मंगलवार, 4 सितंबर 2007

अरुण कमल की एक कविता

इन्तजार

जिसने खो दी आँखें वह भी एक बार
झाड़ता है अपनी किताबें
बादल गरजते हैं उसके लिए भी
जो सुन नहीं सकता
जो चल नहीं सकता उसके सिरहाने भी
रखा है एटलस
जिसने कभी किसी से साँस नहीं बदली
उसे भी इन्तजार है शाम का।

नोट- यह कविता उनके चौथे संकलन पुतली में संसार से यहाँ लिया गया है। संकलन वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से छपा है।

6 टिप्‍पणियां:

अभय तिवारी ने कहा…

अरमानों का क्या कहना

Shastri JC Philip ने कहा…

आपकी पसंद अच्छी एवं बौद्धिक है. कविता का अर्थ सारगर्भित है -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!

अफ़लातून ने कहा…

अच्छी कविता पढ़ाने के लिए धन्यवाद ।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छी लगी कविता। आपका प्रोफ़ाइल देखा तो यह जानकर अच्छा लगा कि परसाई जी आपके पसंदीदा लेखक हैं और खूंटियों पर लोग पसंदीदा किताब।

Udan Tashtari ने कहा…

स्वागत है. आभार इस प्रस्तुति का.

आभा ने कहा…

आप सब का मेरा हौसला बढाने के लिए आभार,
अनूप जी मैं आगे सर्वेश्वर जी की कुछ कविताएँ छापूँगी।