सोमवार, 4 मई 2009

लोक सभा टीवी पर मेरी कविता

लिखने से कुछ बदलेगा क्या

बहुत पहले से लिखती रही । लिख लिख के भूलती रही। लेकिन छपने का सिलसिला बहुत देर से शुरू हुआ। न जाने कितनी कविताएँ इधर उधर बिखरी पड़ी हैं। कुछ बदल तो रहा नहीं है। कुछ डायरियाँ मायके के घर में रह गईं। बाद में उन्हें जाकर ले आई। कभी-कभी मन में आता था कि लिखने से क्या होता है। एक दो क्या सब कविताओं को कहीं गुम कर दूँ। भूल जाऊँ कि लिखती भी हूँ। कभी-कभी ऐसा हुआ भी कि महीनों क्या सालों नहं लिखा। हल्दी तेल नोन राई के झंझट में ऐसी उलझी कि कविता क्या खुद को भी भूल सी गई। चाँद की रोशनी बहुत उबाऊ सी लगी। बच्चे और पति तक से उलझन होने लगीं। सुबहें फीकी और दोपहरे बोझ सी लगीं। जीवन फालतू सा लगा। निरुद्देश्य लगी एक एक सांस।

लेकिन अभी ऐसा नहीं लगता। कुछ कविताएँ ज्ञानोदय, वागर्थ और कथादेश में प्रकाशित हुई हैं तो कुछ और कविताएँ देशज सहित कुछ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली हैं। लोगों ने पढ़ कर उत्साह बढ़ाया। लगा कि लिखा जा सकता है। मन में यह बात अभी भी बैठी है कि लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं। किंतु लिखती जा रही हूँ। लगातार ।

इसी बीच पिछले बुध को दिल्ली से बोधिसत्व के मित्र नागेश ओझा जी का फोन आया कि मेरी एक कविता लोक सभा टीवी पर पढ़ी गई है। स्त्रियों से जुड़े किसी परिसंवाद में कार्यक्रम की संचालिका ने मेरी स्त्रियाँ कविता जो कि ज्ञानोदय और कथादेश दोनों में प्रकाशित हुई है पढ़ी। इस खबर से मेरे पंख निकल आए। दिन भर उड़ती रही। लगा कि सच में लिखना सार्थक रहा। लेकिन वह सवाल अभी भी बना है कि क्या लिखने से दुनिया बदल जाएगी। क्या लोक सभा टीवी पर कविता पढ़े जाने से समाज पर कोई असर पड़ेगा। तमाम सवाल हैं. फिर भी लिखती रहूँगी। पढ़ें आप भी मेरी वह कविता जिसे लोक सभा टिवी पर पिछले बुधवार को पढ़ा गया है।

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैं
पदवियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी,
स्त्रियाँ गढ़ रही हैं गुरु
अपने दो चार बुझे अनबुझे शब्दों से
दे रही हैं ढ़ाढ़स,
बन रही हैं ढ़ाल
तमाम घरों के लिए बन कर ढ़ाल
खा रही हैं मार
सदियों से सह रही हैं मान और अपमान
घर और बाहर सब जगह।

फिर भी
खठकरेजी स्त्रियाँ बढ़ा रही हैं मर्यादा कुल की,
खुद की मर्यादा खो कर।

आगे निकलना तो दूर
जिंदगी की भागम भाग में
बराबरी तक के लिए
घिसटते हुए
दौड़ रही हैं पीछे-पीछे
सम्हालती हुई गर्भ को।

और उनको सम्हालने के लिए
कोई भी रुक नहीं रहा है
फिलहाल।

15 टिप्‍पणियां:

Abhishek Ojha ने कहा…

बधाई ! 'लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं' ये तो नहीं पता. क्योंकि पढ़कर लोग कहाँ बदल पाते हैं ! जो भी हो आपकी रचना पसंद आई. और इस सोच को छोड़कर आपको सतत लिखना चाहिए.

Unknown ने कहा…

हमारी स्क्रीन पर आपके ब्लॉग में सिर्फ बिंदियाँ नजर आ रही हैं , कुछ अन्य ब्लॉग पर भी ऐसा होता है ऐसा क्यों है समझ नहीं आता बहरहाल लोकसभा टीवी पर कविता आने की बहुत बहुत बधाई.

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

सचमुच स्त्रियाँ बदल रही हैं!!.........और वह भी घरों में रह कर !!

शत प्रतिशत सहमत!!

अफ़लातून ने कहा…

जानकर बहुत अच्छा लगा ।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

शोभा जी आप लिखें क्यूँ की लिखने से अच्छा और कोई काम नहीं...मन हल्का हो जाता है...खुद के लिए लिखें...दूसरे अपने आप पढेंगे...आप की रचना किसी कथा देश, वागर्थ या ज्ञानोदय में छपी इसलिए अच्छी नहीं है...बल्कि वो अच्छी ही थी इसलिए छपी है...ऐसा सोचें...और अगर ना छपती तो भी उतनी ही अच्छी रहती...अगर लिख कर आपको ख़ुशी मिलती है तो लेखन का काम पूरा हुआ...मेरा तो ऐसा ही मानना है...
नीरज

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

संवेदनशीलता इसी तरह बचाए रखना है. फिलहाल इसे ही प्राप्य माना जाए.

L.Goswami ने कहा…

खने के लिए हम लिख रहें हैं ..भले कुछ बदले या नही. आप लिखती रहें यही अनुरोध है

विनीत कुमार ने कहा…

लिखने से दुनिया बदलेगी कि नहीं,मैं चिंता से मुक्त होकर लिखता हूं और न कभी इस बहस में पड़ता हूं कि लिखने से कुछ बदल सकते हैं कि नहीं। मैं उसी तरह लिखता हूं जिस तरह से गांव में बैठा कोई व्यक्ति गुड़ बना रहा होता है, नोएडा में कोई जूते बना रहा होता और कपड़ा मिलों में कोई कपड़ा बना रहा होता है। विमर्श की दुनिया में इसे कल्चरल प्रोडक्शन कहते हैं।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बदलाव तो है। बाकी ओवरनाइट क्रान्ति तो सम्भव नहीं लगती।

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

पूरी कविता जैसे एक दस्तावेज हो और अपने हर शब्द में दर्ज किये हो स्त्री का संघर्ष अपने स्त्री होने से लगाकर स्त्री बने रहने का।

अंतिम बंद में तो जैसे सच्चाई को उधेड़ कर रख दिया है, दिल को छूती हुई पंक्तियाँ :-


आगे निकलना तो दूर
जिंदगी की भागम भाग में
बराबरी तक के लिए
घिसटते हुए
दौड़ रही हैं पीछे-पीछे
सम्हालती हुई गर्भ को।

और उनको सम्हालने के लिए
कोई भी रुक नहीं रहा है
फिलहाल।

मेरे विचारों में यह कविता सिर्फ पढी ही नही बल्कि गुनी जाना चाहिये दम्भी समाज में अपने व्यवहार और आचरण में।

कविता के लोकसभा में पाठन पर हार्दिक बधाईयाँ ।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

अभय तिवारी ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है! कविता नहीं.. वह तो पहले पढ़ी-सुनी हुई है, यह पोस्ट। तुम्हारे लिखने में एक सधापन विकसित हुआ है। जो भी है.. बहुत अच्छा है।
शुभकामनाएं.. और अच्छा लिखो!

श्यामल सुमन ने कहा…

अच्छी रचना है। आपकी चिन्ता भी जायज है। यह भी सच है कि स्थितियाँ लगातार बदल रहीं हैं।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

शोभना चौरे ने कहा…

मन में यह बात अभी भी बैठी है कि लिखने से कुछ बदलेगा कि नहीं। किंतु लिखती जा रही हूँ। लगातार ।
apne uttar khud hi de diya lkhte rhiye subah khushnuma ho javegi .
bhut acha likhti hai ap.mene phli bar hi pdha.
shobhana

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

apanaa mail address toh dijiye ... bodhsattav ji ka blog khulataa hi nahinn... . itani dooree mahsoos ho rahee hai ki kyaa kahenn .. samaadhaan jaldi dijiye...

Sanjeet Tripathi ने कहा…

चार मई के बाद से अब तक कोई पोस्ट नहीं।
जे तो गलत बात है भई।
इतनी ज्यादा व्यस्तता भी ठीक नहीं।
चलिए कुछ लिखिए जल्दी से