आते ही माफी माँग लूँगी
आजकल मेरा बेटा मानस का मन पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लग रहा है। दूसरी ओर मैं लगातार दो महीने से अपनी तबीयत खराब होने से दवाओं में उलझी हूँ। कल रात मैंने मानस को न पढ़ने के लिए कुछ ज्यादा ही डाँट दिया। अपनी डाँट से मैंने मानस को ठीक से एहसास दिला दिया कि मैंने उसके ही कहने पर अपनी नौकरी छोड़ी है। जब मैं पढ़ा रही थी तब उसका कहना था कि बेबी सिटिंग में उसका मन नहीं लगता है।
उसी दौरान उसका एक छोटा सा ऑपरेशन भी हुआ जिसके चलते वह करीब 20 दिन स्कूल से बाहर अस्पताल और घर पर रहा। उसके साथ साथ छुट्टी लेकर मैं भी लगातार घर पर बनी रही। लेकिन ठीक होने के बाद वह स्कूल जाने को तो राजी था पर बेबी सिटिंग जिसे महाराष्ट्र में पालणा घर कहते हैं में दिन गुजारने को तैयार नहीं था। विरोध के लिए या जिस भी कारण से उसने टिफिन खाना छोड़ दिया। पूरा टिफिन घर लाता और बेबी सिटिंग में भी कुछ नहीं खाता था। उसके इस व्यवहार से हम सब लगातार परेशान रहने लगे। ऐसा करीब दो महीने चला । मैं इस उम्मीद में थी कि बेटा समझ जाएगा और सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बल्कि कुछ दूसरा ही हुआ। जो कि एक दम उम्मीद के खिलाफ था। उसके पापा दिल्ली गए थे और रात में दस बजे मैं उसे सुला कर सो गई । रात में उसके रोने की आवाज सुन कर मैं जाग गई। करीब एक बजे थे और वह सोने की जगह चादर में मुँह ढँक कर रो रहा था । मैंने रोने की वजह पूछी तो बोला कि तुम कल से पढ़ाने मत जाओ। मैं अकेले घर में रहूँगा लेकिन बेबी सिटिंग में नहीं जाऊँगा। बात चीत के बीच मानस ने कहा कि उसे एक भाई या बहन भी चाहिए।
उसकी बातें सुन कर मैं परेशान हो गई और उससे कहा कि वह सो जाए। मैं पढ़ाने नहीं जाऊँगी। अगले दिन मैंने विद्यालय को इस्तीफा लिख कर काम से छुट्टी पाली। दिल्ली से लौटने पर मानस के पापा से मानस की बातें बताईं। पहले तो वे काफी भड़के फिर मेरे फैसले को सही बताया। उसके बाद मेरी बेटी भानी पैदा हुई। मानस और भानी दोनों की उम्र में काफी फर्क है लगभग 8 साल का। लेकिन तब से मानस खुश है और दोनो हिल मिल कर रहते हैं।
लेकिन कल उसे डाँट कर मैं इस उलझन में पड़ गई हूँ कि मैंने उससे अपनी नौकरी छूटने का कोई बदला तो नहीं चुकाया। मैंने उसे यह तक जता दिया कि जैसे मैं नौकरी करते समय मैं स्वर्ग में अप्सरा थी और अब घरेलू मक्खी हो गई हूँ।
हालाकि अभी वह नार्मल है और स्कूल गया है पर मैं सोच रही हूँ कि उसके आते ही उससे माफी माँग लूँगी ।
13 टिप्पणियां:
उफ़ ये जटिलतायें..
दस चीज़े चाहना एक साथ, मनुष्य का धर्म है। मिलती है या नहीं यह जीवन की जटिलता! जैसे मानस ने निश्छलता से अपनी इच्छा व्यक्त की, वैसे ही आपने भे दिल का गुबार निकाल दिया.. ठीक ही तो है। लिखती रहिये!
माँ की डांट में भी प्यार ही छिपा होता है.इसलिये इस डाँट का बुरा ना माने.मानस भी धीरे धीरे यह बात समझ जायेगा.
कोई माफी माँगने का इन्नोवेटिव तरीका हो तो हमें भी बताइये....आये दिन जब तब जरूरत पड़ती है...
बेटा याद रखेगा तो बराबर पढ़ने लगेगा....आप मन लगाकर दिवाली की तैयारी कीजिये....
वैसे घरेलू मक्खी बनना इतना आसान काम नहीं।
:))
आपकी उलझन वाजिब है और फैसला काबिले तारीफ। मानस जैसी मनःस्थिति से मैं भी अपने बचपन में गुजरी हूं।हांलाकि बडा भाई था साथ खेलने वाला फिर भी स्कूल से लौटने पर मां का ना मिलना व्यथित करता था। तभी तय किया था नौकरी कभी नहीं करुंगी।
आपको सलाह दे सकूं ऐसा तो नही हूं पर आभारी ज़रुर हूं कि आपके ऐसे लेखन से महिला मन को जानने- समझने का मौका मिलता है!!
एक हृदयस्पर्शी लेख लिखा है आपने जिसे सभी माता पिता समझ सकेंगे । वैसे मैं आपको यह कह सकती हूँ कि माफी माँगना तो माता पिता होने का एक भाग ही है और वह तो माँग ही लीजिये । चिन्ता करने का अधिक कारण नहीं है बच्चे आमतौर पर हमें माफ कर ही देते हैं ।
घुघूती बासूती
बच्चों की पढाई का आपका भागीरथ प्रयास ……………।
बहरहाल देर-सवेर नतीजा जरूर आयेगा।
उम्मीद पर दुनिया कायम है।
आप माँ हैं और ये घरेलू मक्खी शब्द आपके आभा मंडल को थोड़ा सा कम कर रहा है, क्रपया अपने आपको तुच्छ वस्तु ना समझें क्योंकि बालमन बिन माँ-बाप के प्यार बिन अधूरा है. आपके बेटे के रात में उठकर रोना जायज है और आपका नौकरी छोड़ देना आपका प्रथम कर्तव्य था जिसे आपने निर्वाह किया. तो आप् इसमें मक्खी कैसे बन गयीं ये हमें समझ नहीं आ रहा है.
बड़ी उलझन भरी बात है.
मख्खी बनना कुछ उचित प्रतीत नहीं होता.
एक माँ, एक गृहणी, एक पत्नी का दरजा तो स्वर्ग की अप्सरा से कहीं अधिक ऊँचा है. गर्व का विषय है.
बेजी जी माफी मागने का कोई तरीका नहीं होता माफी माँगे और सहज रहें...
संजीत भाई आप सलाह दे सकते हैं...
मदान जी और समीर भाई आपकी बतों से सहमत हूँ.....पर मैंने जैसे शब्द का इस्तेमाल किया है....
बहुत जटिल काम है अपने साथ हुये को बयान कर पाना। आपकी सारी बातें मैं महसूस कर सकता हूं। मुम्बई जैसे शहर के खर्चे, लगी-लगाई नौकरी छोड़ना फिर परेशान होने पर खीझना। आपने बहुत अच्छा लिखा। हम जब खीझते हैं तो उस समय जो मन आता है बोल जाते हैं। कोई डायलाग लिखने वाला नहीं होता जो लिखकर दे कि ये बोलो इफ़ेक्टिव रहेगा। दुआ है कि आप समय मिलने पर फ़िर कोई मन माफ़िक काम कर सकें। बच्चे बहुत समझदार होते हैं। सब समझ जायेंगे। शुभकामनायें।
आभा जी आपके घर में पहली बार आना हुआ लेकिन अपना सा घर ही लगा. अपनी पहचान से मोह और बच्चों से ममता.... इसमें से ममता ही चुनते हैं. हमने भी कुछ ऐसा ही किया और लगी लगाई नौकरी झट से छोड़ कर घर बैठ गए. ब्लॉग लिखने से पहले तक थोड़ा बेचैन थे लेकिन अब एक नए अनुभव के साथ जी रहे हैं. दिया जलता रहा नवरात्रि पर बोधि जी की पोस्ट अभी भी याद है और आपकी दिया बाती की रोशनी भी छाई सी हुई है यहाँ...
(लम्बे समय तक अध्यापन में रहने वाले शायद ज़्यादा बातूनी होते हैं..क्षमा करिएगा) :)
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