क्या महिला आरक्षण से देश में स्त्रियों की दुनिया बदल जाएगी। एकदम न बदले तो भी कुछ न कुछ तो जरूर होगा। आज एक महान दिन है। देश दुनिया में बहुत कुछ घट रहा है। आज के दिन मैं अपनी एक कविता छाप रही हूँ।
सीता नहीं मैं
तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं
धरती में नहीं समाऊँगी।
तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।
हाँ.....सीता नहीं मैं
मैं धरती में नहीं समाऊँगी
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ
मैं धरती में नहीं समाऊँगी।
मैं जन्मीं नहीं भूमि से
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।
बंद थी मैं भी नौ महीने
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
न सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर।
मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं
अग्नि परीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं
तुम्हारे अग्नि परीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा।
मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या
उसकी कोई मर्यादा न थी
क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी
तुम तो पुरुषोत्तम थे
नाक काट कर किसी स्त्री की
तुम रावण से कहाँ कम थे।
तुमने किया एक का अपमान
तो रावण ने किया मेरा
उसने हरण किया बल से मेरा
मैं नहीं गई थी लंका
हँसते खिलखिलाते
बल्कि मैं गई थी रोते बिलबिलाते
अपने राघव को पुकारते चिल्लाते
राह में अपने सब गहने गिराते
फिर मुझसे सवाल क्यों
तुम ने न की मेरी रक्षा
तो मेरी परीक्षा क्यों
बाटे मैंने तुम्हारे सब दुख सुख
पर तुमने नहीं बाँटा मेरा एक दुख
मेरा दुख तुम तो जान सकते थे पेड़ पौधों से
पशु पंछिओं से
तुम तो अन्तर्यामी थे
मन की बात समझते थे
फिर क्यों नहीं सुनी
मेरी पुकार।
मुझे धकेला दुत्कारा पूरी मर्यादा से
मुझे घर से बाहर किया पूरी मर्यादा से
यदि जाती वन में रोते-रोते
तो तुम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम होते
मेरे कितने प्रश्नों का तुम क्या दोगे उत्तर
पर हुआ सो हुआ
चुप रही
यही सोच कर
अब सीता नहीं मैं
सिर्फ तुम्हारी दिखाई दुनिया नहीं है मेरे आगे
अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी।
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सोमवार, 8 मार्च 2010
सोमवार, 4 मई 2009
लोक सभा टीवी पर मेरी कविता
लिखने से कुछ बदलेगा क्या
बहुत पहले से लिखती रही । लिख लिख के भूलती रही। लेकिन छपने का सिलसिला बहुत देर से शुरू हुआ। न जाने कितनी कविताएँ इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। कुछ बदल तो रहा नहीं है। कुछ डायरियाँ मायके के घर में रह गईं। बाद में उन्हें जाकर ले आई। कभी-कभी मन में आता था कि लिखने से क्या होता है। एक दो क्या सब कविताओं को कहीं गुम कर दूँ। भूल जाऊँ कि लिखती भी हूँ। कभी-कभी ऐसा हुआ भी कि महीनों क्या सालों नहं लिखा। हल्दी तेल नोन राई के झंझट में ऐसी उलझी कि कविता क्या खुद को भी भूल सी गई। चाँद की रोशनी बहुत उबाऊ सी लगी। बच्चे और पति तक से उलझन होने लगीं। सुबहें फीकी और दोपहरे बोझ सी लगीं। जीवन फालतू सा लगा। निरुद्देश्य लगी एक एक सांस।
लेकिन अभी ऐसा नहीं लगता। कुछ कविताएँ ज्ञानोदय, वागर्थ और कथादेश में प्रकाशित हुई हैं तो कुछ और कविताएँ देशज सहित कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली हैं। लोगों ने पढ़ कर उत्साह बढ़ाया। लगा कि लिखा जा सकता है। मन में यह बात अभी भी बैठी है कि लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं। किंतु लिखती जा रही हूँ। लगातार ।
इसी बीच पिछले बुध को दिल्ली से बोधिसत्व के मित्र नागेश ओझा जी का फोन आया कि मेरी एक कविता लोक सभा टीवी पर पढ़ी गई है। स्त्रियों से जुड़े किसी परिसंवाद में कार्यक्रम की संचालिका ने मेरी स्त्रियाँ कविता जो कि ज्ञानोदय और कथादेश दोनों में प्रकाशित हुई है पढ़ी। इस खबर से मेरे पंख निकल आए। दिन भर उड़ती रही। लगा कि सच में लिखना सार्थक रहा। लेकिन वह सवाल अभी भी बना है कि क्या लिखने से दुनिया बदल जाएगी। क्या लोक सभा टीवी पर कविता पढ़े जाने से समाज पर कोई असर पड़ेगा। तमाम सवाल हैं. फिर भी लिखती रहूँगी। पढ़ें आप भी मेरी वह कविता जिसे लोक सभा टिवी पर पिछले बुधवार को पढ़ा गया है।
स्त्रियाँ
स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी,
स्त्रियाँ गढ़ रही हैं गुरु
अपने दो चार बुझे अनबुझे शब्दों से
दे रही हैं ढ़ाढ़स,
बन रही हैं ढ़ाल
तमाम घरों के लिए बन कर ढ़ाल
खा रही हैं मार
सदियों से सह रही हैं मान और अपमान
घर और बाहर सब जगह।
फिर भी
खठकरेजी स्त्रियाँ बढ़ा रही हैं मर्यादा कुल की,
खुद की मर्यादा खो कर।
आगे निकलना तो दूर
जिंदगी की भागम भाग में
बराबरी तक के लिए
घिसटते हुए
दौड़ रही हैं पीछे-पीछे
सम्हालती हुई गर्भ को।
और उनको सम्हालने के लिए
कोई भी रुक नहीं रहा है
फिलहाल।
बहुत पहले से लिखती रही । लिख लिख के भूलती रही। लेकिन छपने का सिलसिला बहुत देर से शुरू हुआ। न जाने कितनी कविताएँ इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। कुछ बदल तो रहा नहीं है। कुछ डायरियाँ मायके के घर में रह गईं। बाद में उन्हें जाकर ले आई। कभी-कभी मन में आता था कि लिखने से क्या होता है। एक दो क्या सब कविताओं को कहीं गुम कर दूँ। भूल जाऊँ कि लिखती भी हूँ। कभी-कभी ऐसा हुआ भी कि महीनों क्या सालों नहं लिखा। हल्दी तेल नोन राई के झंझट में ऐसी उलझी कि कविता क्या खुद को भी भूल सी गई। चाँद की रोशनी बहुत उबाऊ सी लगी। बच्चे और पति तक से उलझन होने लगीं। सुबहें फीकी और दोपहरे बोझ सी लगीं। जीवन फालतू सा लगा। निरुद्देश्य लगी एक एक सांस।
लेकिन अभी ऐसा नहीं लगता। कुछ कविताएँ ज्ञानोदय, वागर्थ और कथादेश में प्रकाशित हुई हैं तो कुछ और कविताएँ देशज सहित कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली हैं। लोगों ने पढ़ कर उत्साह बढ़ाया। लगा कि लिखा जा सकता है। मन में यह बात अभी भी बैठी है कि लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं। किंतु लिखती जा रही हूँ। लगातार ।
इसी बीच पिछले बुध को दिल्ली से बोधिसत्व के मित्र नागेश ओझा जी का फोन आया कि मेरी एक कविता लोक सभा टीवी पर पढ़ी गई है। स्त्रियों से जुड़े किसी परिसंवाद में कार्यक्रम की संचालिका ने मेरी स्त्रियाँ कविता जो कि ज्ञानोदय और कथादेश दोनों में प्रकाशित हुई है पढ़ी। इस खबर से मेरे पंख निकल आए। दिन भर उड़ती रही। लगा कि सच में लिखना सार्थक रहा। लेकिन वह सवाल अभी भी बना है कि क्या लिखने से दुनिया बदल जाएगी। क्या लोक सभा टीवी पर कविता पढ़े जाने से समाज पर कोई असर पड़ेगा। तमाम सवाल हैं. फिर भी लिखती रहूँगी। पढ़ें आप भी मेरी वह कविता जिसे लोक सभा टिवी पर पिछले बुधवार को पढ़ा गया है।
स्त्रियाँ
स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी,
स्त्रियाँ गढ़ रही हैं गुरु
अपने दो चार बुझे अनबुझे शब्दों से
दे रही हैं ढ़ाढ़स,
बन रही हैं ढ़ाल
तमाम घरों के लिए बन कर ढ़ाल
खा रही हैं मार
सदियों से सह रही हैं मान और अपमान
घर और बाहर सब जगह।
फिर भी
खठकरेजी स्त्रियाँ बढ़ा रही हैं मर्यादा कुल की,
खुद की मर्यादा खो कर।
आगे निकलना तो दूर
जिंदगी की भागम भाग में
बराबरी तक के लिए
घिसटते हुए
दौड़ रही हैं पीछे-पीछे
सम्हालती हुई गर्भ को।
और उनको सम्हालने के लिए
कोई भी रुक नहीं रहा है
फिलहाल।
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
कितनी पुरानी साध है यह
कितनी पुरानी साध है यह
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल .....
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....
दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...
मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..
तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
७ जुलाई 2008
कितनी पुरानी है मेरी इच्छा
मैं तुम्हें काजल बनाना चाहती हूँ..
रोज-रोज थोड़ा आँज कर
थोड़ा कजरौटे में बचाए रखना चाहती हूँ....
तुम धूल की तरह धरती पर पड़े हो..
धूल .....
पैरों में ही अच्छी लगती है
आँखों में नहीं जानती हूँ...
फिर भी ..
मैं तुम्हे जलाकर
काजल बनाना चाहती हूँ.....
दीये की लौ से
कपूर की लपट से काजल बनाना बताया था माँ ने
सभी बना लेते हैं काजल..उस तरह ...
मेरे मन पर छाए हो तुम ...
मैं तुम्हें एक बार नहीं हर दिन हर रात
हर साँस हर पल अपनी पलकों में
रखना चाहती हूँ...
चाहती हूँ रोने के बाद भी तुम बहों नहीं...रहो..
एक काली पतली सी रेख...चमकती सी..
तुम रहो मेरी आँखो में
मेरी छोटी-छोटी असुंदर आँखों में...
मेरी धुँधली मटमैली आँखों में रहो...
ऐसी है मेरी पुरातन इच्छा.
अजर अमर इच्छा।
७ जुलाई 2008
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