शनिवार, 8 अगस्त 2009

बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग, इस आजादी से बचाओ रे राम


बच्चों की देख-भाल से आजाद हैं लोग इस आजादी से बचाओ रे राम। कैसे आजादी के चक्कर में सारे जग के आँखों के तारे हो गए हैं बेचारे ।

बढ़ती महँगाई और तेज रफ्तार जिन्दगी की रेस में जी रही महानगरों की ज्यादातर आबादी यह तो सोच रही है कि उसे क्या कुछ पाना जैसे ढेरों पैसें, घर गाड़ी वो भी एक नही कई-कई, शोहरत, इज्जत। यह सब पाने की चाहत में, माता पिता को फुर्सत ही नहीं मिलती कि उन्होंने जो पाया है उसे संजो कर रखे, अपना अनमोल रतन, अपनी संतान, अपना बच्चा

जन्म लेते ही जिसे बाई को सुपुर्द कर दिया जाता है। इतना ही नहीं इसे अपनी शान की तरह देखा जा रहा है । और दावे से कहा जा रहा है कि हम गवार नहीं कि बच्चे की सूसू पाटी–लालन पालन में गुजार दें।

बात काफी हद तक सच भी लग सकती है कि घर बैठ कर डिप्रेशन का शिकार होने से अच्छा है काम करें । क्या घर डिप्रेशिव दिवारों से होता है या उस घर में रह रहे लोगों से ? अगर पति बाहर काम कर परेशान हो रहा है तो पत्नी घर पर नहीं थकती?
उलझन इस बात की है कि माँ बाप के जद्दो जहद का शिकार हो रहें हैं बच्चे जिनकी
कोई गलती नही है । भागा भागी की रफतार में, हम बड़े खुद तो मुकाम पाने की चाहत में जाग रहे हैं भाग रहे हैं, पर हमारे बच्चे जो कभी आँखों के तारे हुआ करते थे, अब बेचारे हो गए है, इनका दुर्भाग्य यह हैं कि दिन भर माँ नही मिलती क्यों कि वह घर पर होती ही नहीं। अपने लाल-लालनी की खुशियों को अपनी मेहनत से खरीद रही होती है बेचारी। और रात में भी अक्सर इसलिए नही मिलती की वह (माँ) भी थक चुकी होती है और अगली सुबह उसे भागना होता है खुशी की खरीदारी करने। पर अफसोस कि माँ बाप जब तक इस बात को समझे की कहाँ चूक हुई, वक्त हाथ से निकल चुका होता है और भगवान भरोसे हो जाती है इन बच्चों की जिन्दगी

9 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

सही है - स्थिति त्रासद भरा है. भागती ज़िन्दगी ने तो बच्चो से उनका मूल हक "देखभाल का हक" भी छिन लिया है.

Udan Tashtari ने कहा…

बस इन्हीं सब के बीच संतुलन और सामन्जस्य बैठाना ही तो सफलतापूर्वक दायित्वों के निर्वहन और सुखद जीवन की कुंजी है.

डिप्रेसिव दीवारें या लोग कहाँ होते हैं, वो तो हमारी ही मानसिकता होती है कि सब कुछ डिप्रेसिव मान बैठती है और हमें डिप्रेशन में ढकेल देती हैं.

अरे, मैं भी कहाँ आपको समझाने लगा..आप तो खुद ही सब जानती हैं. :)

सुन्दर विचारणीय आलेख!!

वाणी गीत ने कहा…

हाँ.. बिलकुल सही ...हमें ऐसी आज़ादी तो हरगिज़ नहीं चाहिए ..जो घर और बच्चों के प्रति लापरवाह बना दे..!!

विवेक रस्तोगी ने कहा…

क्या डिप्रेशन केवल घर की चारदीवारियों में होता है नहीं जी बिना दीवार की दुनिया में भी होता है, रही बात बच्चों की तो आजकल सब पहले अपना अपना सोचते हैं स्वार्थ परिवारों में भी घर कर गया है।

Yunus Khan ने कहा…

लगता है आसपास का कोई रिफरेन्‍स देखकर आप बेहद गुस्‍से में हैं । अगर इस गुस्‍से से कुछ लोग सुधर जाएं तो बढिया हो ।

समयचक्र ने कहा…

बिलकुल सही ...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

आभा जी ,
सही कह रही हैं आप --
आजकल बदलते माहौल में
बच्चो के साथ का बर्ताव,
उनका लालन पालन भी
पहले से अलग होता जा रहा है
-- समय कहाँ है किसी को ?
तेज दौड़ का दौर आ गया है ना ...
घरेलु स्त्री और माँ,
जो ताऊम्र
घर , परिवार के लिए ,
खप जाती है ,
वे अब ओब्सीलीट होती जा रहीं हैं
बहुत दिनों के बाद आपने लिखा -
- आशा है , परिवार सानंद है
सस्नेह,
- लावण्या

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज प्रेम और ममता का अभाव ही समस्त परिवार और संस्कार को दूषित कर रहा है। पैसे की अंधी दौड ने जीवन-मूल्यों को ताक पर रख दिया है। तो इसका बच्चों पर प्रतिकूल असर पडे़गा जो जीवन पर्यंत रहेगा।

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

very important issue with thoughtful approach.
nice post.

http://www.ashokvichar.blogspot.com