारिक भेद से परे नहीं है । इस परिस्थित में यदि हम पति- पत्नि के बीच बहस होती है, वह चाहे पारिवारिक हो या कोई सामाजिक, राजनितीक मुद्दा, उस वक्त हम या कोई भी सिर्फ अपनी बात साबित करने पर तुले होते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि इस बहस का नतीजा हमारे बच्चों को क्या क्या सोचने को मजबूर करेगा । ऐसी ही बहस की स्थित में एक दिन मैनें बेटे मानस से पूछा बेटा, तुम मेरे और पापा के बारे क्या सोचते हो सिर्फ एक एक वाक्य लिख कर दो। बेटे ने लिखा मेरे पापा बहुत मजाकिया और थोड़े गुसैल आदमी है । मेरी माँ नेक ख्याल रखने वाली पारखी महिला है, हम दोनों के बारे में मानस की यह राय सुकून देती रही। साथ ही मानस से जब यह पूछा कि अगर तुमसे कहा जाए कि तुम अपने फैसले खुद लो तो उसने उत्तर दिया, फैसला लेना तो आता ही है पर उस फैसले से मुझे सही मुकाम मिलेगा या नहीं यह पता नहीं, ऐसे फैसले तो जिन्दगी को जुए की तरह खेलने जैसा होगा जहाँ हमें जीत भी मिल सकती है बरबादी भी।
मेरे कहने का मतलब सिर्फ यह है कि क्या 18 साल से कम उम्र के बच्चों को पूरी स्वतन्त्रता दे दी जाए? क्या हर बच्चा परिस्थित के हिसाब से सही को सही और गलत को गलत समझ सकता है ?

लगातार.......