रविवार, 5 अप्रैल 2009

तब तो हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है मसिजीवी जी

प्रिय मसिजीवी जी

आपकी अनाम निलोफर के मैले तर्कों पर सफाई नुमा पोस्ट देखी। आपने माँ बाप द्वारा बच्चों के लालन पालन में किए गए कार्य को मैला कमाने से तुलना की है -

“ अपने बच्‍चे के पाखाना साफ करने से बचने वाली... बच सकने वाली मॉं कहॉं पाई जाती है ? कौन सा बच्‍चा कभी अपने पाखाने से खेलने का सत्‍कर्म नहीं कर चुका होता? ”

आपकी तुलनात्मक मेधा को सलाम करने का मन है। सलाम करती हूँ। किसी के पास ऐसे धुरंधर तर्क का क्या उत्तर हो सकता है। आपके कथन से तो भारत की सब सामाजिक बुराई एक झटके में छू मंतर। और जो थी वह महज वहम थी। क्योंकि मामला बचकाना है अरे गू साफ करना भी कोई समस्या है। तभी तो आप ताव से कह पाते हैं-

“ हमने भी अपने बच्‍चों का मैला कमाया है... आप चाहें तो कहें हमें भंगी/चमार ”

लेकिन भाई बात इतनी सहज नहीं है जितनी सहजता से आप ने कह दी है भाई। मेरा एक सवाल है। यह कहाँ तक उचित है कि आप या कोई निलोफर पहले किसी को भंगी, चमार कह देंगे और जब उस पर जब कोई आपत्ति करेगा तो आप कह देंगे कि हम सब अपने घर का पाखाना साफ करते हैं तो हम सभी भंगी हैं( मैं इन शब्दों को प्रयोग के लिए माफी चाहती हूँ....)। फिर कोई किसी को चमार या मोची या कसाई या नाई या धोबी कह देगा और आप उसकी सफाई में कह देंगे कि हम सभी जूते पालिश करते हैं मीट मछली के लिए कभी कभार चाकू भी उठा लेते हैं, अपने बाल दाढ़ी भी बना लेते हैं, घर में कपड़े भी साफ कर लेते हैं। तो हम सब हुए ना चमार, मोची कसाई, नाई, धोबी। कितना सहज सामान्य और निर्मल तर्क है।

मैं नहीं कह सकती कि आपने इन सामाजिक पेशे से जुड़े शब्दों में समाए अपमान का कितना अंश सहा झेला है। न झेला हो तो ही सही है और आप कभी न झेलें यही दुआ करूँगी।

चमार होना देश में कितना बड़ा अभिशाप है यदि आप इस बात को समझते तो शायद उस अपमान के पेशे की तुलना घर के भीतर सिमटी कार्रवाई से न कर बैठते। अपने बच्चे का मैला साफ करना और सामाजिक रूप से भंगी होना किस तर्क से एक समान है, अपने गुह से खेलना और सिर पर दूसरों का मैला ढोना आपके लिए यदि बराबर हो तो कल आपके घर मैला भेजने का प्रबंध किया जाए या आपको दिल्ली नगर निगम में मैला कमाने का काम दिलाया जाए या आप स्वयं जा कर जुट जाएँ मैला कमाने । मैले से खेल कर एक बार अपना मन पवित्र कर लें। बहुत दिन हो गया होगा घर के बाहर के मैले से खेले। क्या आपको याद है कि कभी आपने रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर,बस अड्डे या किसी पड़ोसी के यहाँ जाकर उसका संडास साफ किया हो। उसका गू उठाया हो। उसके शौच घर को साफ सुथरा किया हो। क्या आपने कभी इस या इस तरह के किसी भी पेशे में सिर झुकाया है। हाथ लगाया है। किसी का गुह हटाना बहुत बड़ी बात है यहाँ तो लोग अपने घर के बड़े बूढ़ो तक को किसी नर्स किसी नौकर के हाथों लगा देते हैं।

रही बात गीतकार लेखक कवि स्वर्गीय नरेन्द्र शर्मा की पत्नी के नाम के आगे शर्मा लिखने की तो वे क्या लिखें से पहले मेरा प्रश्न है कि वे क्यों न लिखें शर्मा। आप अपने नाम के आगे क्या लिख कर पैसा कमाते हैं। आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ...नाई,चौहान हैं या सिंह दुबे या यादव इसमें लज्जित होनेवाली कौन सी बात है।( भंगी लिखना या कहाना सचमें आपके सिवा शायद ही कोई और पसंद करे)। क्या अपने जाति गोत्र को छिपाना भी किसी सामाजिक क्रांति का हिस्सा है। क्या इस महान देश में अपने जाति गोत्र धर्म क्षेत्र आदि को कभी छिपा सकते हैं। मेरा मानना है कि नहीं यह सम्भव नहीं है। जातिवादी, धर्मवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी होने और अपने जाति धर्म, भाषा पर अभिमान करना दोनों दो बाते हैं। आप लावन्या जी को केवल इस लिए नहीं घेर सकते कि वे अपनी माँ के प्रति कहे गए शब्दों से अपमानित पा रही थीं। यदि लावण्या जी को अपने विद्वान पिता और गरिमा मई माँ के प्रति सम्मान की भावना है तो क्या यह कोई अनैतिक बात है। क्या यदि उनमें उच्चकुलता का बोध है तो आप उन पर अपने मन का मैला फेंक कर मलिन करेंगे। उनके ब्राह्मणत्व को छीन कर उन्हें बिना हरिजन या चमार बनाए आप नहीं शांत होंगे। आपकी बातों से कुछ अलग तरह की गंध आ रही है।

कम शब्दों में कहूँ तो आपके तर्क कुछ ऐसे हैं कि पहले आप या कोई निलोफर किसी को वेश्या कह दें फिर बाद में सफाई में आप यह कहें कि हर स्त्री, हर पत्नी हर माँ वेश्या है क्योंकि संतान पैदा करने के लिए जो काम वेश्या करती है वही काम स्त्री,पत्नी, माँ को भी करना पड़ता है। आप क्या इस बात की छूट देंगे कि कोई आपके परिजनों को आपकी माँ आपकी पत्नी को सामाजिक रूप से ऐसा कुछ कहे। क्या आप अपने घर में स्वजनों के लिए ऐसा ही साधारण संबोधन प्रयोग करते हैं। क्या आप इन्हीं तर्कों के आधार पर अपनी पत्नी, माँ या बहन को वेश्या कहते हैं। यदि कहते या समझते हों तो कृपया ऐसा न करें। मुझे आपसे यह उम्मीद थी और है भी कि कम से कम माँ के प्रति किसी की भी भावनाओं पर प्रहार कर सुख पाने की कोशिश न करेंगे। माँ तो माँ ही होती है। चाहे आपकी हो मेरी या लावण्या जी की।

मैं यह भी नहीं समझ पा रही कि इस पूरे मामले में चोखेरबाली समुदाय चुप क्यों है। और आप इतनी बेताबी से शर्मा को शर्मा कहने का विरोध और भंगी को भंगी कहने को बेताब क्यों हैं। आप के मन में इन दोनों तबकों के प्रति कोई और भावना तो नहीं क्योंकि आपके लेख में पालिमिक्स कम प्रतिशोध अधिक है ऐसा न होता तो आप और लावन्या जी की माँ का अनादर करने वाले माफी माँग कर किसी शुभ काम में लग जाते। लेकिन आप तो लगातार मसि बहाने में लगे हैं। आप पर तो बड़े भाइयों के कहने का भी शायद ही कुछ असर नहीं है। समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। जो भूल स्वीकारने में भरोसा नहीं रखते।
सधिक्कार
आपकी

आभा

नोट- कुंदा वासनिक पर लावन्या जी का शानदार लेख अंतर्जाल से नदारद है। साथ ही उनकी निलोफर के विषाक्त मन को समझने वाला लेख भी। हम उसके लिंक नहीं दे रहे हैं।

26 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

waah abha sahii kehaa aapne , aur jab lavanya ji nae chokher bali sae aur apnae blog sae bhi apni post ko hataa diya to kyun masjeevi nae abhi tak is post ko nahin hataayaa . chokher bali kyun chup haen yae prashn maere andaer bhi haen aap samay nikaal kar is ko bhi padhey


व्हाट अन आईडिया सर जी ??


aap ko ehsaas hoga ki masjeevi ji yae pehli baar nahin kar rahey haen

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आज तो चमार को चमार कहना भी अपराध है, धारा 3 का मुकदमा बनेगा तो जमानत भी न मिलेगी।

आभा ने कहा…

दिनेश जी आपने सही कहा। यहाँ मुंबई के एक फिल्म निर्माता भरत भाई शाह को कोर्ट का लंबा चक्कर लगाना पड़ा था इन्हीं शब्दों के संबोधन के लिए।

Unknown ने कहा…

मैंने भी पढ़ा था , बहुत सी बाते सच होती है हमारे कहने का ढ़ग अगर प्रिय हो तो बात चोट न करेगी । पर जब जानबूझ कर ऐसा किया जाय तो फिर क्या कहा जा सकता है ।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

इंप्रेसिव।

पूरा पढ़ने से समझ में आता है कि लिखते वक्त आपके मन में कितना आक्रोश व क्षोभ था।

सटीक बात।

द्विवेदी जी से असहमत होने का सवाल ही नहीं है।

चोखेरबाली समुदाय चुप क्यों है इस बात को आप गहरे जाकर सोचिए शायद जवाब मिल जाए।

Kavita Vachaknavee ने कहा…

विचारणीय प्रश्न उठाए हैं आपने। वैसे मैला कमाना का अर्थ ही है, उससे अर्थोपार्जन करना। मैला और उसकी साफ़ सफ़ाई को कमाई के माध्यम के रूप में अपनाना, जैसा कि आपने लिखा भी कि स्त्री के गृहस्थ होने व वेश्या होने की बात। बस अन्तर यही है दोनों में। कमाई के लिए मैला साफ़ करना ही मैला कमाना है, न कि अपने बच्चों व अपने घर का साफ़ करना। जीवनयापन के लिए विवशतावश या दबाववश ‘ऐसे’ कार्यों को करने की पीड़ा भुक्तभोगी ही बेचारे जानते होंगे।

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

मामला किसी काम को संस्थागत रूप दे देने से जुड़ा हुआ है. श्रम-विभाजन में जब रोटेशन पद्धति समाप्त हो गयी तो सारे अपमानित-सम्मानित कार्यों का विभाजन हो गया. योग्यता के आधार पर अगर श्रम-विभाजन का रोटेशन होता चला आता तो आज बहुत से ब्राह्मण कहलानेवाले वही काम करते जिसे इनके 'भंगी' बन्धु अब तक करते चले आये हैं. तब शायद 'भंगी' और 'ब्राह्मण' अपमान या सम्मानजनक सूचक शब्द होते ही नहीं. तब शायद यह कानून बनता कि खबरदार जो किसी को 'ब्राह्मण' या 'भंगी' कहा तो!
...वरना हमारे दिनेशराय जी के अनुसार धारा ३ में धरे जाओगे:))

आभा जी ने सही कहा है कि माँ अगर हमारा गू-मूत करती है तो इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह 'भंगी' हो गयी. सेवा, परवाह, देखरेख, मजबूरी तथा नरक में कुछ तो फ़र्क करना चाहिए!
मसिजीवी जी का तर्क अगर माना जायेगा तब तो लोग खुद भी शौच के लिए पानी नहीं लेंगे! अगर 'भंगी' हो गए तो?:))

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आभा जी,
आपका क्षोभ साफ है ..

किसी की भी माँ के लिये इसी तरह की बात कही जाती तब मुझे भी ऐसा ही लगता जैसा आपने महसूस किया है !

- मेरी स्व.अम्मा की आत्मा को अकारण कष्ट हुआ इसका मुझे बहुत खेद है :-(

निलोफर जी ने ये लिखा है ,
" थोड़ी देर को ही सही एक चमारिन की जगह खुद को महसूस कर सकें।
वरना कोई आपसे कोई जाती अदावत तो मेरी है नहीं। "

मसिजिवी जैसे प्रबुध्ध लेखक
और अन्य सभी
अपनी ऊर्जा
सकारात्मक लेखन मेँ लगायेँ
यही कामना है

स स्नेह,
- लावण्या

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

इन सज्जन को अब तक भाव मिल रहा है! :)

अजय कुमार झा ने कहा…

aap bebaak likhtee hain, aur maine ab tak blog jagat mein itnaa bebaak kisi ko bhee nahin dekhaa. padh kar hairat mein hoon lagtaa hai ki ek aag bhar kar kalam chalaayee hai aapne. yun hee likhtee rahein.

दर्पण साह ने कहा…

is baare main bahut kuch kehna hai....


par....
kai baatein ais hoti hai ki hum unhein prakat rup main karte to hain par unka koi "sthai dastavez" nahi banate . ya phir un baaton ka koi saboot nahi chorna chahte kyunki wo baat palatkar aa sakti hai.

ye vishay bhi aisa hai. maun hi rahoonga....

बेनामी ने कहा…

नाम के अनुरूप हैं ये मसिजीवी, ना ही मासी रही और ना ही इसपर जीने वाले.
आपके अन्तर्द्वन्द्व को करीब से महसूस कर रहा हूँ और द्विवेदी जी के अभी तक अविकसित विचार से भी झंझावत में हूँ.
कुंठा और सामाजिक परिवर्तन के अस्वीकार का दर्शन मात्र है.
एक बार फिर से मसी को अपमानित किया.

मसिजीवी ने कहा…

नेट से बीसेक दिन से दूर हूँ...इस बीच क्‍या हुआ जो अब तक इस पर बातचीत जारी है मुझे नहीं पता, इस पोस्‍ट के विषय में भी किसी ने जानकारी दी तो अब देख रहा हूँ। आपने बात ज्‍यादा सफाई से कही है मैं भी यही सब कहना चाहता पर तय है कि असफल रहा, गलत समझे जाने की आशंका इस तरह के विषयों और शैली में रहती ही है सो हैरानी नहीं।
क्या यदि उनमें उच्चकुलता का बोध है तो आप उन पर अपने मन का मैला फेंक कर मलिन करेंगे। उनके ब्राह्मणत्व को छीन कर उन्हें बिना हरिजन या चमार बनाए आप नहीं शांत होंगे। आपकी बातों से कुछ अलग तरह की गंध आ रही है
दलित विमर्श में स्‍त्री प्रश्‍न तथा स्‍त्री विमर्श में दलित सवाल दिक्‍कत के क्षेत्र हैं ही। पूरी पोस्‍ट केवल उस उच्‍चकुलताबोध की ओर संकेत भर करने के लिए ही थी जो हम कथित सवर्णों में त्‍वचा पर हल्‍की सी खरोंच पड़ते ही उभर आता है। इस उच्‍चता बोध की सजा हमें अपमानित करके दी जानी चाहिए या नही ये दलित चिंतन इतिहास की अपनी रेख में तय करेगा/कर रहा है। कुल मिलाकर मैं केवल इसी ओर इंगित कर रहा था कि जिस एक संबोधन से हम झट आहत हो अपनी बाम्‍हनपन या ठकुराई के तमगे दिखाने लगते हैं वह कितनों ही की पीढि़यों का सच रहा है। अब प्रतिहिंसा इसका इलाज है या नहीं इसका सही जबाब मुझे नहीं मालूम।

चोखेरबाली क्‍यों चुप हैं, पोस्‍टें क्‍यों हटाई गईं, पता नहीं शायद इधर कोई रीकंसिलिएशन जैसा कुछ हुआ होगा जिससे मैं अनभिज्ञ हूँ। पर इतना तय है कि चोखेरबाली इसके लिए उतना बेहतर मंच नहीं, कोई दलित सामूहिक ब्‍लॉग होता तो बेहतर होता... वे उस ब्राहमणी समरसता का अच्‍छा उत्‍तर भी दे पाते जो इस प्रकरण में पूरी नग्‍नता से दिखाई दी है। सामूहिक दलित ब्‍लॉग ठीक वैसे ही इसे सही परिप्रेक्ष्‍य देते जैसे कि हम पुरुषों की करतूतों पर होती बातचीत में चोखेरबाली देती हैं।

उपर्युक्‍त विचार एक तरफ, यह सत्‍य है कि पॉलिमिकल होना एक बात है लेकिन जानबूझकर किसी को आहत करना एकदम भिन्‍न अत: मेरी बातों से किसी को अपमान महसूस हुआ है तो मैं खेद व्‍यक्‍त करता हूँ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

आभा जी आप की सब बातो से सहमत हुं,आप ने बहुत ही सही ढंग से सारी बात समझाई. धन्यवाद

आभा ने कहा…

उम्मीद करती हूँ कि लावन्या जी तक आपका खेद प्रकाश पहुँच गया होगा और वे आपको और बेनाम निलोफर को क्षमा कर चुकी होंगी।
आपने युगों के अपमानित दलित भंगी चमार के दुख का उपहास किया ऐसा होना नहीं था।
खैर।
क्या दलित समाज की पीड़ा को वाणी देने के लिए क्या तब तक रुके रहना होगा जब तक कि उनके समुदाय का ब्लॉग नहीं बन जाता?

अनूप शुक्ल ने कहा…

आभाजी, इस बारे में मुझे जो समझ में आया था वह मैं पहले ही चर्चा में लिख चुका था। आज आपकी पोस्ट देखी। यह सब एक स्त्री होने के नाते आप ही लिख सकती थीं। अद्भुत।

मसिजीवी ने जैसा लिखा कि उनका किसी को कष्ट पहुंचाने का इरादा नहीं था अत: इस बारे में और कुछ लिखना उचित नहीं होगा।

रचनाजी ने और बाद में लावण्याजी ने भी मुझसे चिट्ठाचर्चा से संबंधित पोस्ट के लिये कहा था। मैंने हटाई नहीं। कारण यह कि नेट से पोस्ट हटाना इस तरह का बहस का कोई इलाज नहीं होता। नेट पर जो आ जाता है वह किसी न किसी रूप में बना रहता है। जो पोस्टें लावण्य़ाजी के ब्लाग से और चोखेरबाली हट चुकी हैं वे नेट पर जस की तस मौजूद हैं।
लिंक देखिये: " मैं एक हरिजन कन्या हूँ "

विषाक्त मन ऐसे होते हैं :-( विवादीत पोस्ट और टिप्पणी : "चोखेरबाली" पर
मेरी समझ में इस तरह की पोस्टें ब्लाग से हटाना कोई इलाज नहीं है।

इससे यही लगता है कि नेट से हमें अबाध आजादी अभिव्यक्ति की मिली है उसका प्रयोग थोड़ा जिम्मेदारी से करें ताकि कल को हमारी ही लिखा हमको कष्ट न दे कि यह सब मैंने ही लिखा था!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

भूमिजा हो गई थी भूमि पुत्री थीँ सीता,
किँतु अभी उसका परीक्षा काल नहीँ बीता
- स्त्री की सुरक्षा तथा सम्मान पूरे समाज को करना निताँत आवश्यक है
मैँ तकनीकि मामलोँ मेँ
निपट अनाडी हूँ -
क्या कोई सुझा सकता है कि,
इन सारी विवादीत POSTS को
नेट से किस तरह हटाया जाये ?

दूसरे पुन: द्रढता से ये कहना चाहती हूँ कि,
मुझमेँ "ब्राह्मणत्ववादिता "
या
ऐसा 'गुरुभावना का बोध'
बिलकुल नहीँ है -
इन्सान मात्र के प्रति
कुदरती रुप से आदर भाव
तथा स्नेह / वात्सल्यभाव ही
मेरी प्रकृति है -
इसी के तहत "कुँदा " के प्रति भी आदर उमडा था
और आज भी वही भाव अक्षुण्ण है -
मुझसे मिले बिना ,
'पूर्व धारणा'
कृपया मेरे विचारोँ के बारे मेँ
न पालेँ ..
कई तरह के प्रेज्युडीस लोगोँ मेँ होते हैँ जो अनुभवोँ के बाद ढह जाते हैँ -
परदेसियोँ के लिये भी पहले थोडा 'अज्ञात वस्तु के प्रति भय'( Fear of the unknown )
सा था -
जो अब नहीँ रहा -
जब से जाना कि
इन्सान सिर्फ २ प्रकार के होते हैँ -
"अच्छे या बुरे !"
हमारी सोच मेँ,
व्यक्तित्त्व मेँ ,
अच्छाई का बढावा
और बुराई का अँत ही
हमेँ अच्छा इन्सान बनाता है - इसिलिये कहा था,
" सर्वे भवन्तु सुखिन: "
-- लावण्या

आभा ने कहा…

इन सारी विवादीत POSTS को
नेट से किस तरह हटाया जाये ?

लावन्या जी मैं भी नेट के समझदारों से यह आग्रह करती हूँ कि वे इस मामले में कुछ करें। लेकिन जहाँ तक जानती हूँ कि लिंक कहीं न कहीं पड़े रहते हैं।

मुनीश ( munish ) ने कहा…

The first Paramveer Chakra vijeta of India was a SHARMA--Major Somnath Sharma. The first Astronaut from India was a SHARMA--Sqn.Ldr.Rakesh Sharma. Recently,the last officer dying fighting insurgency in Kashmir was Major Mohit Sharma. At the same time many hardcore criminals are also also Sharma . So,it is very foolish to indulge in an arguement involving a SIRNAME.
Every Indian true to one's salt is aware of the great lyricist Pt. Narendra Sharma and whoever tries to hurt the feelings of his family deserves to be CONDEMNED unconditionally !!

बेनामी ने कहा…

आभा जी का अक्रोश समझ में आता है।
टिप्पणियाँ इसे और भी धार प्रदान करतीं हैं

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

आदरणीया लावण्या जी,

इस प्रकरण से सम्बन्धित बातें नेट से हटाने के बारे में क्यों सोच रही हैं? बेशक ये आपको आहत कर चुकी हैं, लेकिन इनसे बहुत कुछ ऐसा भी निकल कर आया है जो मनुष्य की सोच के नये विस्तार, विचारों की पतनशीलता और एक वर्ग विशेष के प्रति हमारी धारणा को परिभाषित करने में सहायक होगा। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन चुका है जो आगे नये लोगों की आँखें खोल सकता है।

वैसे भी यहाँ जो कुछ भी लिखा गया है उससे आपके सम्मान में कोई कमी नहीं होने वाली है। वह तो सदैव अक्षुण्ण रहेगा। बल्कि इस मुद्दे से अनेक सोई हुई आत्माएं आन्दोलित ही हुई हैं जिनसे विचार मन्थन की प्रक्रिया का प्रस्फुटन हो रहा है। इसे यूँ ही चलने दीजिए।

समुन्द्र मन्थन में जो रत्न निकले थे उनमें अमृत के साथ विष भी तो था। यदि विष नहीं होता तो नीलकण्ठ की प्रेरक कथा कैसे बनती?

मान सहित विष खायके शम्भु भयो जगदीश।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो शीश॥

Malaya ने कहा…

मेरे ख़याल से इस प्रकरण में हमें थोड़े ठण्डे दिमाग से सोचने की जरूरत है। चमार, भंगी इत्यादि होने और कहलाने में बड़ा फर्क है। इन शब्दों के प्रयोग में जो रूढ़ता आ गयी है उसे समझे बगैर हम एक सर्व सम्मत निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएंगे।

दर असल ‘चमार’ शब्द का प्रयोग अब सिर्फ़ एक जाति के लिए ही नहीं होता बल्कि भाषा में यह एक जीवन शैली का अर्थ भी देता है। सवर्णों के बीच भी किसी के घटिया व्यवहार के लिए ‘चमारपन’ का विशेषण प्रयुक्त होता है। यहाँ चमार का मतलब गन्दा, असभ्य, बदतमीज, दुष्ट, अधम, फूहड़, घिनौना, संस्कारहीन, स्वाभिमानविहीन, निर्लज्ज, और मूर्ख कुछ भी हो सकता है।

कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर भंगी या मेहतर होते थे जिनका पेशा झाड़ू लगाना और सिर पर मैला ढोना होता था। ऐसे लोग गन्दगी के पर्याय होते थे। बड़ा ही तुच्छ समझा जाता था इन्हें। इनसे थोड़ा ऊपर चर्मकारी का पेशा था जो मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने से लेकर उनका संस्कार करके चमड़े के जूते और दूसरे सामान तैयार करते थे। यही चमार (चर्मकार) कहलाते थे। मोचीगिरी इनका ही पेशा था। इन्हें समाज में जैसा स्थान प्राप्त था, और जैसी छवि थी उसी के अनुरूप इनके जातिसूचक शब्दों से भाषा में मुहावरे और विशेषण बन गये।

आज के आधुनिक समाज में अब जाति आधारित कामों के बँटवारे को समाप्तप्राय किया जा चुका है। अभी उत्तर प्रदेश सरकार ने ग्राम पंचायतों के लिए लाखों सफाई कर्मियों की भर्ती की है जिनमें बेरोजगारी से पीड़ित सभी जातियों के लड़कों ने पैसा खर्च करके स्वेच्छा से स्वच्छकार की नौकरी चुनी है।

सामाजिक दूरियाँ सिमट रही हैं। लेकिन भाषायी रूढ़ियों को इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता। किसी को ‘चमार’ कहना इसीलिए आहत करता है कि उसका आशय आजके समता मूलक समाज में पल रहे एक जाति विशेष के सदस्य से नहीं है बल्कि ऐसे अवगुणों से युक्त होना है जो आज का चमार जाति का व्यक्ति भी धारण करना नहीं चाहेगा। कदाचित्‌ इसी गड़बड़ से बचने के लिए सरकारी विधान में जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर रोक लग चुकी है।

लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के नाम पर अपने को ‘चमार’ कहे जाने का लिखित प्रमाणपत्र मढ़वाकर रखा जाता है। अपने को चमार बताकर पीढ़ी दर पीढ़ी उच्चस्तर की नौकरियाँ बिना पर्याप्त योग्यता के झपट लेने वाले भी समाज में चमार कहे जाने पर लाल-पीला हो जाते हैं।

किसी सवर्ण को जहाँ-तहाँ बेइज्जत करने का कोई मौका नहीं चूकते। अपनी इस कूंठा को खुलेआम व्यक्त करते हैं और दलित उत्पीड़न का झूठा मुकदमा ठोंक देने की धमकी देकर ब्लैक मेल करने पर इस लिए उतारू हो जाते हैं कि उसके बाप-दादों ने इनके बाप-दादों से मैला धुलवाया था।

आज सत्ता और सुविधा पाने के बाद ये जितनी जघन्यता से जातिवाद का डंका पीट रहे हैं उतना शायद इतिहास ने कभी न देखा हो।

तो भाई मसिजीवी जी, इस दोगलेपन का यही कारण है कि `चमार जाति' और `चमार विशेषण' का अन्तर इस शब्द के प्रयोग के समय अक्सर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाता है।

लावण्या जी का आहत होना स्वाभाविक है। नीलोफ़र का असभ्य भाषा का प्रयोग निन्दनीय। और आभा जी की कटुक्तियाँ इसी धारणा पर चोट करती हैं।

आधुनिक समाज में सफाई और सैनिटेशन का काम मशीनों और दूसरे उद्योगपतियों ने भी सम्हाल लिए हैं। लेकिन इन विशेषणों से छुटकारा मिलने में अभी वक्त लगेगा। एक सभ्य आदमी को इसके प्रयोग से बचना चाहिए।

अभय तिवारी ने कहा…

इस मामले से बहुत परिचित नहीं हूँ मगर आप के इस प्रकार के उग्र लेखन के दर्शन पहली बार हुए हैं। अच्छा है।
वैसे मसिजीवी भाई नाज़ुक तो हैं पर इतने भी नहीं कि आप के आक्रमण से बिलकुल ही घायल हो जायं। आप के आक्रमण में एक निर्दोष आक्रोष है, उसका स्वागत किया जाना चाहिये। विस्मय ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी से हुआ जो मसिजीवी को किसी भी प्रकार का भाव मिलने के खिलाफ़ है।
और अन्त में- लावण्या जी मेरी मित्र हैं और उन्हे चोट पहुँची यह देखकर मन दुखी है।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

aaj yun hi idhar tak aa gaya.
bahs padhkar man chubdh hua.
ek taraf to Nilofar ne apni tuch maansikata dikhai...fir masijiivi ne jo tark diye vo aur bhi vibhats to fir jis tarah LAvanya ji ne SHARMA likha vah garvbodh ka kam pratik nahii tha

sach hai jaat badi bhitar dhansi hai...

Smart Indian ने कहा…

आपकी यह पोस्ट आज ही देखी, पढ़कर अच्छा लगा. सारे मुद्दे को इतनी स्पष्टता के साथ कहकर भी सहजता बनाए रखी, धन्यवाद. अभय भाई के विचारों से सहमति रखते हुए भी ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के कथन को एंडोर्स करूंगा. नीलोफर और मसिजीवी के उस प्रलाप को इतना भाव दिए जाने की कोई ज़रुरत नहीं थी.