मंगलवार, 7 सितंबर 2010

बहुत दूर आ गई हूँ

बहुत दूर आ गई हूँ

बहुत दूर

बहुत दूर

इतनी दूर की नींद में भी

सपने में भी वहाँ नहीं पहुँच सकती।


एक अंधेरी छोटी सी गली

एक अंधेरा छोटा सा मोड़

एक कम रौशन छोटी सी दुनिया

सब पीछे रह गए

मैं इतने उजाले में हूँ कि

आँख तक नहीं झपकती अब तो।


सब इतना चकाचौंध है कि

भ्रम सा होता है

परछाइयाँ धूल हो गई हैं

आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ

दूर-दूर तक

कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ

सब पीछे

बहुत पीछे छूट गया है।

8 टिप्‍पणियां:

खबरों की दुनियाँ ने कहा…

बहुत खूब आभा जी , गहरी बात अंतःकरण से कही गई । सुन्दर अभिव्यक्ति जितनी तारीफ़ की जाय कम है । बधाई स्वीकार कीजिएगा । - आशुतोष मिश्र

राजेश उत्‍साही ने कहा…

सचमुच यह हमारे जिये जा रहे समय की विडम्‍बना है।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आधुनिकता कितना कुछ लील जाती है।

Abhishek Ojha ने कहा…

अक्सर ऐसा लगता है...

neelima garg ने कहा…

सब इतना चकाचौंध है कि
भ्रम सा होता है
परछाइयाँ धूल हो गई हैं
आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
good.....

शरद कोकास ने कहा…

अच्छी कविता है

मीनाक्षी ने कहा…

आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
दूर-दूर तक
कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ----
आज के दौर का एक सच जिसका हम हर पल सामना करते हैं... ....

अनुपमा पाठक ने कहा…

अच्छी कविता!