मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

जैसे स्वर्ग की अप्सरा थी अब घरेलू मक्खी हूँ

आते ही माफी माँग लूँगी

आजकल मेरा बेटा मानस का मन पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लग रहा है। दूसरी ओर मैं लगातार दो महीने से अपनी तबीयत खराब होने से दवाओं में उलझी हूँ। कल रात मैंने मानस को न पढ़ने के लिए कुछ ज्यादा ही डाँट दिया। अपनी डाँट से मैंने मानस को ठीक से एहसास दिला दिया कि मैंने उसके ही कहने पर अपनी नौकरी छोड़ी है। जब मैं पढ़ा रही थी तब उसका कहना था कि बेबी सिटिंग में उसका मन नहीं लगता है।

उसी दौरान उसका एक छोटा सा ऑपरेशन भी हुआ जिसके चलते वह करीब 20 दिन स्कूल से बाहर अस्पताल और घर पर रहा। उसके साथ साथ छुट्टी लेकर मैं भी लगातार घर पर बनी रही। लेकिन ठीक होने के बाद वह स्कूल जाने को तो राजी था पर बेबी सिटिंग जिसे महाराष्ट्र में पालणा घर कहते हैं में दिन गुजारने को तैयार नहीं था। विरोध के लिए या जिस भी कारण से उसने टिफिन खाना छोड़ दिया। पूरा टिफिन घर लाता और बेबी सिटिंग में भी कुछ नहीं खाता था। उसके इस व्यवहार से हम सब लगातार परेशान रहने लगे। ऐसा करीब दो महीने चला । मैं इस उम्मीद में थी कि बेटा समझ जाएगा और सब ठीक हो जाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बल्कि कुछ दूसरा ही हुआ। जो कि एक दम उम्मीद के खिलाफ था। उसके पापा दिल्ली गए थे और रात में दस बजे मैं उसे सुला कर सो गई । रात में उसके रोने की आवाज सुन कर मैं जाग गई। करीब एक बजे थे और वह सोने की जगह चादर में मुँह ढँक कर रो रहा था । मैंने रोने की वजह पूछी तो बोला कि तुम कल से पढ़ाने मत जाओ। मैं अकेले घर में रहूँगा लेकिन बेबी सिटिंग में नहीं जाऊँगा। बात चीत के बीच मानस ने कहा कि उसे एक भाई या बहन भी चाहिए।

उसकी बातें सुन कर मैं परेशान हो गई और उससे कहा कि वह सो जाए। मैं पढ़ाने नहीं जाऊँगी। अगले दिन मैंने विद्यालय को इस्तीफा लिख कर काम से छुट्टी पाली। दिल्ली से लौटने पर मानस के पापा से मानस की बातें बताईं। पहले तो वे काफी भड़के फिर मेरे फैसले को सही बताया। उसके बाद मेरी बेटी भानी पैदा हुई। मानस और भानी दोनों की उम्र में काफी फर्क है लगभग 8 साल का। लेकिन तब से मानस खुश है और दोनो हिल मिल कर रहते हैं।

लेकिन कल उसे डाँट कर मैं इस उलझन में पड़ गई हूँ कि मैंने उससे अपनी नौकरी छूटने का कोई बदला तो नहीं चुकाया। मैंने उसे यह तक जता दिया कि जैसे मैं नौकरी करते समय मैं स्वर्ग में अप्सरा थी और अब घरेलू मक्खी हो गई हूँ।
हालाकि अभी वह नार्मल है और स्कूल गया है पर मैं सोच रही हूँ कि उसके आते ही उससे माफी माँग लूँगी ।

रविवार, 14 अक्तूबर 2007

जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान

संतोष से सुख
गीता में वे आदर्श जीवन मूल्य हैं जिन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए। पर वास्तविक समस्या तो मन की है। किसी चीज को देख कर मन में उसे पाने की एक स्वाभाविक इच्छा जाग जाती है। इससे लोभ उत्पन्न होता है। फिर मन संयमित नहीं है तो वह ईर्ष्या द्वेष में जकडता चला जाता है। उसी लोभ की चिंता में डूबने-उतराने लगता है। केवल धन मिल जाने से कोई सुखी नहीं हो सकता । क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं है। एक को पाकर दूसरी को पा लेने की इच्छा यह मनुष्य का स्वभाव है।
इसी लिए संतोष की महिमा गाई गई है। संत कबीर कहते हैं-

जिनके कछु ना चाहिए सोई सहंसाह

कबीर की निगाह में राजा वही है जिसे कोई कामना न हो। इच्छा के मिट जाने से मनुष्य सभी प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो कर बेपरवाह हो जाता है। और चिंचित राजा हर हाल में राज्य विनाश ही करेगा। अपना घर भरने के लोभ में वह राज्य को निजी सम्पति बनाने के हर संभव उपाय करेगा।

राजा ही नहीं किसी को भी संतोष धन पाने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि संतोष ही असल धन है। क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

मेरा तेरा नाता

एक कई साल पुरानी कविता छाप रही हूँ........पता नहीं इसके भाव अभी पुराने पड़े हैं या नहीं। आप सब पढ़े और बताएँ....

संबंध


चलो हम दीया बन जाते हैं
और तुम बाती ...

हमें सात फेरों या कि कुबूल है से
क्या लेना-देना

हमें तो बनाए रखना है
अपने दिया बाती के
संबंध को......... मसलन रोशनी

हम थोड़ा-थोड़ा जलेंगे
हम खो जाएँगे हवा में
मिट जाएगी फिर रोशनी भी हमारी
पर हम थोड़ी चमक देकर ही जाएँगे
न ज्यादा सही कोई भूला भटका
खोज पाएगा कम से कम एक नेम प्लेट
या कोई पढ़ पाएगा खत हमारी चमक में ।

तो क्या हम दीया बन जाए
तुम मंजूर करते हो बाती बनना।
मंजूर करते हो मेरे साथ चलना कुछ देर के लिए
मेरे साथ जगर-मगर की यात्रा में चलना....कुछ पल।