संतोष से सुख
गीता में वे आदर्श जीवन मूल्य हैं जिन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए। पर वास्तविक समस्या तो मन की है। किसी चीज को देख कर मन में उसे पाने की एक स्वाभाविक इच्छा जाग जाती है। इससे लोभ उत्पन्न होता है। फिर मन संयमित नहीं है तो वह ईर्ष्या द्वेष में जकडता चला जाता है। उसी लोभ की चिंता में डूबने-उतराने लगता है। केवल धन मिल जाने से कोई सुखी नहीं हो सकता । क्योंकि इच्छाओं का अंत नहीं है। एक को पाकर दूसरी को पा लेने की इच्छा यह मनुष्य का स्वभाव है।
इसी लिए संतोष की महिमा गाई गई है। संत कबीर कहते हैं-
जिनके कछु ना चाहिए सोई सहंसाह
कबीर की निगाह में राजा वही है जिसे कोई कामना न हो। इच्छा के मिट जाने से मनुष्य सभी प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो कर बेपरवाह हो जाता है। और चिंचित राजा हर हाल में राज्य विनाश ही करेगा। अपना घर भरने के लोभ में वह राज्य को निजी सम्पति बनाने के हर संभव उपाय करेगा।
राजा ही नहीं किसी को भी संतोष धन पाने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि संतोष ही असल धन है। क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया।
7 टिप्पणियां:
updesh nahi sadupdesh kahiye, so bahut achchha.
आभा जी,
यह उपदेश नहीं है.. जीवन का सत्य है... मनोकामनायें कभी पूर्ण नहीं होती.. एक के बाद एक खडी होती रह्ती हैं... सन्तोष ही मन को शान्ति प्रदान कर सकता है... धन और सुखसुविधायें नहीं
उपदेश ग्रहण कर लिया.
काकेश के बगल में बैठा पाया जाय मुझे..
काकेश और अभय भाई के पीछे दो सीट छेक कर बैठा दिख रहा हूँ. वो मैं ही हूँ. :) जय हो!!!
क्या करूँ मेरा भी उपदेश देने का मन हो सकता है। सो दे दिया। 'आप क्या करूँ' से निकलिए और धड़ल्ले से उपदेश दीजिए।
इस रचना को लिखने के बाद जरूर आपका जी हल्का हो गया होगा। सन्तोष मिलना बडा ही मुशकिल काम है। चलिये मान लेते हैं कि आपको संतोष मिल गया है!
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