बुधवार, 12 दिसंबर 2007

बुद्ध की निगाह में पत्नियों के प्रकार और मेरी उलझन

जातक कालीन भारतीय संस्कृति पढ़ते हुए मैं एक जगह रुक गई। जहाँ भगवान बुद्ध पत्नी यानी भार्या के प्रकार गिनाते है। उनकी निगाह में पत्नियाँ सात तरह की होती है। उनका यह विभाजन कितना उचित है कितना नहीं इसके मूल्यांकन का कोई इरादा नहीं है। यह जरूर है कि उनका विभाजन मुझे बहुत रोचक लगा।

1- वधक भार्या- जो दुष्ट चित्तवाली, अहित करनेवाली दया रहित, दूसरे को चाहनेवाली, अपने पति का तिरस्कार करनेवाली, धन से खरीदे गए दास-दासियों का अपमान करनेवाली पत्नी को बुद्ध वधक भार्या मानते हैं।
2- चोर भार्या- पति का धन चुरा कर अपने पास रखनेवाली चोर भार्या होती है

3- आर्या भार्या- अधिक खाऊ , क्रूर स्वभाव , कटु बचन बोलनेवाली और आलसी होती है।

4- माता भार्या- हमेशा दया करनेवाली, माँ की तरह पति की रक्षा करनेवाली, पति की कमाई की भी रक्षा करनेवाली, को बुद्ध माता भार्या मानते हैं।

5- भगिनी भार्या-लज्जा शील, गौरवशील, पति के वश में रहनेवाली भगिनी भार्या है।

6- दासी भार्या-मार पिटाई और अपमान सहनेवाली और क्रोध को पी जानेवाली शांत स्वभाव वाली पत्नी दासी भार्या है।
7- सखी भार्या – वह है जो कुल शीलवाली कुळ की मर्यादा का ध्यान रखनेवाली, पतिब्रता और पति को देखते ही इस तरह खुश होनेवाली कि जैसे बहुत दिनों का बिछुड़ा गहरा दोस्त मिल गया हो।

आप सब समझदार है खुद देखें और जाँचे कि बुद्ध का विभाजन कितना सही है । यह बंटवारा स्त्री जाति के मान अपमान के लिए किया गया है या गृहस्थों की निगाह में पत्नी के प्रति उलझन या शंका उत्पन्न करने के लिए या पतियों को घर से भाग कर भिक्षु बनने के लिए। खुद अपने जीवन में अपनी सोती हुई पत्नी यशोधरा को छोड़ कर निकल जाने वाले बुद्ध की निगाह में यशोधरा किस तरह की पत्नी थी यह सवाल भी मेरे मन के दुखी किए है। में उलझन में हूँ...आप भी सोचें और बताएँ..। आप यदि पत्नी हैं तो बुद्ध के इस पैमाने पर कहाँ ठहरती हैं और यदि आप पति हैं तो आप अपनी पत्नी को कहाँ पाते हैं..।
नोट-अधिक जानकारी के लिए पढ़े जातक कालीन भारतीय संस्कृति नाम की पोथी जिसके लेखक हैं पंडित मोहनलाल महतो वियोगी जी।

सोमवार, 10 दिसंबर 2007

पूरब वाले घर में पैदा हुए थे बोधिसत्व




आज बोधि का जन्म दिन है। वैसे बोधि 11 दिसंबर 1968 की रात में 2 बज कर 15 मिनट पर अपने गाँव भिखारी राम पुर के पूरब वाले घर में जन्में थे। ऐसा मुझे मेरी सासू मां ने बताया था। इस हिसाब से उनका जन्म दिन बारह दिसंबर भी हो सकता है. । अपने जन्म प्रसंग को बोधि ने अपनी एक कविता में कुछ ऐसे लिखा है-
मैं सोता हूँ किन्हीं पसलियों की ठंड़ में
या अपने पूरब वाले घर में
जिसमें मैं पैदा हुआ था
जाड़ों की भोर में कभी
मुझे और कहीं कल नहीं।

सच में बोधि को और कहीं कल नहीं है। पर समय के हिसाब से हर कोई घर से निकलता ही है।मैं पिछले सोलह सालों से बोधिसत्व को जानती हूँ और हर जन्म दिन पर बोधि अपने पूरबवाले घर के लिए छटपटाते हैं। इलाहाबाद में रहते थे तो पूरब के घर तक हर जन्मदिन में पहुंच पाते थे पर मुंबई के बाद सब कुछ सपना सा हो गया है। उनके लिए भी और हम सब के लिए भी।

आज सुबह होते ही मानस ने उन्हें जनम दिन की शुभकामनाएँ दे दीं हैं भानी का कहना है कि आज पापा का नहीं उनका ही हैप्पी बर्थडे है। बोधि के मित्रों और घर वालों के बधाई वाले फोन आ रहे है । बोधि खुश है। अपने हर जनम दिन पर यह बंदा लगभग बच्चों सा हो जाता हैं...भोला, जिद्दी और भावुक।

ऊपर की फोटो में बोधि गोवा के समुद्र में तन और मन को स्फूर्ति से भर रहे हैं। अपने जिद्दी बंदे को जन्म दिन की ढेरों शुभकामनाएँ

शनिवार, 1 दिसंबर 2007

यहाँ निराला


हिंदी के सूर्य निराला को तो आप सब ने पढ़ा ही होगा। उनकी बहुत सी छवियाँ भी देखीं होंगी। निराला जी की एक छवि यह भी देखें। यह चित्र उन्होंने स्वयं सरस्वती संपादक को दी थी। निराला का जन्म 1896 की बसंत पंचमी पर बंगाल के महिसादल में हुआ था। उनकी मृत्यु 15 अक्टूबर 1961 को सुबह 9 बज कर 23 मिनट पर इलाहाबाद के दारागंज में हुई । यह छवि उनके युवा अवस्था यानी 1939 की है। तब वे 43-44 साल के थे। यह चित्र सरस्वती पत्रिका के 1961 के दीपावली अंक से साभार है। उनको समर्पित मेरी यह कविता भी पढ़ें।


यहाँ

यहाँ नदी किनारे मेरा घर है
घर की परछाई बनती है नदी में ।

रोज जाती हूँ सुबह शाम नहाने गंगा में
गंगा से माँगती हूँ मनौती
एक बार देख पाऊँ तुम्हें फिर
एक बार छू पाऊँ तुम्हें फिर ।

एक बार पूछ पाऊँ तुमसे
कि कभी मेरी सुधि आती है

गंगा कब सुनेंगी मेरी बातें
कब पूरी होगी मेरी कामना
ऐसी कुछ कठिन माँग तो नहीं है यह सब

यदि कठिन है तो माँगती हूँ कुछ आसान
कि किसी जनम हम तुम
एक ही खेत में दूब बन कर उगें
तुम्हारी भी कोई इच्छा हो अधूरी
तो मैं गंगा से माँग लूँ
मनौती,
गंगा मेरी सुनती हैं।

15 सितंबर 2004

शनिवार, 3 नवंबर 2007

वह प्लम्बर कौन था

वह पलम्बर कौन था जो हम सब के लिए भगवान बन कर आया था। आया तो था वह घर का नल ठीक करने के लिए पर मेरी माँ को जीवन दान दे गया। वह मेरी बीमार माँ को आग में झुलसने से बचा गया। उसका आना महज एक संयोग था या और कुछ।

माँ भाई और भाभी के साथ नोयडा में रहती हैं। भैया भाभी दोनों सुबह ही ऑफिस निकल गये थे। उनकी दोनों बेटियाँ भी पढ़ने स्कूल चली गईँ थीं। घर में काम करनेवाली लड़की किरन ही थी उस समय माँ के साथ, लेकिन वह काम में लगी थी । माँ बीमारी के बाद भी बिना पूजा किए नहीं रहतीं। कल वह पूजा करने जा रही थी कि तभी वह प्लम्बर आया । नल ठीक करने। किरन दरवाजा खोल कर काम में लग गई। माँ हर दिन की तरह पूजा कर रही थी कि उसकी साड़ी का पल्लू दीये की लौ से लिपट गया और उसमें आग लग गई। पर माँ को खुद कुछ पता नहीं था और वह आरती और पूजा में मगन थी। उस प्लम्बर ने माँ के पल्लू को जलते देखा और लपक कर उसने आग बुझाई। माँ एक बड़े हादशे का शिकार होने से बच गई। माँ इस समय पैंसठ छाछठ साल के आस-पास की है और उसका बायाँ पक्ष लकवे का शिकार है इस कारण उसमें वह पुरानी तेजी नहीं रह गई है। अगर वो जल जाती तो बहुत बुरा होता उसके साथ। और हम उसकी छाया से वंचित हो जाते। उम्र और बीमारी आदमी को कैसे बदल देते हैं जबकि मेरी माँ बड़ी समझदार पढ़ाकू और ज्ञानी महिला है। वो कौन है माँ के अलावा उसके गुन फिर कभी गाऊँगी।

फिलहाल तो यही सोच कर मन को शांति है कि मेरे भैया एक बड़ी मानसिक सामाजिक और कानूनी तकलीफ में पड़ने से बच गए। जब कि वो माँ का अपने बच्चो से बढ़ कर ध्यान रखते हैं साथ ही मेरी भाभी भी । आज मेरे दोनों पिता नहीं है यानी मेरे बच्चों के नाना और दादा। मेरी दोनों माएँ स्वस्थ रहे और उनका आशीष बना रहे यही इच्छा है।


मैं माँ से बहुत दूर हूँ । हालाकि सुबह उससे बात हो गई है और वह ठीक है। पर सोच रही हूँ कि अगर वह प्लम्बर न आया होता तो पता नहीं क्या होता। आज तो उस प्लम्बर का ही गुन गाने का मन है जिसने मेरी माँ को जलने से बचाया। भगवान उसका भला करें। जिसका नाम तक हमें नहीं पता ।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

जैसे स्वर्ग की अप्सरा थी अब घरेलू मक्खी हूँ

आते ही माफी माँग लूँगी

आजकल मेरा बेटा मानस का मन पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लग रहा है। दूसरी ओर मैं लगातार दो महीने से अपनी तबीयत खराब होने से दवाओं में उलझी हूँ। कल रात मैंने मानस को न पढ़ने के लिए कुछ ज्यादा ही डाँट दिया। अपनी डाँट से मैंने मानस को ठीक से एहसास दिला दिया कि मैंने उसके ही कहने पर अपनी नौकरी छोड़ी है। जब मैं पढ़ा रही थी तब उसका कहना था कि बेबी सिटिंग में उसका मन नहीं लगता है।

उसी दौरान उसका एक छोटा सा ऑपरेशन भी हुआ जिसके चलते वह करीब 20 दिन स्कूल से बाहर अस्पताल और घर पर रहा। उसके साथ साथ छुट्टी लेकर मैं भी लगातार घर पर बनी रही। लेकिन ठीक होने के बाद वह स्कूल जाने को तो राजी था पर बेबी सिटिंग जिसे महाराष्ट्र में पालणा घर कहते हैं में दिन गुजारने को तैयार नहीं था। विरोध के लिए या जिस भी कारण से उसने टिफिन खाना छोड़ दिया। पूरा टिफिन घर लाता और बेबी सिटिंग में भी कुछ नहीं खाता था। उसके इस व्यवहार से हम सब लगातार परेशान रहने लगे। ऐसा करीब दो महीने चला । मैं इस उम्मीद में थी कि बेटा समझ जाएगा और सब ठीक हो जाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बल्कि कुछ दूसरा ही हुआ। जो कि एक दम उम्मीद के खिलाफ था। उसके पापा दिल्ली गए थे और रात में दस बजे मैं उसे सुला कर सो गई । रात में उसके रोने की आवाज सुन कर मैं जाग गई। करीब एक बजे थे और वह सोने की जगह चादर में मुँह ढँक कर रो रहा था । मैंने रोने की वजह पूछी तो बोला कि तुम कल से पढ़ाने मत जाओ। मैं अकेले घर में रहूँगा लेकिन बेबी सिटिंग में नहीं जाऊँगा। बात चीत के बीच मानस ने कहा कि उसे एक भाई या बहन भी चाहिए।

उसकी बातें सुन कर मैं परेशान हो गई और उससे कहा कि वह सो जाए। मैं पढ़ाने नहीं जाऊँगी। अगले दिन मैंने विद्यालय को इस्तीफा लिख कर काम से छुट्टी पाली। दिल्ली से लौटने पर मानस के पापा से मानस की बातें बताईं। पहले तो वे काफी भड़के फिर मेरे फैसले को सही बताया। उसके बाद मेरी बेटी भानी पैदा हुई। मानस और भानी दोनों की उम्र में काफी फर्क है लगभग 8 साल का। लेकिन तब से मानस खुश है और दोनो हिल मिल कर रहते हैं।

लेकिन कल उसे डाँट कर मैं इस उलझन में पड़ गई हूँ कि मैंने उससे अपनी नौकरी छूटने का कोई बदला तो नहीं चुकाया। मैंने उसे यह तक जता दिया कि जैसे मैं नौकरी करते समय मैं स्वर्ग में अप्सरा थी और अब घरेलू मक्खी हो गई हूँ।
हालाकि अभी वह नार्मल है और स्कूल गया है पर मैं सोच रही हूँ कि उसके आते ही उससे माफी माँग लूँगी ।

रविवार, 14 अक्तूबर 2007

जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान

संतोष से सुख
गीता में वे आदर्श जीवन मूल्य हैं जिन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए। पर वास्तविक समस्या तो मन की है। किसी चीज को देख कर मन में उसे पाने की एक स्वाभाविक इच्छा जाग जाती है। इससे लोभ उत्पन्न होता है। फिर मन संयमित नहीं है तो वह ईर्ष्या द्वेष में जकडता चला जाता है। उसी लोभ की चिंता में डूबने-उतराने लगता है। केवल धन मिल जाने से कोई सुखी नहीं हो सकता । क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं है। एक को पाकर दूसरी को पा लेने की इच्छा यह मनुष्य का स्वभाव है।
इसी लिए संतोष की महिमा गाई गई है। संत कबीर कहते हैं-

जिनके कछु ना चाहिए सोई सहंसाह

कबीर की निगाह में राजा वही है जिसे कोई कामना न हो। इच्छा के मिट जाने से मनुष्य सभी प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो कर बेपरवाह हो जाता है। और चिंचित राजा हर हाल में राज्य विनाश ही करेगा। अपना घर भरने के लोभ में वह राज्य को निजी सम्पति बनाने के हर संभव उपाय करेगा।

राजा ही नहीं किसी को भी संतोष धन पाने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि संतोष ही असल धन है। क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

मेरा तेरा नाता

एक कई साल पुरानी कविता छाप रही हूँ........पता नहीं इसके भाव अभी पुराने पड़े हैं या नहीं। आप सब पढ़े और बताएँ....

संबंध


चलो हम दीया बन जाते हैं
और तुम बाती ...

हमें सात फेरों या कि कुबूल है से
क्या लेना-देना

हमें तो बनाए रखना है
अपने दिया बाती के
संबंध को......... मसलन रोशनी

हम थोड़ा-थोड़ा जलेंगे
हम खो जाएँगे हवा में
मिट जाएगी फिर रोशनी भी हमारी
पर हम थोड़ी चमक देकर ही जाएँगे
न ज्यादा सही कोई भूला भटका
खोज पाएगा कम से कम एक नेम प्लेट
या कोई पढ़ पाएगा खत हमारी चमक में ।

तो क्या हम दीया बन जाए
तुम मंजूर करते हो बाती बनना।
मंजूर करते हो मेरे साथ चलना कुछ देर के लिए
मेरे साथ जगर-मगर की यात्रा में चलना....कुछ पल।

रविवार, 23 सितंबर 2007

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ

डॉटर्स डे पर चक दे बेटियाँ

डॉटर्स डे मना रही हूँ, पर एक सवाल मन में बार-बार उठ रहा है कि चक दे इंडिया में कोच कोई महिला क्यों नहीं। कोई भी कह सकता है कि फिल्म चलती नहीं। खैर ।
बात इतनी सी है कि डॉटर्स डे उन बेटियों तक कोई रोशनी नहीं ले जा रहा है जिन्हें वाकई इस की जरूरत है। डॉटर्स डे या सन डे मनाने भर से बात नहीं बनने वाली। सिर्फ बेटा-बेटी एक समान कह देने भर से मामला दुरुस्त नहीं होती। आज भी लोग बेटी पैदा करने से बच रहे हैं। डॉक्टर आराम से कोख में बेटियों को कत्ल कर रहे हैं और समाज चुप है। एक खबर बनने के आगे बात नहीं जा रही है। बिना दहेज के शादियाँ
नहीं हो रही हैं। बेटियाँ बहू बन कर जल रही हैं। और एक खबर के बाद सब बराबर। सब ढर्रे पर हो जाता है।

आज समाज के कई हिस्सों में औरतें डट कर काम कर रही हैं। पर उनकी तादाद कितनी है। लोक सभा और विधान सभा की बात तो है ही मेरा सवाल है कि हजार ब्लॉगर में औरतें या बेटियाँ कितनी हैं। एक सुनीता और कल्पना के उड़ान भरने से भारत के तमाम पिछड़े गाँवों की लड़कियों को उड़ने का मौका नहीं मिल जाता। वे कैद हैं। कभी संस्कार के नाम पर कभी परंपरा और परिपाटी के नाम पर। आज भी यह गीत सुनाई दे जाता है कि अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ। मैं आज के दिन यह कहना चाहूँगी कि औरतें खुद ही अपना भविष्य बदल सकती हैं। और बदलेंगी भी। कभी वह दिन आएगा जब यह गीत यूँ गाया जाएगा अगले जनम मोहे बिटिया कीजौ। डाटर्स डे जिंदाबाद.....।

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

रामलीला और सीतवा

देवताओं के साथ लीला

हम जब छोटे थे तब मोहल्ले के बच्चों के साथ एक झुंड बनाकर रामलीला देखने जाते थे। हम लोगों को घर के लोग रामलीला देखने जाने से रोकते थे और रोकने का करण पूछने पर बताया जाता था कि इस तरह की रामलीला में रामायण और देवी-देवताओं का मजाक उड़ाया जाता है। फिर भी हम बच्चे किसी ना किसी तरह से रामलीला देखने चले ही जाते थे। कभी घर के लोंगों को पटा कर कभी चोरी छिपे।

वहाँ पहुँच कर लगता कि साक्षात राम सहित सभी देवताओं के दर्शन हो गये। देवताओं को देखने के बाद लगता कि घर वाले ही मूरख थे जो आने नहीं दे रहे थे।

ठीकठाक चल रही रामलीला में कुछ ऐसा होता जिससे सभी दर्शक खूब हँसते। हुआ कुछ ऐसा । लखन को शक्ति वाण लगने पर सीता के रोने का प्रसंग था। सीता रो रहीं थी । दर्शकों का हँसना सीता के रोने पर था । सीता यह कह कर रो रहीं थी कि –

अब हमके फटफटिया पर के घुमाई।
अब हमके जलेबिया के खिआई ।
अब हमके सिनेमा के देखाई
अब हमरे मेला के देखाई।

सीता का यह रोना दर्शकों को रुलाने की जगह हँसा गया था। हँसने में हम भी भूल गये थे कि यह कैसी सीता और कैसा उसका दुख।

बाद में सीता हरण भी हुआ। अगले दिन हम फिर रामलीला मैदान पहुँचे। हम सब तन्मय होकर रामलीला देख रहे थे तभी किसी दर्शक ने कल की लीला में सीता की भूमिका करने वाले लड़के को पहचान लिया। आज उसकी भूमिका नहीं थी और वह खुद रामलीला देखने आया था। अपने पास सीता को पैंट-शर्ट में पाकर हम हैरान थे। कल जिस के हरण और विलाप पर हम रो और हँस रहे थे वह आज हमारे बीच बैठा दूसरे पात्रों पर हँस रहा था । किसी एक ने जोर से पुकारा अरे सितवा आया है ....सितवा । कुछ दर्शक सीता को देखने लपके लेकिन तब तक खेल खतम हो गया दर्शक उठने लगे और सितवा भीड़ में खो गया ।

देवी देवताओं को लेकर घरवालों का नजरिया तब हमें बुरा लगा था लेकिन बाद में हम समझ गये कि घरवाले ठीक थे। आज भी देश में कुछ लोग ऐसा ही कर रहे हैं। उनके लिए सीता राम मजाक के पात्र हैं । खेल का विषय। और हम सब दर्शक । कोई इस खेल को रोकने वाला नहीं है।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

पिछड़े आदमी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट

आज कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का जन्म दिन है। पढ़िए उनकी दो कविताएँ।


पिछड़ा
आदमी


जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था,
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट

गोली खाकर
एक के मुँह से निकला -
'राम'।

दूसरे के मुँह से निकला-
'माओ'।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
'आलू'।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

हिंदी दिवस पर देशगान

हिंदी दिवस के मौके पर अपने एक प्रिय कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता छाप रही हूँ। यह महज संयोग नहीं कि कल यानी 15 सितंबर को उनका जन्म दिन भी है। कल मैं उनके परिचय के साथ उनकी कुछ और कविताएँ छापूँगी।

देशगान

क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।
बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है।
आँख में दरिया है सबके
दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

हैं सभी माहिर उगाने
में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

पेड़ हो या आदमी
कोई फरक पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

प्रश्न जितने बढ़ रहे
घट रहे उतने जवाब
होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

खूँटियों पर ही टँगा
रह जाएगा क्या आदमी ?
सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है।
क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।


नोट- राजकमल, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ संग्रह से।

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

हर आदमी के भीतर होते हैं दस-बीस आदमी

वह कौन था ?

हर आदमी में होता है दस-बीस आदमी इस बात को लेकर मैं सोचती रही हूँ। पता नहीं यह किस शायर का कहा है पर जहां तक मुझे याद है कि यह बशीर बद्र का लिखा है। अगर मैं गलत भी हूँ तो भी बात सटीक उतरती है लोगों के बारे में दुनिया जहान के बारे में और मेरे अपने बारे में भी । कभी ये विचार बहुत परेशान करता रहा तो कभी बहुत शुकून भी देता है ।

एक व्यक्ति में क्या सच में कई व्यक्ति होते हैं । कल शाम को यह मैं सोच ही रही थी कि मेरे बड़े भाई का दिल्ली से फोन आया। जैसे बातें होती हैं हुईं। हाल-चाल हुआ। पूछा कि मैं क्या कर रही हूँ। मैंने बताया घर में रह कर और क्या कर सकती हूँ । बच्चों के देख भाल के अलावा कुछ कविता- कविता कर रही हूँ । एक ब्लॉग खोला है। कभी-कभी उस पर कुछ लिखती हूँ। पर अभी गति नहीं है। रोज लिखना चाहती हूँ पर लिख नहीं पाती हूँ। बातें बहुत सारी कहना चाहती हूं कह नहीं पाती। भीतर बैठा एक दूसरा आदमी मुझे रोक लेता है। । यह लिख यह नहीं। भाई ने कहा कि यह सब दुनियादारी छोड़ कर घर -गृहस्थी देखो। इन बातों से कुछ बनने वाला नहीं। लोग लिख तो रहे हैं हजारों पन्ने हर दिन काले हो रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है दुनिया पर। आशीष और आदेश देकर भाई ने कहा कि दो अच्छे बच्चों की माँ हो उन्हे अच्छा इंसान बनाओ। उनका खयाल रखो। वे ही तुम्हारा लेख और लेखन होगें संसार में। वे ही तुम्हारी कविता कहानी हैं। यही समझ कर चलो।

कल शाम से अब तक उलझी हूँ। मैंने भाई से बात की या किसी और से। यह कौन था जो समझा गया। यह कौन था मेरा भाई या उसके भीतर का कोई और आदमी। जो बिना जरूरत के भी कुछ बता गया। कुछ समझा गया और मैं चुपचाप सुनती रही। यह मैं ही सुन रही थी या कोई और।

मैंने पलट कर भाई को फोन किया । मैंने कहा भाई लिखने में हर्ज क्या है। क्या लिखना गुनाह है। भाई ने कहा नहीं यह मैंने कब कहा। मैंने तो यह कहा था कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी पहली जिम्मेदारी हैं। और ब्लॉग पर लिखना खाली या खलिहर लोगों का खेल है।

इस बात के बाद मैं परेशान हूँ। मैं ब्लॉग लिखूँ या नहीं। मेरे बीतर बैठी एक माँ सवालों के घेरे में है। और मुझे लगने लगा है कि मैं बच्चों का खयाल कम रख रही हूँ। जबकि ऐसा एकदम नहीं है। मैं पिछले ११-१२ सालों से सिर्फ बच्चों की नींद सो और जाग रही हूँ। मैं जानती हूँ कि ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कर रही हूँ। हर माँ की यही दिनचर्या होती होगी। बच्चों की नींद सोना और जागना।

हालाकि मैंने सचमुच पाया है कि हर आदमी के भीतर एक ही समय में कई आदमी डेरा डाले रहता है।

बुधवार, 5 सितंबर 2007

एक बात

तुम्हारी कविता

तुम्हारी कविता से जानती हूँ
तुम्हारे बारे में
तुम सोचते क्या हो ,
कैसा बदलाव चाहते हो
किस बात से होते हो आहत;
किस बात से खुश

तुम्हारा कोई बायोडटा नहीं मेरे पास
फिर भी जानती हूँ मैं
तुम्हें तुम्हारी कविताओं से

क्या यह बडी़ बात नही कि
नहीं जानती तुम्हारा देश ,
तुम्हारी भाषा तुम्हारे लोग
मैं कुछ भी नहीं जानती ,
फिर भी कितना कुछ जानती हूँ
तुम्हारे बारे में

तुम्हारे घर के पास एक
जगल है
उस में एक झाड़ी
है अजीब
जिस में लगता है
एक चाँद-फल रोज
जिसके नीचे रोती है
विधवाएँ रात भर
दिन भर माँजती है
घरों के बर्तन
बुहारती हैं आकाश मार्ग
कि कब आएगा तारन हार
ऐसे ही चल रहा है
उस जंगल में

बताती है तुम्हारी कविता
कि सपनों को जोड़ कर बुनते हो एक तारा
और उसे समुद्र में डुबो देते हो।

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

अरुण कमल की एक कविता

इन्तजार

जिसने खो दी आँखें वह भी एक बार
झाड़ता है अपनी किताबें
बादल गरजते हैं उसके लिए भी
जो सुन नहीं सकता
जो चल नहीं सकता उसके सिरहाने भी
रखा है एटलस
जिसने कभी किसी से साँस नहीं बदली
उसे भी इन्तजार है शाम का।

नोट- यह कविता उनके चौथे संकलन पुतली में संसार से यहाँ लिया गया है। संकलन वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से छपा है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2007

बचपन बिंदास

हम ऐसे ही गाते रहे हैं

एक बार की बात है मैं छोटी थी, मेरे भैया ने कहा कि तुम जानती हो यह गाना 'रहने दो छोडो़ जाने दो यार हम ना करेंगे प्यार ' मैंने कहा हाँ जानती हूँ । भैया ने कहा बताओ तो क्या है मैंने कहा कि एक बच्चा अपने माथे का टीका मिटा रहा है तो उसके चाचा कहते हैं कि ऐसा मत करो , फिर बच्चे के न मानने पर चाचा गाते हैं रहने दो छोडो़ मिटाने दो यार हम ना करेंगे प्यार मौज़ूद सभी हंसने लगे .मैं बहुत दिनों तक यह गाना ऐसे ही गाती रही .

मेरा छोटा भाई शैलू काहे इतना गुमान गोरिये गाने को गाता था काहे इतना डिमांड गोरिये। हम सब बचपन में ऐसे ही गाते रहे हैं। मेरी बेटी भानी पार्टनर के गाने लव मी को लंबी लंबी गाती है। और सही करने पर मानती नहीं।

मंगलवार, 31 जुलाई 2007

सर दर्द का आनन्द

बच्चों के साथ

न दवा न चम्पी किसी भी तरह से आराम नहीं मिल रहा था . सबेरे से सिर फट रहा था. सो भी नहीं सकती थी, क्यों कि बेटी के आने का समय हो चला था. तभी वह मेरी ढाई बरस की रानी स्कूल से वापस आ गई और उसने
अपनी ही तरह से अपनी बात रखी ! मसलन मुझे गोद मे लो
फिर इस कमरे से उस कमरे ,कीचन मे घुमाती रही यह नहीं
वो चाहिए, नहीं नहीं आईस्क्रीम चाहिए. उसकी मांगें पूरी होतीं कि तब तक बेटा भी स्कूल से आ गया, और बोला, मम्मा जल्दी से सत्तू के पराठे बनाओ , बनाया, बेटी ने अपना दुख भैया को सुनाया,कि उसे मम्मी ने आइसक्रीम नहीं दिलाया, भैया ने कहा मे दिलाऊंगा
हालाकि भैया अभी कुल बारह बरस के ही हैं। मेरा आज का दिन सर दर्द के बावजूद बच्चों के साथ आनन्द से बीता.ये दोनो ना होते तो दर्द तो होता पर यह आनन्द नहीं.

रविवार, 15 जुलाई 2007

कविता

स्त्रियां

स्त्रियां घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियां .पीढी दर पीढी .स्त्रियां बना रही हैं
उस्ताद फिर गुरु, अपने ही दो चार बुझे-अनबुझे
शव्दों से ,

दे रही हैं ढांढस, बन रही हैं ढाल,
सदियों से सह रही हैं मान -अपमान घर और बाहर.
स्त्रियां बढा रही हैं मर्यादा कुल की खुद अपनी ही
म्रर्यादा खोकर,

भागमभाग में बराबरी कर जाने के लिये
दौड रही हैं पीछे-पीछे,

कहीं खो रही हैं
कहीं अपनापन,
कहीं सर्वस्व.

सोमवार, 9 जुलाई 2007

आभा की दूसरी कविता

बन्धन

हेनरी फ़ोर्ट ने कहा-
बन्धन मनुष्यता का कलंक है,
दादी ने कहा-
जो सह गया समझो लह गया,
बुआ ने किस्से सुनाएँ
मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सीता के,
तो मां ने
नइहर और सासुर के गहनों से फ़ीस भरी
कभी दो दो रुपये तो
कभी पचास- पचास भी।
मैने बन्धन के बारे मे बहुत सोचा
फिर-फिर सोचा
मै जल्दी जल्दी एक नोट लिखती हूँ,
बेटा नीद मे बोलता है,
मां मुझे प्यास लगी है।

रविवार, 24 जून 2007

आभा की कविता

बड़े भाई से बातें
( उन तमाम भाइयों के लिए जो जीवन में असफल रहे)

भाई तुम ईश्वर नहीं
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ-साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं तुम्हारे आगे।

लेकिन भाई तुम ही बताओ
उस भाई का क्या करें
जो तुम्हारी ही तरह भाई है हमारा
जो खोटे सिक्के सा फिर रहा है
इस मुट्ठी से उस गल्ले तक
मारा-मारा।

जब कि
उस भाई ने
किया है छल कहीं ना कहीं खुद के साथ ही
तो क्या उसकी सजा कहें भाई को
या कि

सिर्फ गाहे-ब-गाहे
गलबहियाँ दे कर सिर्फ भाई कहें उस
भाई को।

भाई जो मर्यादा है मुकुट है किसी का
उस भाई का क्या करें
उसे रहने दें यूँ ही
गुजरने दें ।

माँ-बाप तो सिर्फ जन्म देते हैं
युद्ध में तो भाई ही भाई को हथियार देता है
सो युद्ध के संगी रहे भाई को हथियार दो
युद्ध के गुर सिखाओ भाई को ।


तुम तो जानते हो
कि उस भाई ने हमेशा मुंह की खाई है
जिया है तिल-तिल कर
भाई तुम तो
सब कुछ जानते ही नहीं पहचानते भी हो कि
जब भी आएगी दुख की घड़ी
भाई ही तुम्हारा संगी होगा
जूझने के गुर सिखाओ उस भाई को ।

अब क्या –क्या कहूँ तुमसे
पर जी होता है
कि एक टिमकना लगाऊँ तुम्हारे माथे पर
ताकि दुनिया-जहान की नजर ना लगे तुम्हें।

भाई तुम ईश्वर नहीं
भाई हो
भाई तुम पानी नहीं भाई हो
बल्कि कह सकती हूँ साफ-साफ
कि पिता कि कोई जगह नहीं रही
तुम्हारे आगे।