गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

गाड़ी बंगला सही न सही न सही....

गाड़ी बंगला सही न सही न सही....

1911 में जन्मे कवि शमशेर की एक प्रेम कविता

यह कविता शमशेर जी ने 1937 38 मे लिखी

प्रेम

द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास

फिर भी मै करता हूँ प्यार

रूप नहीं कुछ मेरे पास

फिर भी मै करता हूँ प्यार

सांसारिक व्यवहार न ज्ञान

फिर भी मै करता हूँ प्यार

शक्ति न यौवन पर अभिमान

फिर भी मै करता हूँ प्यार

कुशल कलाविद्र हूँ न प्रवीण

फिर भी मै करता हूँ प्यार

केवल भावुक दीन मलीन

फिर भी मै करता हूँ प्यार

मैने कितने किए उपाय

किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

सब विधि था जीवन असहाय

किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

सब कुछ साधा जप तप मौन

किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

कितना घुमा देश विदेश

किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

तरह तरह के बदले वेष

किन्तु न मुझसे छूटा प्रेम

उसकी बात बात में छल है

फिर भी वह अनुपम सुंदर

माया ही उसका संबल है

फिर भी वह अनुपम सुंदर

वह वियोग का बादल मेरा

फिर भी वह अनुपम सुंदर

छाया जीवन आकुल मेरा

फिर भी वह अनुपम सुंदर

केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी

फिर भी वह अनुपम सुंदर

वह अंतिमभय सी विस्मय- सी

फिर भी कितनी अनुपम सुंदर

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

बस थोड़ा आस्था वाद

बस थोड़ा आस्था वाद। संयम भारतीय संस्कृति की आत्मा है।यदि पेड़ कहे कि मै जमीन पर क्यों बधा हूँ मुझेउड़ने दो तब तो वह पेड़ मर जाएगा।पेड़ भी जड़ों से बधा है तभी जीवित है।नही तो उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा।अगर पहाड़ों का पानी सभी दिशाओं में बहने लगे तो बहाव असम्भव हैपानी एक खास बहाव पर ही बहता है।नदी दो किनारो से बधी है यदि वह कहे मुझे बंधन मुक्त करो, तो पानी और नदी कुछ न रह जाएगा सब सूख जाएगा।

संयम को तुच्छ मत समझो। नदी अपनी गहराई और गभीरता के कारण ही, बंधन के कारण ही हमारे लिए पूज्य है. संयम समाज , परिवार सब के लिए सही राह है।

पर समय इतना बुरा है कि किसी को मान दो तो भी वह बदले में अपमान देकर खुश हो लेता है। दंभी जीव के ढ़ग निराले मेरे भैया। ऐसा सोचने के सीवा कुछ सोचना भी उस दंभी के दंभ को बढ़ावा देना है।

पर शुक्र है सृष्टि का की सूरज प्रकाश देता है,बादल पानी देता है, पेड़ फल देते है, स्कूल शिक्षा देते हैं । अपना जीवन इन्ही की सेवा में रहना ही हमारा धर्म है।

बहुत से कम बुध्दि, संयम का मजाक उड़ाते हैं और यह कहते पाए जाते है कि मुझे बंघन में नही रहना. पर सच तो यह है की जीवन का सुख बंधन में ही है ।

जैसे नदी संयम में रह कर समुद्र मे मिल जाती है वैसे ही संयम और, बघन में रह कर मनुष्य भी बड़ा बन जाता है।

बापू के देश में

सारे जग से न्यारे बापू ,ने एक घर बनाया जिसका नाम रखा गणतंत्र ,इस घर में बापू के चार बच्चे रहते हैं -हिन्दू, मुस्लिम, सिख,ईसाइ। 30 सितम्बर को दो भाइयों के झगड़े खत्म हुए ,ऐसा ही ,माना है जनता ने। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड आगे सुप्रीप कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाएगी , फिर भी. बापू के देश में सबसे पहले न्यायमूर्ति खान को सलाम ... ...। आगे -लगते तो थे दुबले बापू, थे ताकत के पूतले बापू। कभी न हिम्मत हारे बापू, अच्छी राह दिखाते बा। सब को गले लगाते बापू, सत्य अहिसा और धर्म का हमको पाठ पढ़ाते बापू। बापू के देश में -गणतंत्र के वेश में,चारों भाईयों को गाँधी जंयती की शुभकामनाएँ...।

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

बहुत दूर आ गई हूँ

बहुत दूर आ गई हूँ

बहुत दूर

बहुत दूर

इतनी दूर की नींद में भी

सपने में भी वहाँ नहीं पहुँच सकती।


एक अंधेरी छोटी सी गली

एक अंधेरा छोटा सा मोड़

एक कम रौशन छोटी सी दुनिया

सब पीछे रह गए

मैं इतने उजाले में हूँ कि

आँख तक नहीं झपकती अब तो।


सब इतना चकाचौंध है कि

भ्रम सा होता है

परछाइयाँ धूल हो गई हैं

आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ

दूर-दूर तक

कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ

सब पीछे

बहुत पीछे छूट गया है।

बुधवार, 11 अगस्त 2010

सावन आ गया है, राखी लेकर आई हूँ


सावन आ गया है, राखी लेकर आई हूँ

अनिता कुमार जी के बज से राखी के बारे में पता चला । मैंने सोचा कि सावन आ गया । गई और राखी लेकर आई । भाइयों की कलाई और उनके मुखड़े सब सपना हो गए हैं। कई के पते नहीं हैं। लिफाफे पर नाम लिखते मन काँपता है। भाई सलामत रहें। मेरी दुआ उन तक पहुँचे। दुआ के अलावाँ और क्या दे सकती हूँ। ऐसा कोई दिन कोई पल नहीं कि भाइयों के लिए दुआ न करती हूँ। आखिर बहन जो हूँ। याद करने के अलावा और क्या कर सकती हूँ।

जब भाई फोन पर पूछता है कि ठीक तो हो तो मन भारी और शक्ति से भर जाता है।गर्व से पति की ओर देखती हूँ कि देखा भैया मेरा कितना खयाल रखता है। मैं उन लड़कियों को लेकर अक्सर सोचती हूँ जिनके भाई नहीं होते या जिन लड़कों की बहने नहीं होतीं। मायके से फोन आते ही मन विकल सा हो जाता है। मेरी बेटी भानी जब खेल रही होती है, और उसकी खुशियों भरी चीख पुकार से घर भरा होता है तो उस दिन की सोच कर थर्रा जाती हूँ कि इसे तो विदा कर देना होगा। मेरे पास रहने के इसके दिन भी गिनती के ही हैं। जायसी की एक पंक्ति याद आती है-
यह नइहर रहना दिन चारी
या कबीर कहते हैं-
नइहर खेलि लेहु दिन चारि।

जब मेरे बड़े भैया की नई-नई नौकरी लगी थी तो वे पूछते थे कि क्या चाहिए और हम जो माँगते थे मिलता था। ऐसा लगता है कि विदा के बाद माँगने और पाने का वह अधिकार कम हो गया है। आखिर मेरा कन्यादान जो हो गया है। अब उसी भाई से कुछ भी माँगने की बात अजीब क्यों लगती है। आखिर वह क्या है जो एक ही कोख से जन्में भाई और बहन को पराया कर देते हैं।

पानी सुबह से बरस रहा है। रात में भी कई-कई बार बरसा है। ऐसे में जब मैं माँ के घर में होती थी तो खिड़की पर जा कर बैठ जाती थी। पढ़ने का बहाना करके। हाथ में कोई किताब लेकर। पढ़ती एक अक्षर नहीं थी। सिर्फ बादलों को और बारिश को देखती रहती थी। बादलों की उमड़-घुमड़ से मन करता था कि सावन की फुहार बन बरस जाऊँ। कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं। पढ़े।

मैं सावन की बयार
फुहार, मेघ मल्हार
यहाँ हूँ वहाँ हूँ
जाने कहाँ हूँ
मुझसे रिमझिम सब संसार
मैं सावन की बयार।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

यह मार्शल लॉ की तरह कोई फौजी हुकूमत है क्या?

यह मार्शल लॉ की तरह कोई फौजी हुकूमत है क्या?
रोज सुबह की चाय के साथ, अखबारो में तरह तरह की खबरे , जो खुशी देती हैं तो कभी विचलित भी करती हैं । ऐसी ही एक घटना, जिसे आप भी जानें -सुने.। उत्तर प्रदेश के, मुरादाबाद जिले के प्राइमरी स्कूल के अध्यापक “सुल्तान अहमद ”ने 6 साल के बच्चे “साहिल” को , क्लास में शोर मचाने की वजह से, इतना पीटा की साहिल बेसुध होकर गिर पड़ा और उसके कंधे की हड्डी टूट गई। इस तकलीफ को तो साहिल सहित उसके माँ बाप ही झेलेगें ।

शोर मचाने पर, इस जल्लादी पिटाई को पढ़, मन जाने क्यों पाकिस्तान में मार्शल लॉ के पन्नों पर चला गया, जहाँ फौजी हुक्मरान की मनमानी चलती थी ।बच्चा तो बच्चा है।उसके साथ ऐसा मारक व्यवहार । आए दिन ऐसी खबरें अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती है। किसी अध्यापक नें बच्चे को मुर्गा बना दिया- उसका पैर हमेशा के लिए खराब हो गया, तो कभी कान के पर्दे फट गए।कभी कभी माँ –बाप इन अध्यापकों की वजह से अपनी औलाद से ही हाथ धो बैठते हैं।.. फिर घटना के बाद प्रिंसिपल और टीचर्स का बेशर्मी भरा, मुस्कान रत बयान । क्या ऐसे गुरुजन अभिभावक नहीं होतें ? जो बच्चे के मन को समझ उसे उचित सजा दें सके? ऐसे गुरू घंटालो के साथ बच्चों को छोड़ना उचित है?

अब दर्द हद से गुजरने न पाए इस बाबत मिडिया और प्रशासन से निवेदन है, कि स्कूलों के हर क्लास में कैमरे लगवाए जाएँ । चाहे स्कूल सरकारी हो या प्राइवेट। जिससे, सही और गलत का फैसला होगा ।बच्चे इस बेरहमी से बच पाएगें । अनुशासन और बेरहमी के फर्क को देखा जा सकेगा। जैसे आतंकवादियों, चोर उचक्कों- की धर पकड़ के लिए कैमरे जरूरी हैं। वैसे ही । सुल्तान अहमद सरीखे आतंकवादियों के लिए भी कक्षाओं में कैमरे जरूरी है।, यदि बच्चा ज्यादा शरारती है तो उसके और भी तरीके है। यह बेरहमी क्यों । बच्चों का स्वाभाविक विकास इस तरह के अध्यापकों के रहते ,कैसे सम्भव है। जों आज बच्चे हैं कल भविष्य ..। उन्हें ऐसे धमका कर शांत करना। न्याय संगत है?
फिलहाल , साहिल के परिजनों की शिकायत पर आरोपी टीचर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है ।आरोपी फरार हैं।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

जैसे, जरा नच के दिखा...ऐ गोरी

मेरा मानस........

मेरा शहर, जहाँ शाम के वक्त बच्चे, अपनी अपनी बिल्डिग में खेलते हैं ।उनमे से एक हमारी बिल्ड़िंग भी है। जिसमें चार साल के बच्चों से लेकर बारहवी कक्षा तक के बच्चे
मिल जुल कर टीम बना कर खेलते हैं। इनमे एक पलक नाम की लड़की,जिसमे सुन्दरता के सारे मायने
सही साबित होते हैं ,मतलब आप कह सकते हैअच्छी है। बात यहाँ खत्म नहीं होती .
एक दिन खेल के बीच में ही मैं अपने बेटे मानस को आवाज लगा कर बोली दूध पीकर फिर खेलने जाओं। बेटा यह कह कर थोड़ा रूक गया कि मम्मा आता हूँ.मैने फिर कुछ समय बीतने पर आवाज लगाई , कि आ बेटा दूध ठंड़ा हो रहा है. फिर खाना कब खाओगे।
बेटा ठहाके लगाता हुआ ऊपर आय़ा। मै भी उसको देख स्वाभाविक रूप से खुश हुई ,और
पूछा, क्या हुआ, तो उसने बताया मम्मा खेलने के बाद यह तय हुआ ,कि सब बारी बारी से डाँन्स करेगें.।यह डाँन्स की बात पलक ने कही। जिसपर सीढ़ियों में सब अपनी- अपनी जगह तलाश कर बैठ गए। और लिफ्ट के सामने की जगह नाचने के लिए तय की गई। अब बारी नाचने की थी ,कौन कौन कौन जिस पर 7वी, 8वी 9वी में पढ़ने वाली लड़कियाँ, थोड़ा शर्माने लगी।तब बेटे ने पलक से कहा– अच्छा चल तू पहले नाच के दिखा फिर दूसरों कि बारी ...संकोच करती पलक के सामने मेरे बेटे ने शर्त रख दी । चल नाच, मै तुझे सौ रूपये दूँगा। पलक ने यह कहते हुए शर्त स्वीकार कर ली की तू तो
बड़े बाप का बेटा है ,तेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं, और नाच दिखाया, जम कर। इधर मेरे बार-बार बुलाए जाने पर मानस बिना शर्त पूरा किए लौट आया।
पलक और उसका परिवार बहुत ही सज्जन लोग हैं। शाम के इस बिंदास माहौल में मेरे बेटे का शामिल होना भी एक अजीब तरह से खुशी दे गया । कारण मेरा बेटा कुछ ज्यादा ही सहज और संकोची है। उसका प्रमाण हमारे दोनों पक्षों के नातेदार देते रहते हैं । पिछले दिनों हमारी ही बड़ी दी की बेटी की सगाई की रस्म कलकत्ते में बड़े धूम से हुई ,जिसमें मै नहीं पहँच पाई. और वहाँ नाते दारों ने मेरे मानस की खूब खूब प्रशंसा की ,कि आज के युग में और मुम्बई में रहने वाले बच्चों मे अलग है, उसके स्कूल में मैने उसकी सुपरवाईजर से उसकी जानकारी ली ,उन्होने बताया बहुत अच्छा बच्चा है सादा और कूल माईड ,उसकी ट्यूशन टीचर की भी ऐसी ही राय है।इस शान्त और सोच समझ कर बात करने वाले बच्चे को लेकर मुझे कभी कभी उलझन होती कि यह घोर कलयुग मेरे गाँधी बाबा के लिए ठीक नहीं। बेटा जो बीच के साल दो साल पढ़ाई से मन चुराने लगा था फिर लाईन पर है । और फिलहाल की तारीख में एक परफेक्ट बच्चे की माँ की खुशी महसूस कर खुश हूँ । आगे समय खुद बताएगा, ऐसे भी मानस कर्म पर यकीन करते है। कथनी पर नहीं कम बोलना और काम करते रहना....
नोट- मानस की कुछ छवियाँ, साथ में हैं उसकी बहन भानी।


सोमवार, 19 जुलाई 2010

अंबेडकर,गाँधी और आज के नेताओं का जात -पात

अम्बेडकर , गाँधी और आज के नेताओं का जात -पात
1933 में अम्बेडकर कहते है कि “अछूत जाति प्रथा की उपज है,जब तक जातियाँ
कायम रहेगी तब तक अछूत भी रहेगे “आगे अम्बेडकर साफ कहते हैं कि जाति प्रथा के विनाश के अलावा और किसी भी तरह से अछूतो का उद्दार असम्भव है।
गाँधी जी कहते हैं अछूतों के कारण जाति प्रथा को नष्ट कर देना उतना ही गलत है
जितना शरीर पर किसी फोड़े -फुन्सी के उठ आने पर शरीर को नष्ट कर देना ।या घास-पात के कारण फसल को नष्ट कर देना ।इसलिए अछूत को हम जिस रूप में समझते हैं , समूल नष्ट करना होगा अगर पूरी व्यवस्था को नष्ठ नहीं होने देना है, तो एक फोड़े की तरह ही इसे हटाना होगा ।
अस्पृश्यता जाति प्रथा की उपज नहीं, बल्कि ऊँच- नीच की उस भावना कीपज है, जो हिन्दू धर्म में घुस आई है और उसे भीतर से खोखला बना रही है।
गाँधी जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे इस्लाम, ईसाई ,जैन और बौध धर्म ने उन पर गहरा प्रभाव डाला था ।पर उनका मूल दृटिकोड़ हिन्दू धर्म से प्रभावित था ।1)गाँधी कहते है मै मूल रूप से अपने को सनातनी हिन्दू कहता हूँ मैं –वेदो ,उपनिषदों , पुराणों तथा सभी हिन्दू धर्म ग्रन्थों में विश्वास करता हूँ 2) मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास रखता हूँ-उसके विशुद्द रूप में न कि आज के प्रचलित भोंड़े रूप में 3) मै गौ रक्षा में विश्वास करता हूँ –लोकप्रिय अर्थो में जो समझा जाता है उसके कही अधिक व्यापक अर्थों में। 4)–मैं मूर्ति पूजा में अविश्वास नहीं करता ।
गाँधी जी जात- पात और धार्मिक भेद –भाव के उन्मूलन के ही विरोध नहीं थे , वह
अन्तर्जातीय भोज और अन्तर्जातीय विवाह का विरोध भी करते थे ।
उन्होंने ने स्वीकार किया मैं दावा करता हूँ कि मैनें कभी किसी मुसनमान या ईसाई से झगड़ा नहीं किया है, परन्तु वर्षों तक मैनें किसी मुसलमान या ईसाई के धर में सिवा फलों के कुछ और नहीं खाया है,इस आचरण को न्याय संगत ठहराते हुए उन्होंने लिखा
मेरे मतानुसार यह विचार कि अन्तर्जातीय विवाह और अन्तर्जातीय भोज राष्टीय उन्नति के लिए आवश्यक है , पशिचम से उधार लिया गया एक अंधविश्वास है।भोजन करना भी उतना ही महत्वर्पूण प्रक्रिया है, जितनी की सफाई संम्बधी जीवन की अन्य आवश्यक क्रियाएँ ।यदि मानव जाति ने स्वंय को हानि पहुँचाते हुए, भोजन को एक प्रतीक तथा अतिसेवन नहीं बना लिया होता तो हम भोजन भी एकान्त में बैठ कर करते।जैसे जीवन के दूसरे काम जरूरी काम हम अलग बैठ कर करते हैं
अपनी आस्था के सम्बन्ध में मोहन दास के दावे उस परम्परागत , मध्ययुगीन हिन्दू धर्म को प्रकट करते हैं जिनसे अंशतह उनके दृष्टिकोण को प्रभावित किया था।तो भी,उनकी हिन्दू धर्म समझ उन प्रतिक्रिया वादी विचारों से भिन्न थी , जिनका ऱूढिवादी हिन्दूप्रचार करते थे।रूढिवादी हिन्दू संाती व्यवस्था काप्रतिन्धित्वकरते.गाँधी जी का हिन्दू धर्म कोई कुंठित धर्म नहीं था ,वरन एक गतिशील धर्म था ।।
धर्म ग्रंथों तक की कोई शाश्वत पवित्रता नहीं थी ,गाँधी जी कहते है वेदों पुराणों का और इतिहास का उदय एक ही समय में नहीं हुआ। प्रत्येक का उदय एक काल विशेष की आवश्यकताओं के फलस्वरूप हुआ है । इसलिए वे एक दूसरे से टकराते दिखाई देते हैं ।ये ग्रंथ शाश्वत सत्यों को नये सिरे से प्रतिपादित नहीं करते ,वरन यह दिखाते हैं ,कि जिस काल में इन ग्रंथों की रचना की गई , उस काल में इन सत्यों पर किस प्रकार का आचरण किया जाता था।एक प्रकार का आचरण यदि एक विशेष काल मे ंअच्छा था, तो उसे आँख बंद कर दूसरे काल में भी ज्यों का त्यों लागू किया गया ,तो जनता को निराशा के दलदल में डुबा सकता है। वे हिन्दू धर्म के उन स्व नियुक्त संरक्षको , रूढ़िवादी और प्रतिक्रिया वादी पंडितों की सत्ता को चुनौती देते थे , जो हर प्रकार के धार्मिक अंधानुकरण ,अन्धविश्वास और रूढ कर्मकांड़ो को न्याय संगत ठहराते नहीं थकते थें।
आज का समय गाँधी के समय से बहुत बदल चूका है, धर्म और नेता की बात में स्वाभाविक है कि हम आज के नेताओं का धर्म भी जानना चाहेगें ।आज की जनता थोड़ी मुर्ख थोड़ी समझदार को ,ससमझना मुश्किल हो गया है ,कि इनका धर्म आखिर है क्या । आज के नेताओं काधर्म क्या है वह ही जानें आजकुछ,-कलकुछ में,ठीठ और हेहरकी तरह लगें हैं । इनका सब का धर्म है अपना घर भरों धन से ।और जन से भरने के लिए जाति जनगणना बोट बैक ।स्वार्थ सिद्द जाति धर्म ।.........

मंगलवार, 15 जून 2010

भानी के ग्यारह रूप...... देखिए

ये ग्यारह रूप हैं मेरी दुलारी के। बहुत दिनों से सोच रही थी।

































































पिछले बहुत दिनों से मैंने भानी के बारे में न कुछ लिखा न कोई चर्चा की। आज भानी की पसंद की कुछ तसवीरें छाप रही हूँ। देखिए और मेरी इस प्यारी बेटी को अपना आशीष दीजिए











सोमवार, 14 जून 2010

लीजिए भई –प्रेमचंद, महादेवी, हरिऔध, पंत सब मर गए

मै स्त्रीवादी हूँ, सदियों से लानत मलामत झेलती स्त्री के किसी गलत निर्णय पर कई बार मेरा रिएक्शन भी अजीब बेतुकाना हो जाता हैं, साथ ही उस गलत स्त्री को कुल्टा, कंलंकिनी, कुलबोरनी कहने के बजाय मैं भावावेश मे कह बैठती हूँ कि ठीक किया फलाँ ने..जरूरत से ज्यादा दबाब का कहीं-कहीं यहीं नतीजा निकलता है.. जब कि सही क्या है गलत क्या है, यह तो मन समझ ही रहा होता है ठीक ठीक। मैं यहाँ किसी स्त्री का नाम नहीं लेना चाहती, क्यों कि जैसे मुझे मेरी इज्जत प्यारी है, वैसे ही हर स्त्री की ....
हाँ यह जरूर है कि आज के परिवेश में स्त्री को इमेजकाशश नहीं होना चाहिए वर्ना स्त्री मर्यादा का बोझ ढ़ोती हर रोज मरती है तो कहीं मनचली बालाएँ ऊचाईयाँ छूती जिन्दगी को आज के परिवेश में अपने हिसाब से जीती है। .

सारे विरोधों अन्तर्विरोधों के वावजूद मैं स्त्री के साथ हूँ चाहे गलबहियाँ देकर, चाहे हिकारत के साथ ..खैर जीवन है तो दुखड़ा सुखड़ा लगा ही रहता है, यहाँ मुद्दा तो कुछ और ही है।

कल भवन्स कालेज अंधेरी में पुष्पा भारती यानि धर्मवीर भारती जी की पत्नि पु्ष्पा भारती जी का 75वाँ ज्न्म दिन मनाया गया। किस्मत की धनी पुष्पा जी के हिस्से भारती जी का किया धरा आया वर्ना इतनी बड़ी माया नगरी में बहुत सी लेखिकाएँ हैं। कौन जन्म दिन मनाता है। बहुत सी कवयित्रियाँ उस समय की ऐसी भी होंगी जो पति की पेन्शन
पर गुजारा कर रही होंगी। उन्हें कौन जानता है। बेचारी। लेकिन पुष्पा जी के पास भारती जी की घर परिवार रायल्टी सब का सुख भोग रही हैं, सार्थक जीवन जी रही हैं, जो कि उनका स्वाभाविक अधिकार है।

कल वहाँ भारती जी के शुभचिंतकों का जमावड़ा था। मैं गई थी पुष्पा जी को बधाई देने। कुछ सार्थक सुनने और बीच में ही उठकर निकल आई। क्योंकि जो वहाँ सुनने को मिल रहा था वह न तो सार्थक था न सुनने लायक। बीच में बोलना पुष्पा जी के प्रति उचित न था। क्योंकि मौका जन्म दिन का था। दिल्ली से खास तौर पर आईं भारती जी की मुँह बोली बेटी सुनीता बुद्धिराजा ने कमाल कर दिया। उन्होंने भारती जी की महिमा बखानते-बखानते यह तक कह दिया कि “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए, लेकिन भारती जी को मरने के बाद भी जिंदा रखा है पुष्पा जी ने ।”
मुझे सुनिता बुद्धिराजा की बुद्धि पर तरस आता है कि कब और कैसे उन्होंने जान लिया कि “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए। मैंने अपने पति और बच्चों से कहा कि उठो मैं अब नहीं सुन सकती। और मैं “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब का स्यापा छोड़ कर घर आ गई।


इस बात से कौन इन्कार करेगा कि धर्मवीर भारती हिंदी के बड़े लेखक हैं। अंधायुग, कनुप्रिया, सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता जैसी किताबें उनकी हिंदी की देन है। मैं खुद उनकी पाठिका और प्रशंसक रही हूँ। और यह भी सच है कि पुष्पा जी ने हर प्रकार से भारती जी को सहेजा समेटा है। उनके लिए चिंतित रहती है। किंतु पुष्पा जी के जन्मोत्सव पर अपने पुराने धरोहरों की शव क्रिया नहीं देख पाई।

मैं यह सोच रही थी कि कोई संचालक या वक्ता इस घोर अनर्थकारी टिप्पणी पर एतराज करेगा। लेकिन नहीं। किसी ने कुछ नहीं कहा। बस सब एक दूसरे की वाह-वाह करते। “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी का अपमान करते बैठे रहे।

मैं पुष्पा जी को उनके जन्म दिन की हार्दिक बधाई देते हुए आप सब से यह पूँछना चाहूँगी क्या “हरिऔध, प्रेमचंद, पंत, प्रसाद, महादेवी सब मरते ही मर गए ? क्या ऐसी निर्बुद्दि बुद्धि राजाओं के इस प्रकार के कथनों का कोई प्रतिकार नहीं होना चाहिए।

सोमवार, 8 मार्च 2010

सीता नहीं मैं

क्या महिला आरक्षण से देश में स्त्रियों की दुनिया बदल जाएगी। एकदम न बदले तो भी कुछ न कुछ तो जरूर होगा। आज एक महान दिन है। देश दुनिया में बहुत कुछ घट रहा है। आज के दिन मैं अपनी एक कविता छाप रही हूँ।


सीता नहीं मैं


तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।

तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

हाँ.....सीता नहीं मैं
मैं धरती में नहीं समाऊँगी
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।

मैं जन्मीं नहीं भूमि से
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।

बंद थी मैं भी नौ महीने
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
न सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर।

मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं
अग्नि परीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं
तुम्हारे अग्नि परीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा।


मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या
उसकी कोई मर्यादा न थी
क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी
तुम तो पुरुषोत्तम थे
नाक काट कर किसी स्त्री की
तुम रावण से कहाँ कम थे।
तुमने किया एक का अपमान
तो रावण ने किया मेरा
उसने हरण किया बल से मेरा
मैं नहीं गई थी लंका
हँसते खिलखिलाते
बल्कि मैं गई थी रोते बिलबिलाते
अपने राघव को पुकारते चिल्लाते
राह में अपने सब गहने गिराते
फिर मुझसे सवाल क्यों
तुम ने न की मेरी रक्षा
तो मेरी परीक्षा क्यों

बाटे मैंने तुम्हारे सब दुख सुख
पर तुमने नहीं बाँटा मेरा एक दुख
मेरा दुख तुम तो जान सकते थे पेड़ पौधों से
पशु पंछिओं से
तुम तो अन्तर्यामी थे
मन की बात समझते थे
फिर क्यों नहीं सुनी
मेरी पुकार।

मुझे धकेला दुत्कारा पूरी मर्यादा से
मुझे घर से बाहर किया पूरी मर्यादा से
यदि जाती वन में रोते-रोते
तो तुम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम होते

मेरे कितने प्रश्नों का तुम क्या दोगे उत्तर
पर हुआ सो हुआ
चुप रही
यही सोच कर
अब सीता नहीं मैं
सिर्फ तुम्हारी दिखाई दुनिया नहीं है मेरे आगे
अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी।