बहुत दूर आ गई हूँ
बहुत दूर
बहुत दूर
इतनी दूर की नींद में भी
सपने में भी वहाँ नहीं पहुँच सकती।
एक अंधेरी छोटी सी गली
एक अंधेरा छोटा सा मोड़
एक कम रौशन छोटी सी दुनिया
सब पीछे रह गए
मैं इतने उजाले में हूँ कि
आँख तक नहीं झपकती अब तो।
सब इतना चकाचौंध है कि
भ्रम सा होता है
परछाइयाँ धूल हो गई हैं
आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
दूर-दूर तक
कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ
सब पीछे
बहुत पीछे छूट गया है।
8 टिप्पणियां:
बहुत खूब आभा जी , गहरी बात अंतःकरण से कही गई । सुन्दर अभिव्यक्ति जितनी तारीफ़ की जाय कम है । बधाई स्वीकार कीजिएगा । - आशुतोष मिश्र
सचमुच यह हमारे जिये जा रहे समय की विडम्बना है।
आधुनिकता कितना कुछ लील जाती है।
अक्सर ऐसा लगता है...
सब इतना चकाचौंध है कि
भ्रम सा होता है
परछाइयाँ धूल हो गई हैं
आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
good.....
अच्छी कविता है
आराम के लिए कोई विराम नहीं यहाँ
दूर-दूर तक
कोई दर नहीं जहाँ ठहर सकूँ----
आज के दौर का एक सच जिसका हम हर पल सामना करते हैं... ....
अच्छी कविता!
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